कलकत्ता, 1947 : दंगा प्रभावित क्षेत्रों में शांति स्थापित करने के लिए हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोग, भारत और पाकिस्तान का झंडा फहराते हुए। शहर में गश्त कर रहे ट्रकों पर चढ़े इन लोगों का यह चित्र विभाजन की खुशी और त्रासदी, दोनों को एक साथ बयान करता है।


इस अध्याय में....

आज़ाद हिंदुस्तान के शुरुआती कुछ साल चुनौतियों से भरे थे। सबसे बड़ी चुनौती राष्ट्रीय एकता और अखंडता की थी। आजाद हिंदुस्तान राजनीति के इतिहास की इस चर्चा की शुरुआत हम इन्हीं चुनौतियों के जिक्र से करेंगे। इस अध्याय में हम देखेंगे कि कैसे 1947 के बाद के पहले दशक में राष्ट्र-निर्माण की चुनौती से सफलतापूर्वक निपटा गयाः

  • आज़ादी मिली लेकिन देश का बँटवारा भी हुआ। बँटवारे के कारण बड़े पैमाने पर हिंसा हुई; लोग विस्थापित हुए। इस घटना से धर्मनिरपेक्ष भारत की धारणा पर ही आँच आने लगी थी।
  • देसी रियासतों को भारत संघ में शामिल करने का मसला तरंत हल करना ज़रूरी था।
  • देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों की भाषाएँ अलग-अलग थीं। लोगों की आकांक्षाओं का खयाल रखते हुए देश की अंदरूनी सीमा-रेखाएँ फिर से तय करनी थीं।

अगले दो अध्यायों में हम दूसरी चुनौतियों की भी चर्चा करेंगे। शुरुआती दौर में देश को इन चुनौतियों से निपटना पड़ा था। 


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अध्याय 1

राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ

नए राष्ट्र की चुनौतियाँ

सन् 1947 के 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि को हिंदुस्तान आज़ाद हुआ। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस रात संविधान सभा के एक विशेष सत्र को संबोधित किया था। उनका यह प्रसिद्ध भाषण 'भाग्यवधू से चिर-प्रतीक्षित भेंट' या 'ट्रिस्ट विद् डेस्टिनी' के नाम से जाना गया।

हिंदुस्तान की जनता इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी। आपने इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में पढ़ा है कि हमारी आज़ादी की लड़ाई में कई आवाजें बुलंद थीं। बहरहाल, दो बातों पर सबकी सहमति थी-पहली बात यह कि आजादी के बाद देश का शासन लोकतांत्रिक सरकार के जरिए चलाया जाएगा और दूसरी यह कि सरकार सबके भले के लिए काम करेगी। इस शासन में गरीबों और कमज़ोरों का खास खयाल रखा जाएगा। देश अब आज़ाद हो चुका था और आज़ादी से जुड़े इन सपनों को साकार करने का वक्त आ गया था।

यह कोई आसान काम नहीं था। आज़ाद हिंदुस्तान का जन्म कठिन परिस्थितियों में हुआ। हिंदुस्तान सन् 1947 में जिन हालात के बीच आज़ाद हुआ, शायद उस वक्त तक कोई भी मुल्क वैसे हालात में आज़ाद नहीं हुआ था। आजादी मिली लेकिन देश के बँटवारे के साथ। सन् 1947 का साल अभूतपूर्व हिंसा और विस्थापन की त्रासदी का साल था। आज़ाद हिंदुस्तान को इन्हीं परिस्थितियों में अपने बहुविध लक्ष्यों को हासिल करने की यात्रा शुरू करनी पड़ी। आजादी के उन उथल-पुथल भरे दिनों में हमारे नेताओं का ध्यान इस बात से नहीं भटका कि यह नया राष्ट्र चुनौतियों की चपेट में है।

साभार : पी.आई.बी.

15 अगस्त, 1947 : लाल किले की प्राचीर से भाषण देते प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू

" कल हम अंग्रेजी-राज की गुलामी से आजाद हो जाएँगे लेकिन आधी रात को भारत का बँटवारा भी होगा। इसलिए कल का दिन हमारे लिए खुशी का दिन होगा और गम का भी। "

महात्मा गाँधी 

14 अगस्त 1947 कलकत्ता

तीन चुनौतियाँ

मुख्य तौर पर भारत के सामने तीन तरह की चुनौतियाँ थीं। पहली और तात्कालिक चुनौती एकता के सूत्र में बँधे एक ऐसे भारत को गढ़ने की थी जिसमें भारतीय समाज की सारी विविधताओं के लिए जगह हो। भारत अपने आकार और विविधता में किसी महादेश के बराबर था। यहाँ अलग-अलग बोली बोलने वाले लोग थे, उनकी संस्कृति अलग थी और वे अलग-अलग धर्मों के अनुयायी थे। उस वक्त आमतौर पर यही माना जा रहा था कि इतनी विविधताओं से भरा कोई देश ज़्यादा दिनों तक एकजुट नहीं रह सकता। देश के विभाजन के साथ लोगों के मन में समाई यह आशंका एक तरह से सच साबित हुई थी। भारत के भविष्य को लेकर गंभीर सवाल खड़े थे : क्या भारत एक रह पाएगा? क्या ऐसा करने के लिए भारत सिर्फ़ राष्ट्रीय एकता की बात पर सबसे ज़्यादा ज़ोर देगा और बाकी उद्देश्यों को तिलांजलि दे देगा? क्या ऐसे में हर क्षेत्रीय और उप-क्षेत्रीय पहचान को खारिज कर दिया जाएगा? उस वक्त का सबसे तीखा और चुभता हुआ एक सवाल यह भी था कि भारत की क्षेत्रीय अखंडता को कैसे हासिल किया जाए?

दूसरी चुनौती लोकतंत्र को कायम करने की थी। आप भारतीय संविधान के बारे में पहले ही पढ़ चुके हैं। आप जानते हैं कि संविधान में मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गई है और हर नागरिक को मतदान का अधिकार दिया गया है। भारत ने संसदीय शासन पर आधारित प्रतिनिधित्वमूलक लोकतंत्र को अपनाया। इन विशेषताओं से यह बात सुनिश्चित हो गई कि

लोकतांत्रिक ढाँचे के भीतर राजनीतिक मुकाबले होंगे। लोकतंत्र को कायम करने के लिए लोकतांत्रिक संविधान जरूरी होता है लेकिन इतना भर ही काफ़ी नहीं होता। चुनौती यह भी थी कि संविधान से मेल खाते लोकतांत्रिक व्यवहार-बरताव चलन में आएँ।

तीसरी चुनौती थी ऐसे विकास की जिससे समूचे समाज का भला होता हो न कि कुछ एक तबकों का। इस मोर्चे पर भी संविधान में यह बात साफ़ कर दी गई थी कि सबके साथ समानता का बरताव किया जाए और सामाजिक रूप से वंचित तबकों तथा धार्मिक-सांस्कृतिक अल्पसंख्यक समुदायों को विशेष सुरक्षा दी जाए। संविधान ने 'राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों' के अंतर्गत लोक-कल्याण के उन लक्ष्यों को भी स्पष्ट कर दिया था जिन्हें राजनीति को ज़रूर पूरा करना चाहिए। अब असली चुनौती आर्थिक विकास तथा गरीबी के खात्मे के लिए कारगर नीतियों को तैयार करने की थी।

आज़ाद हिंदुस्तान ने इन चुनौतियों के आगे क्या रुख अपनाया? संविधान में तय किए गए विभिन्न लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में कहाँ तक सफलता मिली? इस पूरी किताब में इन्हीं सवालों को खंगालने की कोशिश की गई है। इस किताब में आज़ादी के बाद के दौर की भारतीय राजनीति की कथा लिखी गई है ताकि आप खुद इन जैसे बड़े सवालों के अपने उत्तर तलाश पाने के काबिल हो सकें। शुरुआत के तीन अध्यायों में हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि ऊपर जिन तीन चुनौतियों का जिक्र किया गया है उनका आज़ादी के बाद शुरुआती सालों में कैसे सामना किया गया।

मेरे मन में हमेशा यह इच्छा रही कि एक टाइम-मशीन मिल जाए तो मैं थोड़ा पीछे लौटूँ और 15 अगस्त, 1947 के जश्न में शिरकत । करूँ। लेकिन, यहाँ तो मामला कुछ अलग ही नज़र आ रहा है।

आज़ादी के तुरंत बाद राष्ट्र-निर्माण की चुनौती सबसे प्रमुख थी। इस पहले अध्याय में हम इसी चुनौती पर ध्यान केंद्रित करेंगे। शुरुआत में उन घटनाओं की चर्चा की जाएगी जिन्होंने आज़ादी को एक संदर्भ प्रदान किया। इससे हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि आज़ादी के समय राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा का सवाल सबसे प्रमुख चुनौती के रूप में क्यों उभरा। इसके बाद हम यह देखेंगे कि भारत ने एक राष्ट्र के रूप में अपने को किस तरह एक साझे इतिहास तथा साझी नियति के फ़लक पर गढ़ा। अगले दो अध्यायों में हम लोकतंत्र कायम करने और बराबरी तथा इंसाफ पर आधारित आर्थिक-विकास हासिल करने की चुनौतियों पर विचार करेंगे।  

 

यहाँ प्रदर्शित तीन डाक-टिकटों को प्रथम गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी 1950, के अवसर पर जारी किया गया था। इन टिकटों पर छपे चित्र से आपको नए गणतंत्र के सामने खड़ी किन-किन चुनौतियों के बारे में जानकारी मिलती है? अगर आपको 1950 में इन डाक-टिकटों का डिज़ाइन तैयार करने के लिए कहा जाता तो आप इन टिकटों पर किस तरह के चित्र उकेरते?

साभार : 'डॉन' कराची, 14 अगस्त 1947

सुब्ह-ए-आज़ादी

- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

ये दाग़-दाग़ उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं ये वो सहर तो नहीं कि जिसकी आरजू लेकर चले थे यार कि; मिल जाएगी कहीं ना कहीं फ़लक के दस्त में तारों की आखिरी मंजिल कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल कहीं तो जाके रुकेगा सफीन-ए-ग़म-ए-दिल

1. अंधियारी सुबह, 2. आकाश, 3. दिल के ग़म की नाव

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (1911-1984) सियालकोट : में जन्म; विभाजन के बाद पाकिस्तान में ही रहे। वामपंथी रुझान के कारण उनका पाकिस्तानी शासन तंत्र से हमेशा टकराव बना रहा। लंबा समय कारावास में गुजरा। ‘नक्शे फ़रियादी', 'दस्त-ए-सबा' तथा 'जिंदानामा' उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं। बीसवीं शताब्दी के दक्षिण एशियाई कवियों में फ़ैज़ बहुत ऊँचा स्थान रखते हैं।  

हमें बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों की इन जटिलताओं को दूर करने की भावना से काम करना चाहिए। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक-दोनों ही समुदायों में तरह-तरह के लोग । शामिल हैं। अगर मुसलमान पठान, पंजाबी, शिया और सुन्नी आदि में बँटे हैं तो हिंदू भी ब्राह्मण, वैष्णव, खत्री तथा बंगाली, मद्रासी आदि समुदायों में...। पाकिस्तान में आप आज़ाद हैं, आप अपने मंदिर में जाने के लिए आज़ाद हैं, आप अपनी मस्जिद में जाने या किसी भी अन्य पूजास्थल पर जाने के लिए आज़ाद हैं। आपके धर्म, आपकी जाति या विश्वास से राज्य को कुछ लेना-देना नहीं है।

- 11 अगस्त, 1947 को कराची में, पाकिस्तान की संविधान सभा में अध्यक्षीय भाषण देते हुए मुहम्मद अली जिन्ना


साभारः टाइम्स ऑफ इंडिया, बंबई 15 अगस्त 1947 

वारिस शाह से!

आज वारिस शाह से कहती है-अपनी कब्र में से बोलो।

और इश्क की किताब का कोई नया वर्क खोलो! पंजाब की एक बेटी रोई थी, तू ने उस की लंबी दास्तान लिखी, आज लाखों बेटियाँ रो रही हैं वारिस शाह! तुम से कह रही हैं: । ऐ दर्दमंदों के दोस्त, पंजाब की हालत देखो चौपाल लाशों से अटा पड़ा है, चनाब लहू से भर गया है। किसी ने पाँचों दरियाओं में जहर मिला दिया है और यही पानी धरती को सींचने लगा है इस ज़रखेज़ धरती से जहर फूट निकला है। देखो, सुर्थी कहाँ तक आ पहुँची! और कहर कहाँ तक आ पहुँचा! फिर जहरीली हवा वन-जंगलों में चलने लगी उसने हर बाँस की बाँसुरी जैसे एक नाग बना दी...

अमृता प्रीतमः चुनी हुई कविताएँ (1991 चौथा संस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ)

अमृता प्रीतम (1919-2005) : पंजाबी भाषा की प्रमुख कवयित्री और कथाकार, साहित्यिक उपलब्धियों के लिए साहित्य अकादमी, पदमश्री और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। विभाजन के बाद दिल्ली में निवास। जीवन के अंतिम समय तक पंजाबी की साहित्यिक पत्रिका 'नागमणि' का संपादन।

भारत में मुसलमान अल्पसंख्यकों की तादाद इतनी ज़्यादा है कि वे चाहें तब भी यहाँ से कहीं और । नहीं जा सकते। यह एक बुनियादी तथ्य है और इस पर कोई अँगुली नहीं उठाई जा सकती। पाकिस्तान चाहे जितना उकसावा दे या वहाँ के गैर-मुस्लिमों को अपमान और भय के चाहे जितने भी यूंट पीने पड़े, हमें अपने अल्पसंख्यकों के साथ सभ्यता और शालीनता के साथ पेश आना है। लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था में हमें उन्हें नागरिक के अधिकार देने होंगे और उनकी रक्षा करनी होगी। अगर हम ऐसा करने में कामयाब नहीं होते तो यह एक नासूर बन जाएगा जो पूरी राज-व्यवस्था में ज़हर फैलाएगा और शायद उसको तबाह भी कर दे।

- जवाहरलाल नेहरू, मुख्यमंत्रियों को एक पत्र में, 15 अक्तूबर 1947


विभाजन : विस्थापन और पुनर्वास

14-15 अगस्त 1947 को एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र भारत और पाकिस्तान-अस्तित्व में आए। ऐसा 'विभाजन' के कारण हुआ; ब्रिटिश इंडिया को 'भारत' और 'पाकिस्तान' के रूप में बाँट दिया गया। आपने इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में उस राजनीतिक घटनाक्रम के बारे में पढ़ा है जिसके फलस्वरूप दोनों देशों के भू-भाग को रेखांकित करते हुए सीमा-रेखा खींच दी गई। मुस्लिम लीग ने 'द्वि-राष्ट्र सिद्धांत' की बात की थी। इस सिद्धांत के अनुसार भारत किसी एक कौम का नहीं बल्कि 'हिंदू' और 'मुसलमान' नाम की दो कौमों का देश था और इसी कारण मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए एक अलग देश यानी पाकिस्तान की माँग की। कांग्रेस ने 'द्वि-राष्ट्र सिद्धांत' तथा पाकिस्तान की माँग का विरोध किया। बहरहाल, सन् 1940 के दशक में राजनीतिक मोर्चे पर कई बदलाव आए; कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा तथा ब्रिटिश-शासन की भूमिका जैसी कई बातों का ज़ोर रहा। नतीजतन, पाकिस्तान की माँग मान ली गई।

विभाजन की प्रक्रिया

फ़ैसला हुआ कि अब तक जिस भू-भाग को 'इंडिया' के नाम से जाना जाता था उसे 'भारत'

और 'पाकिस्तान' नाम के दो देशों के बीच बाँट दिया जाएगा। यह विभाजन दर्दनाक तो था ही, इस पर फैसला करना और अमल में लाना और भी कठिन था। तय किया गया कि धार्मिक बहुसंख्या को विभाजन का आधार बनाया जाएगा। इसके मायने यह थे कि जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक थे वे इलाके 'पाकिस्तान' के भू-भाग होंगे और शेष हिस्से 'भारत' कहलाएँगे।

यह बात थोड़ी आसान जान पड़ती है लेकिन असल में इसमें कई किस्म की दिक्कतें थीं। पहली बात तो यह कि 'ब्रिटिश इंडिया' में कोई एक भी इलाका ऐसा नहीं था जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हों। ऐसे दो इलाके थे जहाँ मुसलमानों की आबादी ज़्यादा थी। एक इलाका पश्चिम में था तो दूसरा इलाका पूर्व में। ऐसा कोई तरीका न था कि इन दोनों इलाकों को जोड़कर एक जगह कर दिया जाए। इसे देखते हुए फैसला हुआ कि पाकिस्तान में दो इलाके शामिल होंगे यानी पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान तथा इनके बीच में भारतीय भू-भाग का एक बड़ा विस्तार रहेगा। दूसरी बात यह कि मुस्लिम बहुल हर इलाका पाकिस्तान में जाने को राजी हो, ऐसा भी नहीं था। खान अब्दुल गफ्फार खान पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत के निर्विवाद नेता थे। उनकी प्रसिद्धि 'सीमांत गाँधी' के रूप में थी और वे 'द्वि-राष्ट्र सिद्धांत' के एकदम खिलाफ़ थे। संयोग से, उनकी आवाज़ की अनदेखी की गई और 'पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत' को पाकिस्तान में शामिल मान लिया गया।

तीसरी समस्या और भी विकट थी। 'ब्रिटिश-इंडिया' के मुस्लिम बहुल प्रांत पंजाब और बंगाल में अनेक हिस्से बहुसंख्यक गैर-मुस्लिम आबादी वाले थे। ऐसे में फैसला हुआ कि इन दोनों प्रांतों में भी बँटवारा धार्मिक बहुसंख्यकों के आधार पर होगा और इसमें जिले अथवा उससे निचले स्तर के प्रशासनिक हलके को आधार माना जाएगा। 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि तक यह फैसला नहीं हो पाया था। इसका मतलब यह हुआ कि आजादी के दिन तक अनेक लोगों को यह पता नहीं था कि वे भारत में हैं या पाकिस्तान में। पंजाब और बंगाल का बँटवारा विभाजन की सबसे बडी त्रासदी साबित हुआ।

अच्छा। तो मुझे अब पता चला कि पहले जिसे 'पूर्वी' बंगाल कहा जाता था वही आज का बांग्लादेश है। तो क्या यही कारण है कि हमारे वाले बंगाल को 'पश्चिमी' बंगाल कहा जाता है। 

इसी समस्या से जुड़ी हुई चौथी और विभाजन की सबसे अबूझ कठिनाई 'अल्पसंख्यकों' की थी। सीमा के दोनों तरफ़ 'अल्पसंख्यक' थे। जो इलाके अब पाकिस्तान में हैं वहाँ लाखों की संख्या में हिंदू और सिख आबादी थी। ठीक इसी तरह पंजाब और बंगाल के भारतीय भू-भाग में भी लाखों की संख्या में मुस्लिम आबादी थी। दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में भी मुसलमानों की एक बड़ी आबादी थी। ये सब लोग एक तरह से साँसत में थे। इन लोगों ने पाया कि हम तो अपने ही घर में विदेशी बन गए। जिस ज़मीन पर वे और उनके पुरखे सदियों से आबाद रहे उसी जमीन पर वे 'विदेशी' बन गए थे। जैसे ही यह बात साफ़ हई कि देश का बँटवारा होने वाला है वैसे ही दोनों तरफ़ के अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे। कोई भी इस बात का अनुमान नहीं लगा सका था कि यह समस्या विकट रूप धारण करने जा रही है। इस कठिनाई से उबरने के लिए किसी के पास कोई योजना भी नहीं थी। शुरू-शुरू में लोग-बाग और नेता यही मानकर चल रहे थे कि हिंसा की घटनाएँ अस्थाई हैं और जल्दी ही इनको काबू में कर लिया जाएगा। लेकिन, बडी जल्दी हिंसा नियंत्रण से बाहर हो गई। दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों के पास एकमात्र रास्ता यही बचा था कि वे अपने-अपने घरों को छोड़ दें। कई बार तो उन्हें ऐसा चंद घंटों की मोहलत के भीतर करना पड़ा।

विभाजन के परिणाम

सन् 1947 में बड़े पैमाने पर एक जगह की आबादी दूसरी जगह जाने को मज़बूर हुई थी। आबादी का यह स्थानांतरण आकस्मिक, अनियोजित और त्रासदी से भरा था। मानव-इतिहास के अब तक ज्ञात सबसे बड़े स्थानांतरणों में से यह एक था। धर्म के नाम पर एक समुदाय

साभार : डी.पी.ए.

शरणार्थियों से भरी एक ट्रेन, 1947


मेहमाननवाजी में कसर 

दंगाइयों ने चलती ट्रेन को रोक लिया। गैर-मजहब के लोगों को खींच-खींच के निकाला और तलवार तथा गोली से मौत के घाट उतार दिया। बाकी यात्रियों को हलवा, फल और दूध दिया गया। आयोजकों के मुखिया ने कहा- "बहनो-भाइयो! ट्रेन के आने की खबर देर से मिली। इसी कारण हम आपका स्वागत पुरजोर तरीके से नहीं कर सके-जैसा कि आप सब चाहते होंगे।"

- सआदत हसन मंटो

मंटो की कहानी कस्र-ए-नफ्सी के हिंदी रूपांतर से लिया गया एक अंश।  

के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों को बेरहमी से मारा। लाहौर, अमृतसर और कलकत्ता जैसे शहर सांप्रदायिक अखाड़े में तब्दील हो गए। जिन इलाकों में ज़्यादातर हिंदू अथवा सिख आबादी थी, उन इलाकों में मुसलमानों ने जाना छोड़ दिया। ठीक इसी तरह मुस्लिम बहुल आबादी वाले इलाकों से हिंदू और सिख भी नहीं गुजरते थे।

लोग अपना घर-बार छोड़ने के लिए मजबूर हुए। वे सीमा के एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ गए और इस क्रम में लोगों को बड़ी से बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ा। दोनों ही तरफ़ के अल्पसंख्यक अपने घरों से भाग खड़े हुए और अकसर अस्थाई तौर पर उन्हें शरणार्थी शिविरों में पनाह लेनी पड़ी। कल तक जो लोगों का अपना वतन हुआ करता था, वहीं की पुलिस अथवा स्थानीय प्रशासन अब इन लोगों के साथ रुखाई का बरताव कर रहा था।

लोगों को सीमा के दूसरी तरफ़ जाना पड़ा और ऐसा उन्हें हर हाल में करना था। अकसर लोगों ने पैदल चलकर यह दूरी तय की। सीमा के दोनों ओर हज़ारों की तादाद में औरतों को अगवा कर लिया गया। उन्हें जबरन शादी करनी पड़ी और अगवा करने वाले का धर्म भी अपनाना पड़ा। कई मामलों में यह भी हुआ कि खुद परिवार के लोगों ने अपने 'कुल की इज़्ज़त' बचाने के नाम पर घर की बहू-बेटियों को मार डाला। बहुत-से बच्चे अपने माँ-बाप से बिछड गए। जो लोग सीमा पार करने में किसी तरह सफल रहे उन्होंने पाया कि अब वे बेठिकाना हो गए हैं। इन लाखों शरणार्थियों के लिए देश की आज़ादी का मतलब था महीनों और कभी-कभी सालों तक किसी शरणार्थी शिविर में ज़िंदगी काटना।

भारत और पाकिस्तान के लेखक, कवि तथा फिल्म निर्माताओं ने अपने उपन्यास, लघुकथा, कविता और फिल्मों में इस मार-काट की नृशंसता का जिक्र किया; विस्थापन और हिंसा से पैदा दुखों को अभिव्यक्ति दी। विभाजन की विपदा का जिक्र करते हुए रचनाकारों ने अकसर वही जुमला इस्तेमाल किया जो इस विपत्ति को झेलने वाले 'बँटवारे' का जिक्र करते हुए करते थे। इन सबों के लिए बँटवारे का मतलब था 'दिल के दो टुकड़े हो जाना।

"विभाजन' में सिर्फ़ संपदा, देनदारी और

साभारः नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी

नोआखली (अब बांग्लादेश में) की यात्रा पर गाँधी, 1947

परिसंपत्तियों का ही बँटवारा नहीं हुआ। इस ‘विभाजन' में दो समुदाय जो अब तक पड़ोसियों की भाँति रहते आ रहे थे, हिंसक अलगाव का शिकार हुए।

वित्तीय संपदा के साथ-साथ टेबुल, कुर्सी, टाईपराइटर और पुलिस के वाद्ययंत्रों तक का बँटवारा हुआ था। सरकारी और रेलवे के कर्मचारियों का भी बँटवारा हुआ। अब तक साथ-साथ रहते आए दो समुदायों का यह एक हिंसक और भयावह विभाजन था। अनुमान किया जाता है कि विभाजन के कारण 80 लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़कर सीमा-पार जाना पड़ा। विभाजन की हिंसा में तकरीबन पाँच से दस लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई।

प्रशासनिक मुश्किल और वित्तीय कठिनाई के अतिरिक्त विभाजन के साथ कुछ और ज़्यादा गहरे मुद्दे जुड़े हुए थे। भारत के नेता द्वि-राष्ट्र सिद्धांत में यकीन नहीं करते थे। बहरहाल, विभाजन तो धर्म के आधार पर ही हुआ था। क्या इस वजह से भारत अपने-आप एक हिंदू राष्ट्र बन गया? विभाजन के दौरान बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी पाकिस्तान चली गई। इसके बावजूद 1951 के वक्त भारत की कुल आबादी में 12 फीसदी मुसलमान थे। ऐसे में सवाल यह था कि भारत अपने मुसलमान नागरिकों तथा दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों मसलन सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी और यहूदियों के साथ क्या बरताव करे? बँटवारे के कारण हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव पहले से ही कायम था।

इन संघर्षों के साथ प्रतिस्पर्धी राजनीतिक हित जुड़े थे। मुस्लिम लीग का गठन मुख्य रूप से औपनिवेशिक भारत में मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए हुआ था। मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की माँग करने के एतबार से अग्रणी थी। ठीक इसी तरह कुछ और संगठन भी थे जो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए हिंदुओं को लामबंद करने की कोशिश में लगे थे। बहरहाल, भारत की कौमी सरकार के अधिकतर नेता सभी नागरिकों को समान दर्जा देने के हामी थे चाहे नागरिक किसी भी धर्म का हो। वे भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में नहीं देखना चाहते थे जहाँ किसी एक धर्म के अनुयायियों को दूसरे धर्मावलंबियों

गम हवा

सलीम मिर्जा आगरा में रहते हैं और जूते का व्यवसाय करते हैं। विभाजन के बाद सलीम अपने ही लोगों के बीच अजनबी बन जाते हैं। विभाजन के बाद बदले माहौल में सलीम अपने आसपास की दुनिया से संबंध नहीं बिठा पाते। धीरे-धीरे उनका व्यवसाय भी चौपट होने लगता है। देश के दूसरी तरफ़ से आया एक शरणार्थी परिवार उनके पुश्तैनी मकान पर कब्जा कर लेता है। घटनाओं की इस गहमागहमी में सलीम की बेटी मौत को गले लगा लेती है। लेकिन सलीम फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ते। उन्हें यकीन है कि हालात दुबारा सामान्य हो जाएँगे।

सलीम की इस सोच से उनके परिवार वाले ही इत्तेफाक नहीं रखते। परिवार के कई सदस्यों ने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला कर लिया है। सलीम पाकिस्तान जाने की विवशता और भारतीय रहने की इच्छा के बीच फंस गए हैं। कहानी में सलीम के सामने एक निर्णायक क्षण आता है जब वह छात्रों के एक जत्थे को सड़क से गुज़रता हुआ देखते हैं। आंदोलनकारी छात्र, सरकार से बेहतर सुविधाओं की माँग कर रहे हैं। छात्रों के इस जत्थे में सलीम का बेटा सिकंदर भी शामिल है। आपकी राय में मिर्जा सलीम का फिल्म के अंत में क्या रुख रहा होगा? ऐसी परिस्थितियों में आप क्या करते?

वर्ष : 1973 निर्देशक : एम.एस. सथ्यु पटकथा : कैफ़ी आज़मी

अभिनय : बलराज साहनी, जलाल आगा, फ़ारूख शेख, गीता सिद्धार्थ 


महात्मा गाँधी की शहादत

महात्मा गाँधी ने 15 अगस्त, 1947 के दिन आज़ादी के किसी भी जश्न में भाग नहीं लिया। वे कोलकाता के उन इलाकों में डेरा डाले हुए थे जहाँ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भयंकर दंगे हुए थे। सांप्रदायिक हिंसा से उनके मन पर गहरी चोट लगी थी। यह देखकर उनका दिल टूट चुका था कि 'अहिंसा' और 'सत्याग्रह' के जिन सिद्धांतों के लिए वे आजीवन समर्पित भाव से काम करते रहे वे ही सिद्धांत इस कठिन घड़ी में लोगों को एकसूत्र में पिरो सकने में नाकामयाब हो गए थे। गाँधीजी ने हिंदुओं और मुसलमानों से जोर देकर कहा कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ दें। कोलकाता में गाँधी की मौजूदगी से हालात बड़ी हद तक सुधर चले थे और आजादी का जश्न लोगों ने सांप्रदायिक सद्भाव के जज़्बे से मनाया। लोग सड़कों पर पूरे हर्षोल्लास के साथ नाच रहे थे। गाँधी की प्रार्थना सभा में बड़ी संख्या में लोग जुटते थे। बहरहाल, यह स्थिति ज़्यादा दिनों तक कायम नहीं रही। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगे एक बार फिर से भड़क उठे और गाँधीजी अमन कायम करने के लिए 'उपवास' पर बैठ गए।

अगले महीने गाँधीजी दिल्ली पहुँचे। दिल्ली में भी बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी। गाँधीजी दिल से चाहते थे कि मुसलमानों को भारत में गरिमापूर्ण जीवन मिले और उन्हें बराबर का नागरिक माना जाए। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए वे बड़े चिंतित थे। भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों को लेकर भी उनके मन में गहरी चिंताएँ थीं। उन्हें लग रहा था कि भारत की सरकार पाकिस्तान के प्रति अपनी वित्तीय वचनबद्धताओं को पूरा नहीं कर रही है। इस बात से वे नाखुश थे। इन सारी बातों को सोचकर उन्होंने 1948 की जनवरी में एक बार फिर 'उपवास' रखना शुरू किया। यह उनका अंतिम 'उपवास' साबित हुआ। कोलकाता की ही तरह दिल्ली में भी उनके 'उपवास' का जादुई असर हुआ। सांप्रदायिक तनाव और हिंसा में कमी हुई। दिल्ली और उसके आस-पास के इलाके के मुसलमान सुरक्षित अपने घरों में लौटे। भारत की सरकार पाकिस्तान को उसका देय चुकाने पर राजी हो गई।

बहरहाल, गाँधीजी के कामों से हर कोई खुश हो, ऐसी बात नहीं थी। हिंदू और मुसलमान दोनों ही समुदायों के अतिवादी अपनी स्थिति के लिए गाँधीजी पर दोष मढ़ रहे थे। जो लोग चाहते थे कि हिंदू बदला लें अथवा भारत भी उसी तरह सिर्फ हिंदुओं का राष्ट्र बने जैसे पाकिस्तान मुसलमानों का राष्ट्र बना था-वे गाँधीजी को खासतौर पर नापसंद करते थे। इन लोगों ने आरोप लगाया कि गाँधीजी मुसलमानों और पाकिस्तान के हित में काम कर रहे हैं। गाँधीजी मानते थे कि ये लोग गुमराह हैं। उन्हें इस बात का पक्का विश्वास था कि भारत को सिर्फ हिंदुओं का देश बनाने की कोशिश की गई तो भारत बर्बाद हो जाएगा। हिंदु-मुस्लिम एकता के उनके अडिग प्रयासों से अतिवादी हिंदू इतने नाराज थे कि उन्होंने कई दफे गाँधीजी को जान से मारने की कोशिश की। इसके बावजूद गाँधीजी ने सशस्त्र सुरक्षा हासिल करने से मना कर दिया और अपनी प्रार्थना सभा में हर किसी से मिलना जारी रखा। आखिरकार, 30 जनवरी 1948 के दिन ऐसा ही एक हिंदू अतिवादी नाथूराम विनायक गोडसे, गाँधीजी की संध्याकालीन प्रार्थना के समय उनकी तरफ़ चलता हुआ नज़दीक पहुँच गया। उसने गाँधीजी पर तीन गोलियाँ चलाईं और गाँधीजी को तत्क्षण मार दिया। इस तरह न्याय और सहिष्णुता को आजीवन समर्पित एक आत्मा का देहावसान हुआ।

गाँधीजी की मौत का देश के सांप्रदायिक माहौल पर मानो जादुई असर हुआ। विभाजन से जुड़ा क्रोध और हिंसा अचानक ही मंद पड़ गए। भारत सरकार ने सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वाले संगठनों की मुश्के कस दीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को कुछ दिनों तक प्रतिबंधित कर दिया गया। सांप्रदायिक राजनीति का ज़ोर लोगों में घटने लगा।  


के ऊपर वरीयता दी जाए अथवा किसी एक धर्म के विश्वासियों के मुकाबले बाकियों को हीन समझा जाता हो। वे मानते थे कि नागरिक चाहे जिस धर्म को माने, उसका दर्जा बाकी नागरिकों के बराबर ही होना चाहिए। नागरिकता की कसौटी धर्म को नहीं बनाया जाना चाहिए। हमारे नेतागण धर्मनिरपेक्ष राज्य के आदर्श के हिमायती थे। उनके इस आदर्श की अभिव्यक्ति भारतीय संविधान में हुई।

श्वेता ने गौर किया था कि जब भी कोई पाकिस्तान का जिक्र छेड़ता था तो उसके नाना एकदम चुप हो जाते थे। एक दिन उसने नाना से इसके बारे में पूछने का फ़ैसला किया। उसके नाना ने बताया कि बँटवारे के वक्त उन्हें लाहौर से लुधियाना आना पड़ा था। उनके माता-पिता मार दिए गए थे। श्वेता के नाना भी नहीं बच पाते लेकिन खैर यह हुई कि पड़ोस के मुस्लिम परिवार ने उन्हें पनाह दी और कई दिनों तक छुपाकर रखा। इन्हीं पड़ोसियों की मदद से श्वेता के नाना को अपने सगे-संबंधियों का पता-ठिकाना मालूम पड़ा और वे किसी तरह बच-बचा के सीमा पार कर भारत पहुँचे। यहाँ आकर उन्होंने नयी ज़िंदगी शुरू की। क्या आपने भी ऐसा ही कोई वाकया सुना है। अपने दादा-दादी अथवा इस पीढ़ी के किसी और से पूछिए कि आजादी के दिन क्या हुआ था, कैसे जश्न मनाया गया था, बँटवारे का सदमा कितना गहरा था और देश की आजादी से इन लोगों की क्या अपेक्षाएँ थीं?

कम से कम ऐसे दो वाकयों को लिखिए।

रजवाड़ों का विलय

ब्रिटिश इंडिया दो हिस्सों में था। एक हिस्से में ब्रिटिश प्रभुत्व वाले भारतीय प्रांत थे तो दूसरे हिस्से में देसी रजवाड़े। ब्रिटिश प्रभुत्व वाले भारतीय प्रांतों पर अंग्रेजी सरकार का सीधा नियंत्रण था। दूसरी तरफ छोटे-बड़े आकार के कुछ और राज्य थे। इन्हें रजवाड़ा कहा जाता था। रजवाड़ों पर राजाओं का शासन था। राजाओं ने ब्रिटिश राज की अधीनता या कहें कि सर्वोच्च सत्ता स्वीकार कर रखी थी और इसके अंतर्गत वे अपने राज्य के घरेलू मामलों का शासन चलाते थे। अंग्रेजी प्रभुत्व के अंतर्गत आने वाले भारतीय साम्राज्य के एक-तिहाई हिस्से में रजवाड़े कायम थे। प्रत्येक चार भारतीयों में से एक किसी न किसी रजवाडे की प्रजा था।

समस्या

आज़ादी के तुरंत पहले अंग्रेजी-शासन ने घोषणा की कि भारत पर ब्रिटिश-प्रभुत्व के साथ ही रजवाड़े भी ब्रिटिश-अधीनता से आजाद हो जाएंगे। इसका मतलब यह था कि सभी रजवाड़े (रजवाड़ों की संख्या 565 थी) ब्रिटिश-राज की समाप्ति के साथ ही कानूनी तौर पर आज़ाद हो जाएँगे। अंग्रेजी-राज का नज़रिया यह था कि रजवाड़े अपनी मर्जी से चाहें तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हो जाएँ या फिर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाएँ रखें। भारत अथवा पाकिस्तान में शामिल होने या स्वतंत्र हैसियत बनाए रखने का फ़ैसला रजवाड़ों की प्रजा को नहीं करना था। यह फैसला लेने का अधिकार राजाओं को दिया गया था। यह अपने आप में बड़ी गंभीर समस्या थी और इससे अखंड भारत के अस्तित्व पर ही खतरा मँडरा रहा था।


भारत 

विभाजन के पहले और बाद

ब्रिटिश भारत

रियासतें/रजवाड़े

स्वतंत्र भारत की बाहरी सीमाएँ

 

नोट: यह नक्शा किसी पैमाने के हिसाब से बनाया गया भारत का मानचित्र नहीं है। इसमें दिखाई गई भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को प्रामाणिक सीमा रेखा न माना जाए।

क्या जर्मनी की तरह हम लोग भारत और पाकिस्तान के बँटवारे को खत्म नहीं कर सकते? मैं तो अमृतसर में नाश्ता और लाहौर में लंच करना चाहता हूँ!

क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम एक-दूसरे को स्वतंत्र राष्ट्र मानकर रहना और सम्मान करना सीख जाएँ?

" हम भारत के इतिहास के एक यादगार मुकाम पर खड़े हैं। साथ मिलकर चलें तो देश को हम महानता की नयी बुलंदियों तक पहुँचा सकते हैं, जबकि एकता के अभाव में हम अप्रत्याशित विपदाओं के घेरे में होंगे। मैं उम्मीद करता हूँ कि भारत की रियासतें इस बात को पूरी तरह से समझेंगी कि अगर हमने सहयोग नहीं किया और सर्व-सामान्य की भलाई में साथ मिलकर कदम नही बढ़ाया तो अराजकता और अव्यवस्था हम में से सबको चाहे कोई छोटा हो या बडा घेर लेगी और हमें बर्बादी की। तरफ़ ले जाएगी..."

सरदार पटेल

रियासतों के शासकों को एक पत्र में (1947)

समस्या ने जल्दी ही अपने तेवर दिखाने शुरू किए। सबसे पहले त्रावणकोर के राजा ने अपने राज्य को आज़ाद रखने की घोषणा की। अगले दिन हैदराबाद के निज़ाम ने ऐसी ही घोषणा की। कुछ शासक मसलन भोपाल के नवाब संविधान-सभा में शामिल नहीं होना चाहते थे। रजवाड़ों के शासकों के रवैये से यह बात साफ़ हो गई कि आजादी के बाद हिंदुस्तान कई छोटे-छोटे देशों की शक्ल में बँट जाने वाला है। लोकतंत्र का भविष्य अंधकारमय जान पड़ रहा था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का लक्ष्य एकता और आत्मनिर्णय के साथ-साथ लोकतंत्र का रास्ता अख्तियार करना था। इसे देखते हुए यह स्थिति अपने आप में बडी विचित्र थी। अधिकतर रजवाड़ों में शासन अलोकतांत्रिक रीति से चलाया जाता था और रजवाडों के शासक अपनी प्रजा को लोकतांत्रिक अधिकार देने के लिए तैयार नहीं थे।

सरकार का नज़रिया

छोटे-बड़े विभिन्न आकार के देशों में बँट जाने की इस संभावना के विरुद्ध अंतरिम सरकार ने कड़ा रुख अपनाया। मुस्लिम लीग ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस कदम का विरोध किया। लीग का मानना था कि रजवाड़ों को अपनी मनमर्जी का रास्ता चुनने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। रजवाड़ों के शासकों को मनाने-समझाने में सरदार पटेल ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई और अधिकतर रजवाड़ों को उन्होंने भारतीय संघ में शामिल होने के लिए राजी कर लिया। आज यह आसान जान पड़ सकता है लेकिन अपने आप में यह बड़ा जटिल काम था। इसके लिए बड़ी चतुराई और युक्तिपूर्ण पहलकदमी की ज़रूरत थी। मिसाल के तौर पर आज के उड़ीसा में ही तब 26 और छत्तीसगढ़ में 15 छोटे-छोटे रजवाड़े थे। सौराष्ट्र में 14 बड़े और 119 छोटे रजवाड़े और अन्य अनेक प्रशासनिक तंत्र थे।

देसी रजवाड़ों की इस चर्चा से तीन बातें सामने आती हैं। पहली बात तो यह कि अधिकतर रजवाड़ों के लोग भारतीय संघ में शामिल होना चाहते थे। दूसरी बात यह कि भारत सरकार का रुख लचीला था और वह कुछ इलाकों को स्वायत्तता देने के लिए तैयार थी जैसा कि जम्मू-कश्मीर में हुआ। भारत सरकार ने विभिन्नताओं को सम्मान देने और विभिन्न क्षेत्रों की माँगों को संतुष्ट करने के लिए यह रुख अपनाया था। तीसरी बात, विभाजन की पृष्ठभूमि में विभिन्न इलाकों के सीमांकन के सवाल पर खींचतान ज़ोर पकड़ रही थी और ऐसे में देश की क्षेत्रीय अखंडता-एकता का सवाल सबसे ज़्यादा अहम हो उठा था।

शांतिपूर्ण बातचीत के ज़रिए लगभग सभी रजवाड़े जिनकी सीमाएँ आज़ाद हिंदुस्तान की नयी सीमाओं से मिलती थीं, 15 अगस्त 1947 से पहले ही भारतीय संघ में शामिल हो गए। अधिकतर रजवाड़ों के शासकों ने भारतीय संघ में अपने विल एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए। इस सहमति-पत्र को 'इंस्ट्रमेंट ऑफ़ एक्सेशन' कहा जाता है। इस पर हस्ताक्षर का अर्थ था कि रजवाड़े भारतीय संघ का अंग बनने के लिए सहमत हैं। जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और मणिपुर की रियासतों का विलय बाकियों की तुलना में थोड़ा कठिन साबित हुआ। इस अध्याय में हम हैदराबाद और मणिपुर की रियासतों के विलय के मामले पर गौर करेंगे। कश्मीर के विलय के बारे में आप अध्याय 8 में पढेंगे।

साभारः पत्र सूचना कार्यालय


हैदराबाद के निज़ाम के साथ सरदार पटेल

हैदराबाद

हैदराबाद की रियासत बहुत बड़ी थी। यह रियासत चारों तरफ़ से हिंदुस्तानी इलाके से घिरी थी। पुराने हैदराबाद के कुछ हिस्से आज के महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में और बाकी हिस्से आंध्रप्रदेश में हैं। हैदराबाद के शासक को 'निज़ाम' कहा जाता था और वह दुनिया के सबसे दौलतमंद लोगों में शुमार किया जाता था। निज़ाम चाहता था कि हैदराबाद की रियासत को आजाद रियासत का दर्जा दिया जाए। निज़ाम ने सन् 1947 के नवंबर में भारत के साथ यथास्थिति बहाल रखने का एक समझौता किया। यह समझौता एक साल के लिए था। इस बीच भारत सरकार से हैदराबाद के निज़ाम की बातचीत जारी रही।

इसी दौरान हैदराबाद की रियासत के लोगों के बीच निज़ाम के शासन के खिलाफ़ एक आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा। तेलंगाना इलाके के किसान निज़ाम के दमनकारी शासन से खासतौर पर दुखी थे। वे निज़ाम के खिलाफ़ उठ खड़े हुए। महिलाएँ निज़ाम के शासन में सबसे ज़्यादा जुल्म का शिकार हुई थीं। महिलाएँ भी बड़ी संख्या में इस आंदोलन से आ जुड़ीं। हैदराबाद शहर इस आंदोलन का गढ़ बन गया। कम्युनिस्ट और हैदराबाद कांग्रेस इस आंदोलन की अग्रिम पंक्ति में थे। आंदोलन को देख निज़ाम ने लोगों के खिलाफ़ एक अर्द्ध-सैनिक बल रवाना किया। इसे रजाकार कहा जाता था। रजाकार अव्वल दर्जे के सांप्रदायिक और अत्याचारी थे। रजाकारों ने गैर-मुसलमानों को खासतौर पर अपना निशाना

सरदार वल्लभभाई पटेल (1875-1950) : आज़ादी के आंदोलन के नेता; कांग्रेस के नेता; महात्मा गाँधी के अनुयायी; स्वतंत्र भारत के उप-प्रधानमंत्री और प्रथम गृहमंत्री; देसी रियासतों को भारत संघ में मिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका; मौलिक अधिकार, अल्पसंख्यक, प्रांतीय संविधान आदि से संबंधित संविधान सभा की महत्त्वपर्ण समितियों के सदस्य।

मैं सोचता हूँ कि आखिर उन सैकड़ों राजा-रानी, राजकुमार और राजकुमारियों का क्या हुआ होगा। आखिर आम नागरिक बनने के बाद उनका जीवन कैसा रहा होगा?

बनाया। रज़ाकारों ने लूटपाट मचायी और हत्या तथा बलात्कार पर उतारू हो गए। 1948 के सितंबर में भारतीय सेना, निज़ाम के सैनिकों पर काबू पाने के लिए हैदराबाद आ पहुँची। कुछ रोज तक रुक-रुक कर लड़ाई चली और इसके बाद निज़ाम ने आत्मसमर्पण कर दिया। निज़ाम के आत्मसमर्पण के साथ ही हैदराबाद का भारत में विलय हो गया।

मणिपुर

आज़ादी के चंद रोज पहले मणिपुर के महाराजा बोधचंद्र सिंह ने भारत सरकार के साथ भारतीय संघ में अपनी रियासत के विलय के एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसकी एवज में उन्हें यह आश्वासन दिया गया था कि मणिपुर की आंतरिक स्वायत्तता बरकरार रहेगी। जनमत के दबाव में महाराजा ने 1948 के जून में चुनाव करवाया और इस चुनाव के फलस्वरूप मणिपुर की रियासत में संवैधानिक राजतंत्र कायम हुआ। मणिपुर भारत का पहला भाग है जहाँ सार्वभौम वयस्क मताधिकार के सिद्धांत को अपनाकर चुनाव हुए।

मणिपुर की विधानसभा में भारत में विलय के सवाल पर गहरे मतभेद थे। मणिपुर की कांग्रेस चाहती थी कि इस रियासत को भारत में मिला दिया जाए जबकि दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ इसके खिलाफ़ थीं। मणिपुर की निर्वाचित विधानसभा से परामर्श किए बगैर भारत सरकार ने महाराजा पर दबाव डाला कि वे भारतीय संघ में शामिल होने के सम झौते पर हस्ताक्षर कर दें। भारत सरकार को इसमें सफलता मिली। मणिपुर में इस कदम को लेकर लोगों में क्रोध और नाराजगी के भाव पैदा हुए। इसका असर आज तक देखा जा सकता है।

साभारः आर.के. लक्ष्मण, टाइम्स ऑफ़ इंडिया

ना, ना! उठिए मत महाराज! मुझे बस ये दे दीजिए। इसी से काम हो जाएगा।

यह कार्टून रजवाड़ों की जनता और वहाँ के शासकों के आपसी संबंधों पर टिप्पणी करता है। पटेल रजवाड़ों की समस्या को जिस ढंग से हल करना चाहते थे उसकी भी एक झलक इस कार्टून में देखी जा सकती है।

राज्यों का पुनर्गठन

बँटवारे और देसी रियासतों के विलय के साथ ही राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का अंत नहीं हुआ। भारतीय प्रांतों की आंतरिक सीमाओं को तय करने की चुनौती अभी सामने थी। यह महज प्रशासनिक विभाजन का मामला न था। प्रांतों की सीमाओं को इस तरह तय करने की चुनौती थी कि देश की भाषाई और सांस्कृतिक बहुलता की झलक मिले, साथ ही राष्ट्रीय एकता भी खंडित न हो।

औपनिवेशिक शासन के समय प्रांतों की सीमाएँ प्रशासनिक सुविधा के लिहाज से तय की गई थीं या ब्रिटिश सरकार ने जितने क्षेत्र को जीत लिया हो उतना क्षेत्र एक अलग प्रांत मान लिया जाता था। प्रांतों की सीमा इस बात से भी तय होती थी कि किसी रजवाडे के अंतर्गत कितना इलाका शामिल है।

हमारी राष्ट्रीय सरकार ने ऐसे सीमांकन को बनावटी मानकर खारिज कर दिया। उसने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का वायदा किया। सन् 1920 में कांग्रेस का नागपुर अधिवेशन हुआ था। दरअसल, इसके बाद से ही इस सिद्धांत को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मान लिया था कि राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर होगा। अनेक प्रांतीय कांग्रेस-समितियों को भाषाई इलाके के आधार पर बनाया गया था और ये समितियाँ ब्रिटिश इंडिया के प्रशासनिक विभाजन को अपने कामकाज में नहीं बरतती थीं।

आज़ादी और बँटवारे के बाद स्थितियाँ बदलीं। हमारे नेताओं को चिंता हुई कि अगर भाषा के आधार पर प्रांत बनाए गए तो इससे अव्यवस्था फैल सकती है तथा देश के टूटने का खतरा पैदा हो सकता है। हमारे नेताओं को यह भी लग रहा था कि भाषावार राज्यों के गठन से दूसरी सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से ध्यान भटक सकता है जबकि देश इन चुनौतियों की चपेट में है। केंद्रीय नेतृत्व ने इस मसले को स्थगित करने का फैसला किया। रजवाड़ों का मसला अभी हल नहीं हुआ था। बँटवारे की यादें अभी ताज़ा थीं

केंद्रीय नेतृत्व के इस फैसले को स्थानीय नेताओं और लोगों ने चुनौती दी। पुराने मद्रास प्रांत के तेलुगु-भाषी क्षेत्रों में विरोध भड़क उठा। पुराने मद्रास प्रांत में आज के तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश शामिल थे। इसके कुछ हिस्से मौजूदा केरल एवं कर्नाटक में भी हैं। विशाल आंध्र आंदोलन (आंध्र प्रदेश नाम से अलग राज्य बनाने के लिए चलाया गया आंदोलन) ने माँग की कि मद्रास प्रांत के तेलुगुभाषी इलाकों को अलग करके एक नया राज्य आंध्र प्रदेश बनाया जाए। तेलुगु-भाषी क्षेत्र की लगभग सारी राजनीतिक शक्तियाँ मद्रास प्रांत के भाषाई पुनर्गठन के पक्ष में थीं।

केंद्र सरकार ‘हाँ-ना' की दुविधा में थी और उसकी इस मनोदशा से इस आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा। कांग्रेस के नेता और दिग्गज गाँधीवादी, पोट्टी श्रीरामुलु, अनिश्चितकालीन भूख-हड़ताल पर बैठ गए। 56 दिनों की भूख-हड़ताल के बाद उनकी मृत्यु हो गई। इससे बड़ी अव्यवस्था फैली और आंध्र प्रदेश में जगह-जगह हिंसक घटनाएँ हुईं। लोग बड़ी संख्या में सड़कों पर निकल आए। पुलिस फायरिंग में अनेक लोग घायल हुए या मारे गए। मद्रास में अनेक विधायकों ने विरोध जताते हुए अपनी सीट से इस्तीफा दे दिया। आखिरकार 1952 के दिसंबर में प्रधानमंत्री ने आंध्र प्रदेश नाम से अलग राज्य बनाने की घोषणा की।

"...यदि प्रांतों का गठन भाषावार हुआ तो क्षेत्रीय भाषाओं का ज़ोर बढ़ेगा। हिंदुस्तानी को सभी प्रांतों में शिक्षा का माध्यम बनाने का कोई अर्थ न रह जाएगा और अंग्रेज़ी को इस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करना तो और भी व्यर्थ है।"

महात्मा गाँधी 

जनवरी 1948

राज्यों के पुनर्गठन के बाद 

भारत का प्रशासनिक मानचित्र-1961

नोट: यह नक्शा किसी पैमाने के हिसाब से बनाया गया भारत का मानचित्र नहीं है। इसमें दिखाई गई भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को प्रामाणिक सीमा रेखा न माना जाए।

मानचित्र को ध्यान से देखें और निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दें:

1. स्वतंत्र राज्य बनने से पहले निम्नलिखित राज्य किन मूल राज्यों के अंग थे?

(क) गुजरात (ख) हरियाणा

(ग) मेघालय (घ) छत्तीसगढ़

2. देश के विभाजन से प्रभावित दो राज्यों के नाम बताएँ?

3. दो ऐसे राज्यों के नाम बताएँ जो पहले संघ-शासित राज्य थे?


'स्ट्रगल फॉर सरवाइवल' (26 जुलाई 1953) शीर्षक यह कार्टून उस दौर के माहौल को दर्शाता है जब राज्यों को भाषाई आधार पर गठित करने की माँग ज़ोर पकड़ रही थी।

आंध्र के गठन के साथ ही देश के दूसरे हिस्सों में भी भाषाई आधार पर राज्यों को गठित करने का संघर्ष चल पड़ा। इन संघर्षों से बाध्य होकर केंद्र सरकार ने 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया। इस आयोग का काम राज्यों के सीमांकन के मामले पर गौर करना था। इसने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया कि राज्यों की सीमाओं का निर्धारण वहाँ बोली जाने वाली भाषा के आधार पर होना चाहिए। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पास हुआ। इस अधिनियम के आधार पर 14 राज्य और 6 केंद्र-शासित प्रदेश बनाए गए।

 

पोट्टी श्रीरामुलु (1901-1952 ): गाँधीवादी कार्यकर्ता; नमक सत्याग्रह में भाग लेने के लिए सरकारी नौकरी छोड़ी; वैयक्तिक सत्याग्रह में भी भागीदारी; 1946 में इस माँग को लेकर उपवास पर बैठे कि मद्रास प्रांत के मंदिर दलितों के लिए खोल दिए जाएँ; आंध्र नाम से अलग राज्य बनाने की माँग को लेकर 19 अक्तूबर 1952 से आमरण अनशन; 15 दिसम्बर 1952 को अनशन के दौरान मृत्यु।

है न दिलचस्प बात? नेहरू और बाकी नेता बड़े लोकप्रिय थे तो भी भाषाई राज्य की माँग को लेकर लोग उनकी इच्छा के विरुद्ध आंदोलन करने से नहीं हिचकिचाए।


'कोक्सिंग द जेनी' (5 फरवरी, 1956) शीर्षक इस कार्टून में राज्य पुनर्गठन आयोग की भाषाई विवाद को सुलझाने की क्षमता पर सवाल उठाया गया है।

आज़ादी के बाद के शुरुआती सालों में एक बड़ी चिंता यह थी कि अलग राज्य बनाने की माँग से देश की एकता पर आँच आएगी। आशंका थी कि नए भाषाई राज्यों में अलगाववाद की भावना पनपेगी और नव-निर्मित भारतीय राष्ट्र पर दबाव बढ़ेगा। जनता के दबाव में आखिरकर नेतृत्व ने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का मन बनाया। उम्मीद थी कि अगर हर इलाके के क्षेत्रीय और भाषाई दावे को मान लिया गया तो बँटवारे और अलगाववाद के खतरे में कमी आएगी। इसके अलावा क्षेत्रीय मांगों को मानना और भाषा के आधार पर नए राज्यों का गठन करना एक लोकतांत्रिक कदम के रूप में भी देखा गया।

भाषावार राज्यों के पुनर्गठन की घटना को आज 50 साल से भी अधिक समय हो गया। हम कह सकते हैं कि भाषाई राज्य तथा इन राज्यों के गठन के लिए चले आंदोलनों ने लोकतांत्रिक राजनीति तथा नेतृत्व की प्रकृति को बुनियादी रूपों में बदला है। राजनीति और सत्ता में भागीदारी का रास्ता अब एक छोटे-से अंग्रेजीभाषी अभिजात तबके के लिए ही नहीं, बाकियों के लिए भी खुल चुका था। भाषावार पुनर्गठन से राज्यों के सीमांकन के लिए एक समरूप आधार भी मिला। बहुतों की आशंका के विपरीत इससे देश नहीं टूटा। इसके विपरीत देश की एकता और ज़्यादा मज़बूत हुई। सबसे बड़ी बात यह कि भाषावार राज्यों के पुनर्गठन से विभिन्नता के सिद्धांत को स्वीकृति मिली। जब हम कहते हैं कि भारत ने लोकतंत्र अपनाया है तो इसका सीधा-सा मतलब इतना भर नहीं होता कि भारत में लोकतांत्रिक संविधान पर अमल होता है अथवा भारत में चुनाव करवाए जाते हैं। भारत के लोकतांत्रिक होने का एक वृहत्तर अर्थ है। लोकतंत्र को चुनने का अर्थ था विभिन्नताओं को पहचानना और उन्हें स्वीकार करना। साथ ही, यह मानकर चलना कि विभिन्नताओं में आपसी विरोध भी हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में लोकतंत्र की धारणा विचारों और जीवन-पद्धतियों की बहुलता की धारणा से जुड़ी हुई थी। आगे के दिनों में अधिकतर राजनीति इसी दायरे में चली।

कुछ आगे की...

नए राज्यों का निर्माण

भाषावार राज्यों को पुनर्गठित करने के सिद्धांत को मान लेने का अर्थ यह नहीं था कि सभी राज्य तत्काल भाषाई राज्य में तब्दील हो गए। एक प्रयोग द्विभाषी राज्य बंबई के रूप में किया गया जिसमें गुजराती और मराठी भाषा बोलने वाले लोग थे। एक जन-आंदोलन के बाद सन् 1960 में महाराष्ट्र और गुजरात राज्य बनाए गए। पंजाब में भी हिन्दी-भाषी और पंजाबी-भाषी दो समुदाय थे। पंजाबी-भाषी लोग अलग राज्य की माँग कर रहे थे। बहरहाल, बाकी राज्यों की तरह उनकी माँग 1956 में नहीं ही मानी गई। दस साल बाद यानी 1966 में पंजाबी-भाषी इलाके को पंजाब राज्य का दर्जा दिया गया और वृहत्तर पंजाब से अलग करके हरियाणा और हिमाचल प्रदेश नाम के राज्य बनाए गए। 1972 में एक बार फिर राज्यों के पुनर्गठन का एक बड़ा प्रयास पूर्वोत्तर में हुआ। असम से अलग करके 1972 में मेघालय बनाया गया। इसी साल मणिपुर और त्रिपुरा भी अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आए। मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश 1987 में वजूद में आए जबकि नगालैंड इससे कहीं पहले यानी 1963 में ही राज्य बन गया था। बहरहाल, राज्यों के पुनर्गठन में सिर्फ़ भाषा को आधार बनाया गया हो, ऐसी बात नहीं। बाद के वर्षों में अनेक उप-क्षेत्रों ने अलग क्षेत्रीय संस्कृति अथवा विकास के मामले में क्षेत्रीय असंतुलन के सवाल उठाकर अलग राज्य बनाने की माँग की। ऐसे तीन राज्य-छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड-सन् 2000 में बने। राज्यों के पुनर्गठन की कथा अभी समाप्त नहीं हुई है। देश के अनेक इलाकों में छोटे-छोटे अलग राज्य बनाने की माँग को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। महाराष्ट्र में विदर्भ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश और पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में राज्य बनाने के ऐसे आंदोलन चल रहे हैं।  

संयुक्त राज्य अमरीका की जनसंख्या अपने देश के मुकाबले एक-चौथाई है लेकिन वहाँ 50 राज्य हैं। भारत में 100 से भी ज्यादा राज्य क्यों नहीं हो सकते?


प्रश्नावली

1. भारत-विभाजन के बारे में निम्नलिखित कौन-सा कथन गलत है?

  1. भारत-विभाजन “द्वि-राष्ट्र सिद्धांत" का परिणाम था।
  2. धर्म के आधार पर दो प्रांतों-पंजाब और बंगाल का बँटवारा हुआ।
  3. पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में संगति नहीं थी।
  4. विभाजन की योजना में यह बात भी शामिल थी कि दोनों देशों के बीच आबादी की अदला-बदली होगी।

2. निम्नलिखित सिद्धांतों के साथ उचित उदाहरणों का मेल करें :

  1. धर्म के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण 
  2. विभिन्न भाषाओं के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण 
  3. भौगोलिक आधार पर किसी देश के क्षेत्रों का सीमांकन 
  4. किसी देश के भीतर प्रशासनिक और राजनीतिक आधार पर क्षेत्रों का सीमांकन 
i. पाकिस्तान और बांग्लादेश
ii. भारत और पाकिस्तान
iii. झारखंड और छत्तीसगढ़
iv. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड

3. भारत का कोई समकालीन राजनीतिक नक्शा लीजिए (जिसमें राज्यों की सीमाएँ दिखाई गई हों) और नीचे लिखी रियासतों के स्थान चिह्नित कीजिए

(क) जूनागढ़ 

(ख) मणिपुर 

(ग) मैसूर

(घ) ग्वालियर

4. नीचे दो तरह की राय लिखी गई है :

विस्मय : रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से इन रियासतों की प्रजा तक लोकतंत्र का विस्तार हुआ।

इंद्रप्रीत : यह बात मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। इसमें बलप्रयोग भी हुआ था जबकि लोकतंत्र में आम सहमति से काम लिया जाता है।

देशी रियासतों के विलय और ऊपर के मशविरे के आलोक में इस घटनाक्रम पर आपकी क्या राय है?

5. नीचे 1947 के अगस्त के कुछ बयान दिए गए हैं जो अपनी प्रकृति में अत्यंत भिन्न हैं : आज आपने अपने सर पर काँटों का ताज पहना है। सत्ता का आसन एक बुरी चीज़ है। इस आसन पर आपको बड़ा सचेत रहना होगा... आपको और ज़्यादा विनम्र और धैर्यवान बनना होगा... अब लगातार आपकी परीक्षा ली जाएगी।

-मोहनदास करमचंद गाँधी

..भारत आजादी की जिंदगी के लिए जागेगा... हम पुराने से नए की ओर कदम बढ़ाएँगे... आज दुर्भाग्य के एक दौर का खात्मा होगा और हिंदुस्तान अपने को फिर से पा लेगा... आज हम जो जश्न मना रहे हैं वह एक कदम भर है, संभावनाओं के द्वार खुल रहे हैं...

-जवाहरलाल नेहरू

इन दो बयानों से राष्ट्र-निर्माण का जो एजेंडा ध्वनित होता है उसे लिखिए। आपको कौन-सा एजेंडा ऊंच रहा है और क्यों?

6. भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए नेहरू ने किन तर्कों का इस्तेमाल किया। क्या आपको लगता है कि ये केवल भावनात्मक और नैतिक तर्क हैं अथवा इनमें कोई तर्क युक्तिपरक भी है?

7. आज़ादी के समय देश के पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में राष्ट्र-निर्माण की चुनौती के लिहाज़ से दो मुख्य अंतर क्या थे?

8. राज्य पुनर्गठन आयोग का काम क्या था? इसकी प्रमुख सिफारिश क्या थी?

9. कहा जाता है कि राष्ट्र एक व्यापक अर्थ में 'कल्पित समुदाय' होता है और सर्वसामान्य विश्वास, इतिहास, राजनीतिक आकांक्षा और कल्पनाओं से एकसूत्र में बँधा होता है। उन विशेषताओं की पहचान करें जिनके आधार पर भारत एक राष्ट्र है।

10. नीचे लिखे अवतरण को पढ़िए और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए राष्ट्र-निर्माण के इतिहास के लिहाज से सिर्फ़ सोवियत संघ में हुए प्रयोगों की तुलना भारत से की जा सकती है। सोवियत संघ में भी विभिन्न और परस्पर अलग-अलग जातीय समूह, धर्म, भाषाई समुदाय और सामाजिक वर्गों के बीच एकता का भाव कायम करना पड़ा। जिस पैमाने पर यह काम हुआ, चाहे भौगोलिक पैमाने के लिहाज़ से देखें या जनसंख्यागत वैविध्य के लिहाज़ से, वह अपनेआप में बहुत व्यापक कहा जाएगा। दोनों ही जगह राज्य को जिस कच्ची सामग्री से राष्ट्र-निर्माण की शुरुआत करनी थी वह समान रूप से दुष्कर थी। लोग धर्म के आधार पर बँटे हुए और कर्ज तथा बीमारी से दबे हुए थे।

-रामचंद्र गुहा

(क) यहाँ लेखक ने भारत और सोवियत संघ के बीच जिन समानताओं का उल्लेख किया है, उनकी एक सूची बनाइए। इनमें से प्रत्येक के लिए भारत से एक उदाहरण दीजिए।

(ख) लेखक ने यहाँ भारत और सोवियत संघ में चली राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रियाओं के बीच की असमानता का उल्लेख नहीं किया है। क्या आप दो असमानताएँ बता सकते हैं?

(ग) अगर पीछे मुड़कर देखें तो आप क्या पाते हैं? राष्ट्र-निर्माण के इन दो प्रयोगों में किसने बेहतर काम किया और क्यों?

खुद करें-खुद समझें

किसी भारतीय अथवा पाकिस्तानी/बांग्लादेशी कथाकार की लिखी कोई कहानी या उपन्यास पढ़ें जिसमें बँटवारे का जिक्र आया हो। सीमा के इस तरफ़ के लोगों और सीमा के उस तरफ़ के लोगों के अनुभव कैसे एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं?

'खोजबीन' शीर्षक के अंतर्गत इस अध्याय में सुझाई गई तमाम कथाओं को एकत्र करें। एक वॉलपेपर तैयार करें और इसमें मिलते-जुलते अनुभवों वाले स्थल को रेखांकित करें। साथ ही, किसी अनूठे अनुभव को भी इसमें स्थान दें।