इस अध्याय में

हम देख चुके हैं कि 1971 के बाद कांग्रेस को नवजीवन मिला लेकिन इस पार्टी में अब पहले वाली बात नहीं रही। कांग्रेस पार्टी अब बदल चुकी थी। 1973 से 1975 के बीच घटी घटनाओं से यह अंतर और भी ज़्यादा स्पष्ट हो गया। इन घटनाओं से भारत की लोकतांत्रिक राजनीति और संविधान निर्देशित सांस्थानिक संतुलन को नयी चुनौतियों ने घेरा। 1973 से 1975 के बीच आए बदलावों की परिणति देश में 'आपातकाल' लागू करने के रूप में हुई। 1975 के जून माह में देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई। आमतौर पर आपातकाल से हमारे मन में युद्ध और आक्रमण अथवा प्राकृतिक आपदा की तसवीर कौंधती है लेकिन अपने देश में आपातकाल की यह घोषणा अंदरूनी गड़बड़ियों की आशंका के मद्देनजर की गई थी। आपातकाल की घोषणा जिस नाटकीय रूप में हुई थी उसी अंदाज़ में इसका खात्मा भी हुआ। आपातकाल की घोषणा के कारण 1977 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस हार गई।

इस अध्याय में हम अपना ध्यान भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के इसी निर्णायक दौर पर केंद्रित करेंगे। साथ ही हम कुछ ऐसे सवाल पूछेगे जो सालों गुज़रने के बाद भी विवादास्पद बने रहे, जैसे-

• आपातकाल क्यों लागू किया गया? क्या ऐसा करना ज़रूरी था?
• आपातकाल लागू करने का व्यावहारिक अर्थ क्या था?
• दलगत राजनीति के लिहाज से आपातकाल के क्या परिणाम हुए?
• आपातकाल से भारतीय लोकतंत्र ने क्या सबक सीखे?


27 जून, 1975 के 'नई दुनिया' अखबार का संपादकीय भी बाकी दिनों की ही तरह बदस्तूर मौजूद था। बस अंतर यह था कि 'संपादकीय' की जगह खाली छोड़ दी गई थी। संपादकीय को आपातकालीन अधिकारों के अंतर्गत 'सेंसर' कर दिया गया था। कई अन्य अखबारों में भी जगह-जगह रिक्त स्थान छोड़े जाते थे। कई दफे ऐसा आपातकाल के प्रति विरोध जताने के लिए किया जाता था। बाद में खाली जगह छोड़ने पर भी पाबंदी लगा दी गई।

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अध्याय 6 

लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

आपातकाल की पृष्ठभूमि

1967 के बाद से भारतीय राजनीति में जो बदलाव आ रहे थे उनके बारे में हम पहले ही पढ़ चुके हैं। इंदिरा गाँधी एक कद्दावर नेता के रूप में उभरी थीं और उनकी लोकप्रियता अपने चरम पर थी। इस दौर में दलगत प्रतिस्पर्धा कहीं ज़्यादा तीखी और ध्रुवीकृत हो चली थी। इस अवधि में न्यायपालिका और सरकार के आपसी रिश्तों में भी तनाव आए। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की कई पहलकदमियों को संविधान के विरुद्ध माना। कांग्रेस पार्टी का मानना था कि अदालत का यह रवैया लोकतंत्र के सिद्धांतों और संसद की सर्वोच्चता के विरुद्ध है। कांग्रेस ने यह आरोप भी लगाया कि अदालत एक यथास्थितिवादी संस्था है और यह संस्था गरीबों को लाभ पहुँचाने वाले कल्याण-कार्यक्रमों को लागू करने की राह में रोड़े अटका रही है। कांग्रेस के विपक्ष में जो दल थे, उन्हें लग रहा था कि सरकारी प्राधिकार को निजी प्राधिकार मानकर इस्तेमाल किया जा रहा है और राजनीति हद से ज़्यादा व्यक्तिगत होती जा रही है। कांग्रेस की टूट से इंदिरा गाँधी और उनके विरोधियों के बीच मतभेद गहरे हो गए थे।

आर्थिक संदर्भ

1971 के चुनाव में कांग्रेस ने 'गरीबी हटाओ' का नारा दिया था। बहरहाल 1971-72 के बाद के सालों में भी देश की सामाजिक-आर्थिक दशा में खास सुधार नहीं हुआ। बांग्लादेश के संकट से भारत की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ा था। लगभग 80 लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पार करके भारत आ गए थे। इसके बाद पाकिस्तान से युद्ध भी करना पड़ा। युद्ध के बाद अमरीका ने भारत को हर तरह की सहायता देना बंद कर दिया। इसी अवधि में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कई गुना बढ़ोतरी हुई। इससे विभिन्न चीज़ों की कीमतें भी तेज़ी से बढ़ीं। 1973 में चीज़ों की कीमतों में 23 फीसदी और 1974 में 30 फीसदी का इज़़ाफ़ा हुआ। इस तीव्र मूल्यवृद्धि से लोगों को भारी कठिनाई हुई।

प्रधानमंत्री आगे के दिन मुश्किल

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अच्छा तो यही होता कि 1973 का यह साल जितनी जल्दी हो सके. बीत जाता।

औद्योगिक विकास की दर बहुत कम थी और बेरोज़गारी बहुत बढ़ गई थी। ग्रामीण इलाकों में बेरोज़गारी बेतहाशा बढ़ी थी। खर्चे को कम करने के लिए सरकार ने अपने कर्मचारियों के वेतन को रोक लिया। इससे सरकारी कर्मचारियों में बहुत असंतोष पनपा। 1972-73 के वर्ष में मानसून असफल रहा। इससे कृषि की पैदावार में भारी गिरावट आई। खाद्यान्न का उत्पादन 8 प्रतिशत कम हो गया। आर्थिक स्थिति की बदहाली को लेकर पूरे देश में असंतोष का माहौल था। इस स्थिति में गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने बड़े कारगर तरीके से जन-विरोध की अगुवाई की। 1960 के दशक से ही छात्रों के बीच विरोध के स्वर उठने लगे थे। ये स्वर इस अवधि में और ज़्यादा प्रबल हो उठे। संसदीय राजनीति में विश्वास न रखने वाले कुछ मार्क्सवादी समूहों की सक्रियता भी इस अवधि में बढ़ी। इन समूहों ने मौजूदा राजनीतिक प्रणाली और पूँजीवादी व्यवस्था को खत्म करने के लिए हथियार उठाया तथा राज्यविरोधी तकनीकों का सहारा लिया। ये समह मार्क्सवादी-लेनिनवादी (अब माओवादी) अथवा नक्सलवादी के नाम से जाने गए। ऐसे समह पश्चिम बंगाल में सबसे ज़्यादा सक्रिय थे। पश्चिम बंगाल की सरकार ने इन्हें दबाने के लिए कठोर कदम उठाए।

गुजरात और बिहार के आंदोलन

गुजरात और बिहार दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी। यहाँ के छात्र-आंदोलन ने इन दोनों प्रदेशों की राजनीति पर गहरा असर तो डाला ही, राष्ट्रीय स्तर की राजनीति पर भी इसके दूरगामी प्रभाव हुए। 1974 के जनवरी माह में गुजरात के छात्रों ने खाद्यान्न, खाद्य तेल तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती हुई कीमत तथा उच्च पदों पर जारी भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आंदोलन छेड़ दिया। छात्र-आंदोलन में बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ भी शरीक हो गईं और इस आंदोलन ने विकराल रूप धारण कर लिया। ऐसे में गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। विपक्षी दलों ने राज्य की विधानसभा के लिए दोबारा चुनाव कराने की माँग की। कांग्रेस (ओ) के प्रमुख नेता मोरारजी देसाई ने कहा कि अगर राज्य में नए सिरे से चुनाव नहीं करवाए गए तो मैं अनिश्चितकालीन भूख-हड़ताल पर बैठ जाऊँगा। मोरारजी अपने कांग्रेस के दिनों में इंदिरा गाँधी के मुख्य विरोधी रहे थे। विपक्षी दलों द्वारा समर्थित छात्र-आंदोलन के गहरे दबाव में 1975 के जून में विधानसभा के चुनाव हुए। कांग्रेस इस चुनाव में हार गई।

1974 के मार्च माह में बढ़ती हुई कीमतों, खाद्यान्न के अभाव, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ बिहार में छात्रों ने आंदोलन छेड दिया। आंदोलन के क्रम में उन्होंने जयप्रकाश नारायण (जेपी) को बुलावा भेजा। जेपी तब सक्रिय राजनीति छोड़ चुके थे और सामाजिक कार्यों में लगे हुए थे। छात्रों ने अपने आंदोलन की अगुवाई के लिए जयप्रकाश नारायण को बुलावा भेजा था। जेपी ने छात्रों का निमंत्रण इस शर्त पर स्वीकार किया कि आंदोलन अहिंसक रहेगा और अपने को सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रखेगा। इस प्रकार छात्र-आंदोलन ने एक राजनीतिक चरित्र ग्रहण किया और उसके भीतर राष्ट्रव्यापी अपील आई। जीवन के हर क्षेत्र के लोग अब आंदोलन से आ जुड़े। जयप्रकाश नारायण ने बिहार की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने की माँग की। उन्होंने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दायरे में 'सम्पूर्ण क्रांति' का आह्वान किया ताकि उन्हीं के शब्दों में 'सच्चे लोकतंत्र' की स्थापना की जा सके। बिहार की सरकार के खिलाफ़ लगातार घेराव, बंद और हड़ताल का एक सिलसिला चल पड़ा। बहरहाल, सरकार ने इस्तीफ़ा देने से इनकार कर दिया।

आंदोलन का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना शुरू हुआ। जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि यह आंदोलन देश के दूसरे हिस्सों में भी फैले। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के साथ ही साथ रेलवे के कर्मचारियों ने भी एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। इससे देश के रोज़मर्रा के कामकाज़ के ठप्प हो

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गरीब जनता पर सचमुच भारी मुसीबत आई होगी। आखिर गरीबी हटाओ के वादे का हुआ क्या?


“सम्‍पूर्ण क्रांति अब नारा है भावी इतिहास हमारा है!”

1974 के बिहार आंदोलन का एक नारा

“इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज, इंदिरा”

कांग्रेस अध्यक्ष डी.के. बरुआ (1974) ने यह नारा दिया था।

नक्सलवादी आंदोलन

पश्चिम बंगाल के पर्वतीय ज़िले दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी पुलिस थाने के इलाके में 1967 में एक किसान विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस विद्रोह की अगुवाई मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय कॉडर के लोग कर रहे थे। नक्सलबाड़ी पुलिस थाने से शुरू होने वाला यह आंदोलन भारत के कई राज्यों में फैल गया। इस आंदोलन को नक्सलवादी आंदोलन के रूप में जाना जाता है। 1969 में नक्सलवादी सीपीआई (एम) से अलग हो गए और इन्होंने सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) नाम से एक नयी पार्टी चारु मजूमदार के नेतृत्व में बनायी। इस पार्टी की दलील थी कि भारत में लोकतंत्र एक छलावा है। इस पार्टी ने क्रांति करने के लिए गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनायी।

नक्सलवादी आंदोलन ने धनी भूस्वामियों से बलपूर्वक ज़मीन छीनकर गरीब और भूमिहीन लोगों को दी। इस आंदोलन के समर्थक अपने राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हिंसक साधनों के इस्तेमाल के पक्ष में दलील देते थे। इस वक्त कांग्रेस-शासित पश्चिम बंगाल सरकार ने निरोधक नज़रबंदी समेत कई कड़े कदम उठाए, लेकिन नक्सलवादी आंदोलन रुक न सका। बाद के सालों में यह देश के कई अन्य भागों में फैल गया। नक्सलवादी आंदोलन अब कई दलों और संगठनों में बँट चुका था। इन दलों में से कुछ जैसे सीपीआई (एमएल-लिबरेशन) खुली लोकतांत्रिक राजनीति में भागीदारी करते हैं।

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नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर अनेक फिल्में भी बनी हैं। महाश्वेता देवी के उपन्यास पर आधारित 'हजार चौरासी की माँ' ऐसी ही एक फिल्म है।

फिलहाल 9 राज्यों के लगभग 75 जिले नक्सलवादी हिंसा से प्रभावित हैं। इनमें अधिकतर बहुत पिछड़े इलाके हैं और यहाँ आदिवासियों की जनसंख्या ज्यादा है। इन इलाकों में बँटाई या पट्टे पर खेतीबाड़ी करने वाले तथा छोटे किसान उपज में हिस्से, पट्टे की सुनिश्चित अवधि और उचित मजदूरी जैसे अपने बुनियादी हकों से भी वंचित हैं। जबरिया मज़दूरी, बाहरी लोगों द्वारा संसाधनों का दोहन तथा सूदखोरों द्वारा शोषण भी इन इलाकों में आम बात है। इन स्थितियों से नक्सलवादी आंदोलन में बढ़ोतरी हुई है।

सरकार ने नक्सलवादी आंदोलन से निपटने के लिए कड़े कदम उठाए हैं। मानवाधिकार समूहों ने सरकार के इन कदमों की आलोचना करते हुए कहा है कि वह नक्सलवादियों से निपटने के क्रम में संवैधानिक मानकों का उल्लंघन कर रही है। नक्सलवादी हिंसा और नक्सल विरोधी सरकारी कार्रवाई में हज़ारों लोग अपनी जान गँवा चुके हैं।

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चारु मजमदार ( 1918-1972): कम्युनिस्ट क्रांतिकारी और नक्सलवादी बगावत के नेता; आज़ादी से पहले तेभागा आंदोलन में भागीदारी; सीपीआई छोड़ी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की स्थापना; किसान विद्रोह के माओवादी पंथ में विश्वास; क्रांतिकारी हिंसा के समर्थक; पुलिस हिरासत में मौत।


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देखो! वह लोकतत्रं को पलीता लगाना चाहता है, अराजकता फैलाना चाहता है और सत्‍ता हासिल...

जाने का खतरा पैदा हो गया। 1975 में जेपी ने जनता के 'संसद-मार्च' का नेतृत्व किया। देश की राजधानी में अब तक इतनी बड़ी रैली नहीं हुई थी। जयप्रकाश नारायण को अब भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी जैसे गैर-कांग्रेसी दलों का समर्थन मिला। इन दलों ने जेपी को इंदिरा गाँधी के विकल्प के रूप में पेश किया। बहरहाल जेपी के विचारों और उनके द्वारा अपनायी गई जन-प्रतिरोध की रणनीति की आलोचनाएँ भी मुखर हुईं। गुजरात और बिहार, दोनों ही राज्यों के आंदोलन को कांग्रेस विरोधी आंदोलन माना गया। कहा गया कि ये आंदोलन राज्य सरकार के खिलाफ़ नहीं बल्कि इंदिरा गाँधी के नेतृत्व के खिलाफ चलाए गए हैं। इंदिरा गाँधी का मानना था कि ये आंदोलन उनके प्रति व्यक्तिगत विरोध से प्रेरित हैं।

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लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) (1902-1979): युवावस्था में मार्क्सवादी; कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक महासचिव; 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के नायक; नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में देखे गए; नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल होने से इनकार; 1955 के बाद सक्रिय राजनीति छोड़ी; गाँधीवादी बनने के बाद भूदान आंदोलन में सक्रिय; नगा विद्रोहियों से सुलह की बातचीत की; कश्मीर में शांति प्रयास किए; चंबल के डकैतों से आत्मसमर्पण कराया; बिहार आंदोलन के नेता; आपातकाल के विरोध के प्रतीक बन गए थे; जनता पार्टी के गठन के प्रेरणास्रोत।

न्यायपालिका से संघर्ष

न्यायपालिका के साथ इस दौर में सरकार और शासक दल के गहरे मतभेद पैदा हुए। क्या आपको संसद और न्यायपालिका के बीच चले लंबे संघर्ष की चर्चा याद है? इसके बारे में

1974 की रेल हड़ताल

यदि रेलगाड़ियों का चलना बंद हो जाए तो क्या होगा? एक या दो दिन नहीं, बल्कि हफ़्ते भर से ज़्यादा समय तक रेलगाड़ियाँ न चलें तो? निश्चित ही बहुत-से लोगों का आना-जाना दूभर हो जाएगा, लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं रहेगी। देश की अर्थव्यवस्था ठप्प हो जाएगी, क्योंकि रेलगाड़ियों के माध्यम से ही देश में एक जगह से दूसरी जगह सामानों की ज्यादातर ढुलाई होती है। क्या आप जानते हैं कि 1974 में ठीक ऐसा ही वाकया पेश आया था? रेलवे कर्मचारियों के संघर्ष से संबंधित राष्ट्रीय समन्वय समिति ने जॉर्ज फर्नान्डिस के नेतृत्व में रेलवे कर्मचारियों की एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। बोनस और सेवा से जुड़ी शर्तों के संबंध में अपनी माँगों को लेकर सरकार पर दबाव बनाने के लिए हड़ताल का यह आह्वान किया गया था। सरकार इन माँगों के खिलाफ़ थी। ऐसे में भारत के इस सबसे बड़े सार्वजनिक उद्यम के कर्मचारी 1974 के मई महीने में हड़ताल पर चले गए। रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल से मजदूरों के असंतोष को बढ़ावा मिला। इस हड़ताल से मज़दूरों के अधिकार जैसे मसले तो उठे ही, यह सवाल भी उठा कि आवश्यक सेवाओं से जुड़े हुए कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर हड़ताल कर सकते हैं या नहीं। सरकार ने इस हड़ताल को अवैधानिक करार दिया। सरकार ने हड़ताली कर्मचारियों की माँगों को मानने से इनकार कर दिया। उसने इसके कई नेताओं को गिरफ्तार किया और रेल लाइनों की सुरक्षा में सेना को तैनात कर दिया। ऐसे में 20 दिन के बाद यह हड़ताल बगैर किसी समझौते के वापस ले ली गई।

आपने पिछले साल पढ़ा था। इस क्रम में तीन संवैधानिक मसले उठे थे: क्या संसद मौलिक अधिकारों में कटौती कर सकती है? सर्वोच्च न्यायालय का जवाब था कि संसद ऐसा नहीं कर सकती। दूसरा यह कि क्या संसद संविधान में संशोधन करके संपत्ति के अधिकार में काट-छाँट कर सकती है? इस मसले पर भी सर्वोच्च न्यायालय का यही कहना था कि सरकार, संविधान में इस तरह संशोधन नहीं कर सकती कि अधिकारों की कटौती हो जाए। तीसरे, संसद ने यह कहते हुए संविधान में संशोधन किया कि वह नीति-निर्देशक सिद्धांतों को प्रभावकारी बनाने के लिए मौलिक अधिकारों में कमी कर सकती है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को भी निरस्त कर दिया। इससे सरकार और न्यायपालिका के बीच संबंधों में तनाव आया। आपको याद होगा कि इस संकट की परिणति केशवानंद भारती के मशहूर मुकदमे के रूप में सामने आई। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संविधान का एक बुनियादी ढाँचा है और संसद इन ढाँचागत विशेषताओं में संशोधन नहीं कर सकती है।

क्या 'प्रतिबद्ध न्यायपालिका और 'प्रतिबद्ध नौकरशाही' का मतलब यह है कि न्यायाधीश और सरकारी अधिकारी शासक दल के प्रति निष्ठावान हों?

दो और बातों ने न्यायपालिका और कार्यपालिका के संबंधों में तनाव बढ़ाया। 1973 में केशवानंद भारती के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फ़ैसला सुनाने के तुरंत बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद खाली हुआ। सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाने की परिपाटी चली आ रही थी, लेकिन 1973 में सरकार ने तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की अनदेखी करके न्यायमूर्ति ए.एन. रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। यह निर्णय राजनीतिक रूप से विवादास्पद बन गया क्योंकि सरकार ने जिन तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी इस मामले में की थी उन्होंने सरकार के इस कदम के विरुद्ध फ़ैसला दिया। ऐसे में संविधान की व्याख्या और राजनीतिक विचारधाराओं का बड़ी तेजी से घालमेल हुआ। जो लोग प्रधानमंत्री के नज़दीकी थे वे एक ऐसी 'प्रतिबद्ध' न्यायपालिका तथा नौकरशाही की ज़रूरत के बारे में बातें करने लगे जो विधायिका और कार्यपालिका की सोच के अनुकूल आचरण करे। इस संघर्ष का चरमबिंदु तब आया जब एक उच्च न्यायालय ने इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को अवैध घोषित कर दिया।

आपातकाल की घोषणा

12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने एक फ़ैसला सुनाया। इस फ़ैसले में उन्होंने लोकसभा के लिए इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को अवैधानिक करार दिया। न्यायमूर्ति ने यह फ़ैसला समाजवादी नेता राजनारायण द्वारा दायर एक चुनाव याचिका के मामले में सुनाया था। राजनारायण, इंदिरा गाँधी के खिलाफ़ 1971 में बतौर उम्मीदवार चुनाव में खड़े हुए थे। याचिका में इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को चुनौती देते हुए तर्क दिया गया था कि उन्होंने चुनाव-प्रचार में सरकारी कर्मचारियों की सेवाओं का इस्तेमाल किया था। उच्च न्यायालय के इस फ़ैसले का मतलब यह था कि कानूनन अब इंदिरा गाँधी सांसद नहीं रहीं और अगर अगले छह महीने की अवधि में दोबारा सांसद निर्वाचित नहीं होतीं, तो प्रधानमंत्री के पद पर कायम नहीं रह सकतीं। 24 जून 1975 को सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस फ़ैसले पर आंशिक स्थगनादेश सुनाते हुए कहा कि जब तक इस फ़ैसले को लेकर की गई अपील की सुनवाई नहीं होती तब तक इंदिरा गाँधी सांसद बनी रहेंगी। लेकिन वे लोकसभा की कार्रवाई में भाग नहीं ले सकती हैं।

संकट और सरकार का फ़ैसला

एक बड़े राजनीतिक संघर्ष के लिए अब मैदान तैयार हो चुका था। जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में विपक्षी दलों ने इंदिरा गाँधी के इस्तीफ़े के लिए दबाव डाला। इन दलों ने 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल प्रदर्शन किया। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गाँधी से इस्तीफे की माँग करते हुए राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की घोषणा की। जेपी ने सेना, पुलिस और सरकारी कर्मचारियों का आह्वान किया कि वे सरकार के अनैतिक और अवैधानिक आदेशों का पालन न करें। इससे भी सरकारी कामकाज के ठप्प हो जाने का अंदेशा पैदा हुआ। देश का राजनीतिक मिजाज़ अब पहले से कहीं ज्यादा कांग्रेस के खिलाफ़ हो गया।

यह तो सेना से सरकार के खिलाफ़ बगावत करने को कहने जैसा जान पड़ता है! क्या यह बात लोकतांत्रिक है?

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सरकार ने इन घटनाओं के मद्देनजर जवाब में 'आपातकाल' की घोषणा कर दी। 25 जून 1975 के दिन सरकार ने घोषणा की कि देश में गड़बड़ी की आशंका है और इस तर्क के साथ उसने संविधान के अनुच्छेद 352 को लागू कर दिया। इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रावधान किया गया है कि बाहरी अथवा अंदरूनी गड़बड़ी की आशंका होने पर सरकार आपातकाल लागू कर सकती है। सरकार का निर्णय था कि गंभीर संकट की घड़ी आन पड़ी है और इस वजह से आपातकाल की घोषणा ज़रूरी हो गई है। तकनीकी रूप से देखें तो ऐसा करना

इतने लोगों के साथ रहते हुए आपको कुर्सी छोड़ने की बात नहीं सोच बात नहीं सोचनी चाहिए...

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यह कार्टून आपातकाल की घोषणा के चंद रोज़ पहले छपा था। इसमें मौजूदा राजनीतिक संकट की आहटों को पढ़ा जा सकता है। कुर्सी को पीछे से सहारा देता हाथ कांग्रेस अध्यक्ष डी.के. बरुआ का है।

सरकार की शक्तियों के दायरे में था क्योंकि हमारे संविधान में सरकार को आपातकाल की स्थिति में विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

आपातकाल की घोषणा के साथ ही शक्तियों के बँटवारे का संघीय ढाँचा व्यावहारिक तौर पर निष्प्रभावी हो जाता है और सारी शक्तियाँ केंद्र सरकार के हाथ में चली आती हैं। दूसरे, सरकार चाहे तो ऐसी स्थिति में किसी एक अथवा सभी मौलिक अधिकारों पर रोक लगा सकती है अथवा उनमें कटौती कर सकती है। संविधान के प्रावधान में आए शब्दों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आपातकाल को वहाँ एक असाधारण स्थिति के रूप में देखा गया है जब सामान्य लोकतांत्रिक राजनीति के कामकाज नहीं किए जा सकते। इसी कारण सरकार को आपातकाल की स्थिति में विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

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क्या राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल की सिफारिश के बगैर आपातकाल की घोषणा करनी चाहिए थी? कितनी अजीब बात है!

25 जून 1975 की रात में प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की। राष्ट्रपति ने तुरंत यह उद्घोषणा कर दी। आधी रात के बाद सभी बड़े अखबारों के दफ्तर की बिजली काट दी गई। तड़के सबेरे बड़े पैमाने पर विपक्षी दलों के

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नेताओं और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई। 26 जून की सुबह 6 बजे एक विशेष बैठक में मंत्रिमंडल को इन बातों की सूचना दी गई, लेकिन तब तक बहुत कुछ हो चुका था।

परिणाम

सरकार के इस फ़ैसले से विरोध-आंदोलन एकबारगी रुक गया; हडतालों पर रोक लगा दी गई। अनेक विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। राजनीतिक माहौल में तनाव भरा एक गहरा सन्नाटा छा गया। आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत प्राप्त अपनी शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार ने प्रेस की आज़ादी पर रोक लगा दी। समाचारपत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेना जरूरी है। इसे प्रेस सेंसरशिप के नाम से जाना जाता है। सामाजिक और सांप्रदायिक गड़बड़ी की आशंका के मद्देनजर सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया। धरना, प्रदर्शन और हड़ताल की भी अनुमति नहीं थी। सबसे बड़ी बात यह हुई कि आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत नागरिकों के विभिन्न मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गए। उनके पास अब यह अधिकार भी नहीं रहा कि मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाएँ।

सरकार ने निवारक नज़रबंदी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध किया है बल्कि इसके विपरीत, इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई अपराध कर सकते हैं। सरकार ने आपातकाल के दौरान निवारक नज़रबंदी अधिनियमों का प्रयोग करके बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ की। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। वे बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे। गिरफ्तार लोगों अथवा उनके पक्ष से किन्हीं और ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कई मामले दायर किए, लेकिन सरकार का कहना था कि गिरफ्तार लोगों को गिरफ्तारी का कारण बताना कतई ज़रूरी नहीं है। अनेक उच्च न्यायालयों ने फ़ैसला दिया कि आपातकाल की घोषणा के बावजूद अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर सकती है जिसमें उसने अपनी गिरफ़्तारी को चुनौती दी हो। 1976 के अप्रैल माह में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मान ली। इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिक से जीवन और आज़ादी का अधिकार वापस ले सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बंद हो गए। इस फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फ़ैसलों में एक माना गया।

आपातकाल की मुखालफत और प्रतिरोध की कई घटनाएँ घटी। पहली लहर में जो राजनीतिक कार्यकर्ता गिरफ़्तारी से बच गए थे वे 'भूमिगत' हो गए और उन्होंने सरकार के खिलाफ मुहिम चलायी। 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'स्टेट्समैन' जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का विरोध किया। जिन समाचारों को छापने से रोका जाता था उनकी जगह ये अखबार खाली छोड़ देते थे। 'सेमिनार' और 'मेनस्ट्रीम' जैसी पत्रिकाओं ने सेंसरशिप के आगे घुटने टेकने की जगह बंद होना मुनासिब समझा। सेंसरशिप को धत्ता बताते हुए गुपचुप तरीके से अनेक न्यूज़लेटर और लीफ़लेट्स निकले। पद्मभूषण से सम्मानित कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत और पद्मश्री से सम्मानित हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ 'रेणु' ने लोकतंत्र के दमन के विरोध में अपनी-अपनी पदवी लौटा दी। बहरहाल, मुखालफत और प्रतिरोध के इतने प्रकट कदम कुछ ही लोगों ने उठाए।

संसद ने संविधान के सामने कई नयी चुनौतियाँ खड़ी की। इंदिरा गाँधी के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले की पृष्ठभूमि में संविधान में संशोधन हुआ। इस संशोधन के द्वारा प्रावधान किया गया कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। आपातकाल के दौरान ही संविधान - का 42वाँ संशोधन पारित हुआ। आप पढ़ चुके हैं कि इस संशोधन के जरिए संविधान के अनेक हिस्सों में बदलाव किए गए। 42वें संशोधन के जरिए हुए अनेक बदलावों में एक था-देश की विधायिका के कार्यकाल को 5 से बढ़ाकर 6 साल करना। यह व्यवस्था मात्र आपातकाल की अवधि भर के लिए नहीं की गई थी। इसे आगे के दिनों में भी स्थायी रूप से लागू किया जाना था। इसके अतिरिक्त अब आपातकाल के दौरान चुनाव को एक साल के लिए स्थगित किया जा सकता था। इस तरह देखें तो 1971 के बाद अब चनाव 1976 के बदले 1978 में करवाए जा सकते थे।

आपातकाल के संदर्भ में विवाद

आपातकाल भारतीय राजनीति का सर्वाधिक विवादास्पद प्रकरण है। इसका एक कारण आपातकाल की घोषणा की ज़रूरत को लेकर विभिन्न दृष्टिकोणों का होना। दूसरा कारण यह है कि सरकार ने संविधान प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करके व्यावहारिक तौर पर लोकतांत्रिक कामकाज को ठप्प कर दिया था। आपातकाल के बाद शाह आयोग ने अपनी जाँच में पाया कि इस अवधि में बहुत सारी 'अति' हुई। इसके अतिरिक्त भारत में लोकतंत्र पर अमल के लिहाज़ से आपातकाल से क्या-क्या सबक सीखे जा सकते हैं, इस पर भी अलग-अलग राय मिलती है। आइए, इन पर एक-एक करके नज़र दौड़ाएँ।

क्‍या ‘आपताकाल’ ज़रूरी था?

आपातकाल की घोषणा के कारण का उल्लेख करते हुए संविधान में बड़े सादे ढंग से 'अंदरूनी गड़बड़ी' जैसे शब्द का व्यवहार किया गया है। 1975 से पहले कभी भी 'अंदरूनी गड़बड़ी' को आधार बनाकर आपातकाल की घोषणा नही की गई थी। हम पढ़ चुके हैं कि देश के कई हिस्सों में विरोध-आंदोलन चल रहे थे। क्या इसे आपातकाल लागू करने का पर्याप्त कारण माना जा सकता है? सरकार का तर्क था कि भारत में लोकतंत्र है और इसके अनुकूल विपक्षी दलों को चाहिए कि वे निर्वाचित शासक दल को अपनी नीतियों के अनुसार शासन चलाने दें। सरकार का मानना था कि बार-बार का

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जिन चंद लोगों ने प्रतिरोध किया, उनकी बात छोड़ दें- बाकियों के बारे में सोचें कि उन्होंने क्या किया! क्या कर रहे थे बड़े-बड़े अधिकारी, बुद्धिजीवी, सामाजिक-धार्मिक नेता और नागरिक ...? है

शाह जाँच आयोग

1977 की मई में जनता पार्टी की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री जे.सी. शाह की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया। इस आयोग का गठन “25 जून 1975 के दिन घोषित आपातकाल के दौरान की गई कार्रवाई तथा सत्ता के दुरुपयोग, अतिचार और कदाचार के विभिन्न क्या 'आपातकाल' जरूरी था? आरोपों के विविध पहलुओं" की जाँच के लिए किया गया था। आयोग ने विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों की जाँच की और हज़ारों गवाहों के बयान दर्ज़ किए। गवाहों में इंदिरा गाँधी भी शामिल थीं। वे आयोग के सामने उपस्थित हुईं, लेकिन उन्होंने आयोग के सवालों के जवाब देने से इनकार कर दिया।

भारत सरकार ने आयोग द्वारा प्रस्तुत दो अंतरिम रिपोर्टों और तीसरी तथा अंतिम रिपोर्ट की सिफ़ारिशों, पर्यवेक्षणों और निष्कर्षों को स्वीकार किया। यह रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में भी विचार के लिए रखी गई।

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शाह जाँच आयोग के प्रति इंदिरा गाँधी के टकराव भरे रवैये पर कार्टूनिस्ट ने इस तरह की टिप्पणी की। यह कार्टून शाह जाँच आयोग की रिपोर्ट जारी होने के बाद बनाया गया।

धरना-प्रदर्शन और सामूहिक कार्रवाई लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इंदिरा गाँधी के समर्थक यह भी मानते थे कि लोकतंत्र में सरकार पर निशाना साधने के लिए लगातार गैर-संसदीय राजनीति का सहारा नहीं लिया जा सकता। इससे अस्थिरता पैदा होती है और प्रशासन का ध्यान विकास के कामों से भंग हो जाता है। सारी ताकत कानून-व्यवस्था की बहाली पर लगानी पडती है। इंदिरा गाँधी ने शाह आयोग को चिट्ठी में लिखा कि विनाशकारी ताकतें सरकार के प्रगतिशील कार्यक्रमों में अडंगे डाल रही थीं और मुझे गैर-संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहती थीं।

तुर्कमान गेट इलाके में विध्वंस, दिल्ली

आपातकाल के दौरान दिल्ली के गरीब इलाके के निवासियों को बड़े पैमाने पर विस्थापित होना पड़ा। उस वक्त यमुना नदी के पास निर्जन इलाके में झुग्गी-झोपड़ी के बाशिन्दों को जबरदस्ती बसाया गया। इसी नियति का एक शिकार तुर्कमान गेट इलाके की एक बस्ती हुई थी। इस इलाके की झुग्गियों को उजाड़ दिया गया। इलाके के सैकड़ों लोगों की ज़बरन नसबंदी की गई। बहरहाल अनेक लोग नसबंदी करवाने से इसलिए बच सके क्योंकि इन लोगों ने दूसरों को नसबंदी करवाने के लिए रजामंद कर लिया। ऐसे लोगों को बतौर इनाम जमीन के टुकड़ों पर मिल्कियत दी गई। इस तरह कुछ लोग अगर सरकार द्वारा प्रायोजित प्रयासों के शिकार हुए तो कुछ लोगों ने कानूनन ज़मीन हासिल करने के लालच में दूसरों को बलि का बकरा बनाया और ऐसा करके खुद को विस्थापित होने से बचा लिया।

स्रोत : शाह जाँच आयोग : अंतरिम रिपोर्टII


“लोकतंत्र के नाम पर खुद लोकतंत्र की राह रोकने की कोशिश की जा रही है। वैधानिक रूप से निर्वाचित सरकार को काम नहीं करने दिया जा रहा। ...आंदोलनों से माहौल सरगर्म है और इसके नतीजतन हिंसक घटनाएँ हो रही हैं ... एक आदमी तो इस हद तक आगे बढ़ गया है कि वह हमारी सेना को विद्रोह और पुलिस को बग़ावत के लिए उकसा रहा है। विघटनकारी ताकतों का खुला खेल जारी है और सांप्रदायिक उन्माद को हवा दी जा रही है, जिससे हमारी एकता पर खतरा मँडरा रहा है। अगर सचमुच कोई सरकार है, तो वह कैसे हाथ बाँधकर खड़ी रहे और देश की स्थिरता को खतरे में पड़ता देखती रहे? चंद लोगों की कारस्तानी से विशाल आबादी के अधिकारों को खतरा पहुँच रहा है।”

इंदिरा गाँधी

26 जून 1975 को आकाशवाणी से राष्‍ट्र को संबोधित करते हुए


अपने माता-पिता अथवा परिवार और आस-पड़ोस के अन्य बड़े बुज़ुर्गों से पूछिए कि 1975-77 के आपातकाल के दौरान उन पर क्या गुज़री थी। निम्नलिखित बिंदुओं पर नोट्स तैयार कीजिए:

• ऐसे लोगों के निजी अनुभव जिनका संबंध आपातकाल से हो।
• आपके इलाके में आपातकाल के समर्थन या विरोध में घटी कोई घटना।
• 1977 के चुनाव में ऐसे लोगों की भागीदारी। इन लोगों ने किसे वोट दिया
और क्यों?
अपने नोट्स को एक साथ मिलाकर लिखिए और 'आपातकाल के दौरान मेरा गाँव/शहर' शीर्षक से एक सामूहिक रिपोर्ट तैयार कीजिए।

कुछ अन्य दलों, मसलन सीपीआई (इसने आपातकाल के दौरान कांग्रेस को समर्थन देना जारी रखा था) का विश्वास था कि भारत की एकता के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय साजि़श की जा रही है। सीपीआई का मानना था कि ऐसी सूरत में विरोध पर एक हद तक प्रतिबंध लगाना उचित है। सीपीआई का मानना था कि जेपी ने जिस जन आंदोलन की अगुवाई की, वह मुख्यतया मध्यवर्ग का आंदोलन था और यह मध्यवर्ग कांग्रेस की परिवर्तनकामी नीतियों के विरोध में था। आपातकाल के बाद सीपीआई ने महसूस किया कि उसका मूल्यांकन गलत था और आपातकाल का समर्थन करना एक गलती थी।

दूसरी तरफ़, आपातकाल के आलोचकों का तर्क था कि आज़ादी के आंदोलन से लेकर लगातार भारत में जन आंदोलन का एक सिलसिला रहा है। जेपी सहित विपक्ष के अन्य नेताओं का खयाल था कि लोकतंत्र में लोगों को सार्वजनिक तौर पर सरकार के विरोध का अधिकार होना चाहिए। बिहार और गुजरात में चले विरोध-आंदोलन ज़्यादातर समय अहिंसक और शांतिपूर्ण रहे। जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया था, उन पर कभी भी राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहने का मुकदमा नहीं चला। अधिकतर बंदियों के खिलाफ़ कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ था। देश के अंदरूनी मामलों की देख-रेख का जिम्मा गृह मंत्रालय का होता है। गृह मंत्रालय ने भी कानून व्यवस्था की बाबत कोई चिंता नहीं जतायी थी। अगर कुछ आंदोलन अपनी हद से बाहर जा रहे थे, तो सरकार के पास अपनी रोज़मर्रा की अमल में आने वाली इतनी शक्तियाँ थीं कि वह ऐसे आंदोलनों को हद में ला सकती थी। लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को ठप्प करके 'आपातकाल' लागू करने जैसे अतिचारी कदम उठाने की ज़रूरत कतई न थी। दरअसल खतरा देश की एकता और अखंडता को नहीं, बल्कि शासक दल और स्वयं प्रधानमंत्री को था। आलोचक कहते हैं कि देश को बचाने के लिए बनाए गए संवैधानिक प्रावधान का दुरुपयोग इंदिरा गाँधी ने निजी ताकत को बचाने के लिए किया।

आपातकाल के दौरान क्या-क्या हुआ?

आपातकाल का वास्तविक क्रियान्वयन भी अपने-आप में विवाद का एक मुद्दा रहा है। क्या सरकार ने अपनी आपातकालीन शक्तियों का दुरुपयोग किया? क्या इस दौरान सत्ता का दुरुपयोग हुआ और उसके बूते ज़्यादतियाँ की गईं ? सरकार ने कहा कि वह आपातकाल के जरिए कानून व्यवस्था को बहाल करना चाहती थी, कार्यकुशलता बढ़ाना चाहती थी और गरीबों के हित के कार्यक्रम लागू करना चाहती थी। इस उद्देश्य से सरकार ने एक बीस-सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की और इसे लागू करने का अपना दृढ़ संकल्प दोहराया। बीस सूत्री कार्यक्रम में भूमि-सुधार, भू–पुनर्वितरण, खेतिहर मज़दूरों के पारिश्रमिक पर पुनर्विचार, प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी, बंधुआ मज़दूरी की समाप्ति, आदि मसले शामिल थे। आपातकाल की घोषणा के बाद, शुरुआती महीनों में मध्यवर्ग इस बात से बड़ा खुश था कि विरोध-आंदोलन समाप्त हो गया और सरकारी कर्मचारियों पर अनुशासन लागू हुआ। गरीब और ग्रामीण जनता को भी उम्मीद थी कि सरकार जिन कल्याण कार्यक्रमों को लागू करने के वायदे कर रही है, उन्हें अब कारगर तरीके से लागू किया जाएगा। समाज के विभिन्न वर्गों की अलग-अलग अपेक्षाएँ थीं और इस कारण आपातकाल को लेकर उनके दृष्टिकोण भी अलग-अलग थे।

नहीं, अभी नहीं! अभी तुम अपने पैरों पर खड़ा होने लायक नहीं हुए हो!

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आपातकाल के आलोचकों ने ध्यान दिलाया है कि सरकार के ज्‍़यादातर वायदे पूरे नहीं हुए। आलोचकों का कहना है कि सरकार अपने वायदों की ओट लेकर ज़्यादतियों से लोगों का ध्यान हटाना चाहती थी। आलोचकों ने निवारक नज़रबंदी के बड़े पैमाने के इस्तेमाल पर भी सवाल उठाए। हम पढ़ चुके हैं कि आपातकाल के दौरान अनेक प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। दरअसल, कुल 676 नेताओं की गिफ़्तारी हुई थी। शाह आयोग का आकलन था कि निवारक नजरबंदी के कानूनों के तहत लगभग एक लाख ग्यारह हज़ार लोगों को गिरफ्तार किया गया। प्रेस पर कई तरह की पाबंदी लगाई गई। इसमें कई पाबंदियाँ गैरकानूनी थीं। शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि दिल्ली बिजली आपूर्ति निगम के महाप्रबंधक को दिल्ली के लेफ्टिनेंट-गवर्नर के दफ्तर से 26 जून 1975 की रात 2 बजे मौखिक आदेश मिला कि सभी अखबारों की बिजली आपूर्ति काट दी जाए। अखबारों को बिजली आपूर्ति दो-तीन दिन बाद फिर बहाल की गई, लेकिन तब तक सेंसरशिप का पूरा ढाँचा खड़ा किया जा चुका था।

राजन की पुलिस हिरासत में मौत

लीकट इंजीनियरिंग कॉलेज (केरल) के अंतिम वर्ष के छात्र पी. राजन को 1 मार्च 1976 के दिन एक अन्य छात्र जोसेफ चाली के साथ छात्रावास से उठा लिया गया। राजन के पिता टी.वी. इचार वारियर ने अपने बेटे की तलाश में बहुत भागदौड़ की। वे विधायकों से मिले, संबद्ध अधिकारियों को अर्जी दी और तत्कालीन गृहमंत्री के. करुणाकरण से भी मदद की गुहार लगाई। चूँकि आपातकाल की घोषणा हो चुकी थी। इसलिए नागरिक अधिकारों से जुड़े हुए मसलों को अदालत में नहीं उठाया जा सकता था। आपातकाल की समाप्ति के बाद वारियर ने अर्नाकुलम स्थित केरल उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की। गवाहों के बयान से यह बात स्पष्ट हुई कि छात्रावास से उठाकर राजन को अगले दिन कालीकट के टूरिस्ट बँगले में ले जाया गया। इस जगह पर पुलिस ने उसे यातना दी। अगली सुनवाई में केरल सरकार ने उच्च न्यायालय को बताया कि 'गैरकानूनी पुलिस हिरासत' के दौरान पुलिस द्वारा लगातार यातना देने के कारण राजन की मौत हो गई। केरल उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि करुणाकरण ने अदालत से झूठ बोला था। के. करुणाकरण उस समय तक केरल के मुख्यमंत्री बन चुके थे। उन्हें अदालत के फैसले के कारण अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा।

इसके अलावा कुछ और भी गंभीर आरोप ऐसे लोगों को लेकर लगे थे जो किसी आधिकारिक पद पर नहीं थे, लेकिन सरकारी ताकत का इन लोगों ने इस्तेमाल किया था। प्रधानमंत्री के छोटे बेटे संजय गाँधी उस वक्त किसी आधिकारिक पद पर नहीं थे। फिर भी, प्रशासन पर उनका असर था और आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने सरकारी कामकाज में दखल दिया। दिल्ली में झुग्गी बस्तियों को हटाने तथा ज़बरन नसबंदी करने की मुहिम में उनकी भूमिका को लेकर बड़े विवाद उठे।

राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और प्रेस पर लगी पाबंदी के अतिरिक्त, आपातकाल का बुरा असर आमलोगों को भी भुगतना पड़ा। आपातकाल के दौरान पुलिस हिरासत में मौत और यातना की घटनाएँ घटी। गरीब लोगों को मनमाने ढंग से एक जगह से उजाडकर दुसरी जगह बसाने की भी घटनाएँ हुईं। जनसंख्या नियंत्रण के अति उत्साह में लोगों को अनिवार्य रूप से नसबंदी के लिए मजबूर किया गया। इन उदाहरणों से समझा जा सकता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ठप्प पड़ने पर लोगों पर क्या गुज़रती है।

आपातकाल के सबक

आपातकाल से एकबारगी भारतीय लोकतंत्र की ताकत और कमजोरियाँ उजागर हो गईं। हालाँकि बहुत-से पर्यवेक्षक मानते हैं कि आपातकाल के दौरान भारत लोकतांत्रिक नहीं रह गया था, लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि थोड़े ही दिनों के अंदर कामकाज फिर से लोकतांत्रिक ढर्रे पर लौट आया। इस तरह आपातकाल का एक सबक तो यही है कि भारत से लोकतंत्र को विदा कर पाना बहुत कठिन है।

“... death of D.E.M.O’cracy, mourned by his wife T. Ruth, his son L. I. Bertie, and his daughters Faith, Hope and Justice.”

1975 में आपातकाल की घोषणा के चंद रोज बाद टाइम्स ऑफ़ इंडिया में यह विज्ञापन 'अज्ञात' नाम से छपा था। गौर करें कि इसमें लोकतंत्र पर मंडराते खतरे की तरफ़ ध्यान खींचने के लिए किस तरह भाषा का कल्पनाशील प्रयोग किया गया है और सेंसरशिप से बचने के लिए कैसे अपने संदेश को विज्ञापन के रूप में छपवाने का नायाब तरीका ढूँढ़ा गया है।

“आज भारत की आज़ादी का दिन है... भारत के लोकतंत्र का दीपक बुझने न पाए।”

फ्री जेपी कैम्पेन यह विज्ञापन द टाइम्स (लंदन) में 15 अगस्त 1975 को छपवाया गया था।

दूसरे, आपातकाल से संविधान में वर्णित आपातकाल के प्रावधानों के कुछ अर्थगत उलझाव भी प्रकट हुए, जिन्हें बाद में सुधार लिया गया। अब 'अंदरूनी' आपातकाल सिर्फ़ 'सशस्त्र विद्रोह' की स्थिति में लगाया जा सकता है। इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिमंडल राष्ट्रपति को लिखित में दे।

तीसरे, आपातकाल से हर कोई नागरिक अधिकारों के प्रति ज़्यादा सचेत हुआ। आपातकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई। न्यायपालिका आपातकाल के वक्त नागरिक अधिकारों की कारगर तरीके से रक्षा नहीं कर पाई थी। इसे महसूस करके अब वह नागरिक अधिकारों की रक्षा में तत्पर हो गई। आपातकाल के बाद नागरिक अधिकारों के कई संगठन वजूद में आए।

बहरहाल, आपातकाल के संकटपूर्ण वर्षों ने कई ऐसे सवाल छोड़े हैं जिन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। इस अध्याय में हम पढ़ चुके हैं कि लोकतांत्रिक सरकार के रोजमर्रा के कामकाज और विभिन्न दलों और समूहों के निरंतर जारी राजनीतिक विरोध के बीच तनाव की स्थिति बनती है। ऐसे में दोनों के बीच एक सधा हुआ संतुलन क्या हो सकता है? क्या नागरिकों को विरोध की कार्रवाई में शामिल होने की पूरी आज़ादी होनी चाहिए अथवा उन्हें इसका कोई अधिकार ही नहीं होना चाहिए। ऐसे विरोध की सीमा क्या मानी जाए?

दूसरे, आपातकाल का वास्तविक क्रियान्वयन पुलिस और प्रशासन के ज़रिए हुआ। ये संस्थाएँ स्वतंत्र होकर काम नहीं कर पाईं। इन्हें शासक दल ने अपना राजनीतिक औज़ार बनाकर इस्तेमाल किया। शाह कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार पुलिस और प्रशासन राजनीतिक दबाव की चपेट में आ गए थे। यह समस्या आपातकाल के बाद भी खत्म नहीं हुई।

आपातकाल के बाद की राजनीति

जैसे ही आपातकाल खत्म हुआ और लोकसभा के चुनावों की घोषणा हुई, वैसे ही आपातकाल का सबसे ज़रूरी और कीमती सबक राजव्यवस्था ने सीख लिया। 1977 के चुनाव एक तरह से आपातकाल के अनुभवों के बारे में जनमत संग्रह थे। उत्तर भारत में तो खासतौर पर क्योंकि यहाँ आपातकाल का असर सबसे ज़्यादा महसूस किया गया था। विपक्ष ने 'लोकतंत्र बचाओ' के नारे पर चुनाव लड़ा। जनादेश निर्णायक तौर पर आपातकाल के विरुद्ध था। सबक एकदम साफ़ था और कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी स्थिति यही रही। जिन सरकारों को जनता ने लोकतंत्र-विरोधी माना उसे मतदाता के रूप में उसने भारी दंड दिया। इस अर्थ में देखें तो 1975-77 के अनुभवों की एक परिणति भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को पुख्ता बनाने में हुई।

लोकसभा के चुनाव-1977

18 महीने के आपातकाल के बाद 1977 के जनवरी माह में सरकार ने चुनाव कराने का फ़ैसला किया। इसी के मुताबिक सभी नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेल से रिहा कर दिया गया। 1977 के मार्च में चुनाव हुए। ऐसे में विपक्ष को चुनावी तैयारी का बड़ा कम समय मिला, लेकिन राजनीतिक बदलाव की गति बड़ी तेज़ थी। आपातकाल लागू होने के पहले ही बड़ी विपक्षी पार्टियाँ एक-दूसरे के नज़दीक आ रही थीं। चुनाव के ऐन पहले इन पार्टियों ने एकजुट होकर जनता पार्टी नाम से एक नया दल बनाया। नयी पार्टी ने जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व स्वीकार किया। कांग्रेस के कुछ नेता भी, जो आपातकाल के खिलाफ़ थे, इस पार्टी में शामिल हुए। कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं ने जगजीवन राम के नेतृत्व में एक नयी पार्टी बनाई। इस पार्टी का नाम 'कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी' था और बाद में यह पार्टी भी जनता पार्टी में शामिल हो गई।

1977 के चुनावों को जनता पार्टी ने आपातकाल के ऊपर जनमत संग्रह का रूप दिया। इस पार्टी ने चुनाव प्रचार में शासन के अलोकतांत्रिक चरित्र और आपातकाल के दौरान की गई ज़्यादतियों पर ज़ोर दिया। हज़ारों लोगों की गिरफ्तारी और प्रेस की सेंसरशिप की पृष्ठभूमि में जनमत कांग्रेस के विरुद्ध था। जनता पार्टी के गठन के कारण यह भी सुनिश्चित हो गया कि गैर-कांग्रेसी वोट एक ही जगह पड़ेंगे। बात बिलकुल साफ़ थी कि कांग्रेस के लिए अब बड़ी मुश्किल आ पड़ी थी।

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मोरारजी देसाई (1896-1995 ) : स्वतंत्रता सेनानी, गाँधीवादी नेता; खादी, प्राकृतिक चिकित्सा और निग्रह के प्रतिपादक; बॉम्बे प्रांत के मुख्यमंत्री; 1967-1969 के बीच उप-प्रधानमंत्री; पार्टी में टूट के बाद कांग्रेस (ओ) में शामिल; 1977-1979 तक एक गैर-कांग्रेसी दल की तरफ़ से प्रधानमंत्री रहे।

रे बाबा! इस आम आदमी से बच के रहना। अब वह अपने साथ कोई बदतमीज़ी बर्दाश्त नहीं कर सकता है।

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साभारः आर.के. लक्ष्मण, टाइम्स ऑफ इंडिया, 29 मार्च 1977

देखिए कि एक कार्टूनिस्ट ने 1977 के चुनावों में हारने और जीतने वालों को किस तरह देखा है! आम आदमी के साथ खड़े हुए लोगों में जगजीवन राम, मोरारजी देसाई, चरण सिंह और अटलबिहारी वाजपेयी को दिखाया गया है।

लेकिन चुनाव के अंतिम नतीजों ने सबको चौंका दिया। आज़ादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हार गई। कांग्रेस को लोकसभा की मात्र 154 सीटें मिली थीं। उसे 35 प्रतिशत से भी कम वोट हासिल हए। जनता पार्टी और उसके साथी दलों को लोकसभा की कुल 542 सीटों में से 330 सीटें मिलीं। खुद जनता पार्टी अकेले 295 सीटों पर जीत गई थी और उसे स्पष्ट बहुमत मिला था। उत्तर भारत में चुनावी माहौल कांग्रेस के एकदम खिलाफ़ था। कांग्रेस बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में एक भी सीट न पा सकी। राजस्थान और मध्य प्रदेश में उसे महज एक-एक सीट मिली। इंदिरा गाँधी रायबरेली से और उनके पुत्र संजय गाँधी अमेठी से चुनाव हार गए।

बहरहाल अगर आप चुनावी नतीजों के नक्शे पर नज़र दौड़ाएँ, तो पाएंगे कि कांग्रेस देश में हर जगह चुनाव नहीं हारी थी। महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा में उसने कई सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा था और दक्षिण भारत के राज्यों में तो एक तरह से उसकी चुनावी विजय का चक्का बेरोक-टोक चला था। इसके कई कारण रहे। पहली बात तो यह थी कि आपातकाल का प्रभाव हर राज्य पर एकसमान नहीं पड़ा था। लोगों को जबरन उजाड़ने और विस्थापित करने अथवा ज़बरन नसबंदी करने का काम ज़्यादातर उत्तर भारत के राज्यों में हुआ था, लेकिन इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उत्तर भारत में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की प्रकृति में दूरगामी बदलाव आए थे। उत्तर भारत का मध्यवर्ग कांग्रेस से दूर जाने लगा था

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1977 में बनी गैर-कांग्रेसी सरकार का शपथ ग्रहण समारोह। चित्र में जयप्रकाश नारायण, जे. बी. कृपलानी, मोरारजी देसाई और अटलबिहारी वाजपेयी बैठे हुए नज़र आ रहे हैं।

लोकसभा चुनाव परिणाम

जनता पार्टी (बी.एल.डी.)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई.एन.सी.)

वामदल

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अन्य

नोट: यह नक्शा किसी पैमाने के हिसाब से बनाया गया भारत का मानचित्र नहीं है। इसमें दिखाई गई भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को प्रामाणिक सीमा रेखा न माना जाए।

स्रोतः भारत का चुनाव आयोग

इस मानचित्र में उन जगहों को चिह्नित करें, जहाँ

- कांग्रेस हारी

- कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई

- ऐसे राज्य जहाँ कांग्रेस और उसके साथी दलों को भारी विजय मिली।


अगर उत्तर और दक्षिण के राज्यों में मतदाताओं ने इतने अलग ढर्रे पर मतदान किया, तो हम कैसे कहें कि 1977 के चुनावों का जनादेश क्या था?

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चौधरी चरण सिंह (1902-1987): जुलाई 1979 से जनवरी 1980 के बीच भारत के प्रधानमंत्री; स्वतंत्रता सेनानी; उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रियः ग्रामीण एवं कृषि विकास के समर्थक कांग्रेस छोड़ी और 1967 में भारतीय क्रांति दल का गठन उत्तर प्रदेश में दो बार मुख्यमंत्री; बाद में 1977 में जनता पार्टी के संस्थापको में से एक, उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री (1977-79); लोकदल के संस्थापक।



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THAT'S A LIE. EVERYBODY KNOWS WE ALL WORKED FOR TWO YEARS AND BROUGHT IT DOWN

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BY ALL MEANS, LET'S GET UNDER ONE UMBRELLA , BUT LET ME DO IT FIRST!

मैं समझ गया! आपातकाल एक तरह से तानाशाही निरोधक टीका था। इसमें दर्द हआ और बुखार भी आया, सासर में आया लेकिन अंततः हमारे लोकतंत्र के भीतर क्षमता बढ़ी।

जनता पार्टी की गुटबाजी पर बहुत-से कार्टून बने। उसकी कुछ बानगी यहाँ आप भी देखें। ये कार्टून अंग्रेज़ी भाषा के अखबार और पत्रिकाओं में छपे।

और मध्यवर्ग के कई तबके जनता पार्टी को एक मंच के रूप में पाकर इससे आ जुड़े। इस अर्थ में देखें, तो 1977 के चुनाव सिर्फ़ आपातकाल की कथा नहीं कहते हैं, बल्कि इसके आगे की भी कुछ बातों का संकेत करते हैं।

जनता सरकार

1977 के चुनावों के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार में कोई खास तालमेल नहीं था। चुनाव के बाद नेताओं के बीच प्रधानमंत्री के पद के लिए होड़ मची। इस होड़ में मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम शामिल थे। मोरारजी देसाई 1966-67 से ही इंदिरा गाँधी के प्रतिद्वंद्वी थे। चरण सिंह, भारतीय लोकदल के प्रमुख और उत्तर प्रदेश के किसान नेता थे। जगजीवन राम को कांग्रेसी सरकारों में मंत्री पद पर रहने का विशाल अनुभव था। बहरहाल मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने, लेकिन इससे जनता पार्टी के भीतर सत्ता की खींचतान खत्म न हुई।

आपातकाल का विरोध जनता पार्टी को कुछ ही दिनों के लिए एकजुट रख सका। इस पार्टी के आलोचकों ने कहा कि जनता पार्टी के पास किसी दिशा, नेतृत्व अथवा एक साझे कार्यक्रम का अभाव था। जनता पार्टी की सरकार कांग्रेस द्वारा अपनाई गई नीतियों में कोई बुनियादी बदलाव नहीं ला सकी। जनता पार्टी बिखर गई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार ने 18 माह में ही अपना बहुमत खो दिया। कांग्रेस पार्टी के समर्थन पर दूसरी सरकार चरण सिंह के नेतृत्व में बनी। लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस लेने का फैसला किया। इस वजह से चरण सिंह की सरकार मात्र चार महीने तक सत्ता में रही। 1980 के जनवरी में लोकसभा के लिए नए सिरे से चुनाव हुए। इस चुनाव में जनता पार्टी बुरी तरह परास्त हुई। जनता पार्टी को उत्तर भारत में करारी शिकस्त मिली, जबकि 1977 के चुनाव में उत्तर भारत में इस पार्टी को ज़बरदस्त सफलता मिली थी। इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने 1980 के चुनाव में एक बार फिर 1971 के चुनावों वाली कहानी दुहराते हुए भारी सफलता हासिल की। कांग्रेस पार्टी को 353 सीटें मिलीं और वह सत्ता में आई। 1977-79 के चुनावों ने लोकतांत्रिक राजनीति का एक और सबक सिखाया-सरकार अगर अस्थिर हो और उसके भीतर कलह हो, तो मतदाता ऐसी सरकार को कड़ा दंड देते हैं।

विरासत

लेकिन क्या 1980 के चुनाव में सिर्फ इंदिरा गाँधी की वापसी हुई थी? क्या मामला इतना भर था? 1977 और 1980 के चुनावों के बीच दलगत प्रणाली में नाटकीय बदलाव आए। 1969 के बाद से कांग्रेस का सबको समाहित करके चलने वाला स्वभाव बदलना शुरू हुआ। 1969 से पहले तक कांग्रेस विविध विचारधारात्मक गति-मति के नेताओं और कार्यकर्ताओं को एक में समेटकर चलती थी। अपने बदले हुए स्वभाव में कांग्रेस ने स्वयं को विशेष विचारधारा से जोड़ा। उसने अपने को देश की एकमात्र समाजवादी और गरीबों की हिमायती पार्टी बताना शुरू किया। इस तरह 1970 के दशक के शुरुआती सालों से कांग्रेस की सफलता इस बात पर निर्भर रही कि वह गहरे सामाजिक और विचारधारात्मक विभाजन के आधार पर लोगों को अपनी तरफ कितना खींच पाती है। इसके साथ-साथ

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जगजीवन राम

(1908-1986): स्वतंत्रता सेनानी एवं बिहार के कांग्रेसी नेता; 1977-79 के बीच भारत के उप-प्रधानमंत्री; संविधान सभा के सदस्य 1952 से मृत्युपर्यंत सांसद; स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में श्रम मंत्री; 1952 से 1977 के बीच अनेक मंत्रालयों की जिम्मेदारी; विद्वान और कुशल प्रशासक।


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मैदान साफ!

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यह कार्टून 1980 के चुनावों के बाद छपा था।

यह पार्टी अब एक नेता यानी इंदिरा गाँधी की लोकप्रियता पर भी निर्भर हुई। कांग्रेस की प्रकृति में आए बदलावों के मद्देनजर अन्य विपक्षी दल 'गैर-कांग्रेसवाद' की राजनीति की तरफ़ मुड़े। विपक्ष के नेताओं को अब यह बात साफ़-साफ़ नज़र आने लगी कि चुनावों में गैर-कांग्रेसी वोट बिखरने नहीं चाहिए। इस चीज़ ने 1977 के चुनावों में एक बड़ी भूमिका निभाई।

अप्रत्यक्ष रूप से 1977 के बाद पिछड़े वर्गों की भलाई का मुद्दा भारतीय राजनीति पर हावी होना शुरू हुआ। हमने ऊपर गौर किया था कि 1977 के चुनाव परिणामों पर पिछड़ी जातियों के मतदान का असर पड़ा था, खासकर उत्तर भारत में। लोकसभा के चुनावों के बाद, 1977 में कई राज्यों में विधानसभा के भी चुनाव हुए। इसमें भी उत्तर भारत के राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। इन सरकारों के बनने में पिछड़ी जाति के नेताओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिहार में 'अन्य पिछड़ी जातियों' के आरक्षण के सवाल पर बहुत शोर मचा। इसके बाद केंद्र की जनता पार्टी की सरकार ने मंडल आयोग नियुक्त किया। इस आयोग और पिछड़ी जातियों की राजनीति की भूमिका के बारे में ज्यादा विस्तार से आप अंतिम अध्याय में पढ़ेंगे। आपातकाल के बाद हुए चुनावों ने दलीय व्यवस्था के भीतर इस बदलाव की प्रक्रिया शुरू कर दी।

आपातकाल और इसके आसपास की अवधि को हम संवैधानिक संकट की अवधि के रूप में भी देख सकते हैं। संसद और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को लेकर छिड़ा संवैधानिक संघर्ष भी आपातकाल के मूल में था। दूसरी तरफ़ यह राजनीतिक संकट का भी दौर था। सत्ताधारी पार्टी के पास पूर्ण बहुमत था। फिर भी, इसके नेतृत्व ने लोकतंत्र को ठप्प करने का फैसला किया। भारतीय संविधान के निर्माताओं को विश्वास था कि सभी राजनीतिक दल लोकतांत्रिक मानकों का पालन करेंगे। उन्हें यह भी विश्वास था कि आपातकाल की स्थिति में भी सरकार अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल विधि के शासन के दायरे में रहते हुए ही करेगी। इसी उम्मीद में सरकार को आपातकाल से जुड़े प्रावधानों के अंतर्गत व्यापक और चहुँमुखी शक्तियाँ दे दी गईं। इन शक्तियों का आपातकाल के दौरान दुरुपयोग हुआ। यह राजनीतिक संकट तत्कालीन संवैधानिक संकट से कहीं ज़्यादा संगीन था।

इस दौर में एक और महत्वपूर्ण मसला संसदीय लोकतंत्र में जन आंदोलन की भूमिका और उसकी सीमा को लेकर उठा। स्पष्ट ही इस दौर में संस्था आधारित लोकतंत्र और स्वत:स्फूर्त जन-भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र में तनाव नजर आया। इस तनाव का एक कारण यह भी कहा जा सकता है कि हमारी दलीय प्रणाली जनता की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम साबित नहीं हुई। आगे के दो अध्यायों में हम इस तनाव की कुछ अभिव्यक्तियों को समझने की कोशिश करेंगे। इन अध्यायों में हम विशेष रूप से जन आंदोलन और क्षेत्रीय पहचान से जुड़़ी बहसों के बारे में पढ़ेंगे।

हजारों ख्‍वाहिशें ऐसी

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सिद्धार्थ, विक्रम और गीता मेधावी और सामाजिक सरोकार वाले छात्र हैं। दिल्ली में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद तीनों अलग-अलग राह पर निकल पड़ते हैं। सिद्धार्थ सामाजिक बदलाव के लिए क्रांतिकारी विचारधारा का हिमायती है। विक्रम की दलील ज़‍िदगी में कामयाबी हासिल करने की है, चाहे इसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़े। अपनी जिंदगी के मकसद को हासिल करने निकले इन लोगों के सुख-दुख के इर्द-गिर्द यह कहानी चलती है।

फ़िल्म की पृष्ठभूमि सत्तर के दशक की है। इस फ़िल्म के युवा चरित्र उस दौर की अपेक्षाओं और आदर्शवाद की उपज हैं। सिद्धांत क्रांति के अपने मकसद में सफल नहीं होता है, लेकिन वह गरीबों के दुख-दर्द इस तरह अपना चुका है कि उसे क्रांति की जगह ऐसे लोगों की हालत में थोड़ी बेहतरी ला पाना भी अच्छा लगने लगता है। दूसरी तरफ़, विक्रम एक आमफहम राजनीतिक तिकड़मबाज बन जाता है। लेकिन अपने इस काम को लेकर उसका मन कचोटता रहता है।

वर्ष : 2005 निर्देशक : सुधीर मिश्र

पटकथा : रुचि नारायण, शिव कुमार, सुब्रह्मण्यम

अभिनय : के.के. मेनन, शाइनी आहूजा, चित्रांगदा सिंह


1. बताएँ कि आपातकाल के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत

(क) आपातकाल की घोषणा 1975 में इंदिरा गाँधी ने की।

(ख) आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निष्क्रिय हो गए।

(ग) बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र आपातकाल की घोषणा की गई थी।

(घ) आपातकाल के दौरान विपक्ष के अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

(ङ) सी.पी.आई. ने आपातकाल की घोषणा का समर्थन किया।

2. निम्नलिखित में से कौन-सा आपातकाल की घोषणा के संदर्भ से मेल नहीं खाता है:

(क) 'संपूर्ण क्रांति' का आह्वान

(ख) 1974 की रेल-हड़ताल

(ग) नक्सलवादी आंदोलन

(घ) इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला

(ङ) शाह आयोग की रिपोर्ट के निष्कर्ष

प्रश्नावली

3. निम्नलिखित में मेल बैठाएँ

(क) संपूर्ण क्रांति

(i) इंदिरा गाँधी

(ख) गरीबी हटाओ

(ii) जयप्रकाश नारायण

(ग) छात्र आंदोलन

(iii) बिहार आंदोलन

(घ) रेल हड़ताल

(iv) जॉर्ज फर्नांडिस

4. किन कारणों से 1980 में मध्यावधि चुनाव करवाने पड़े?

5. जनता पार्टी ने 1977 में शाह आयोग को नियुक्त किया था। इस आयोग की नियुक्ति क्यों की गई थी और इसके क्या निष्कर्ष थे?

6. 1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करते हुए सरकार ने इसके क्या कारण

बताए थे?

7. 1977 के चुनावों के बाद पहली दफा केंद्र में विपक्षी दल की सरकार बनी। ऐसा किन कारणों से संभव हुआ?

8. हमारी राजव्यवस्था के निम्नलिखित पक्ष पर आपातकाल का क्या असर हुआ?

• नागरिक अधिकारों की दशा और नागरिकों पर इसका असर
• कार्यपालिका और न्यायपालिका के संबंध
• जनसंचार माध्यमों के कामकाज
• पुलिस और नौकरशाही की कार्रवाइयाँ

9. भारत की दलीय प्रणाली पर आपातकाल का किस तरह असर हुआ? अपने उत्तर की पुष्टि उदाहरणों से करें।

10. निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें

1977 के चुनावों के दौरान भारतीय लोकतंत्र, दो-दलीय व्यवस्था के जितना नज़दीक आ गया था उतना पहले कभी नहीं आया। बहरहाल अगले कुछ सालों में मामला पूरी तरह बदल गया। हारने के तुरंत बाद कांग्रेस दो टुकड़ों में बँट गई..... जनता पार्टी में भी बड़ी अफरा-तफरी मची.........डेविड बटलर, अशोक लाहिड़ी और प्रणव रॉय

पार्था चटर्जी

(क) किन वज़हों से 1977 में भारत की राजनीति दो-दलीय प्रणाली के समान जान पड़ रही थी?

(ख) 1977 में दो से ज़्यादा पार्टियाँ अस्तित्व में थीं। इसके बावजूद लेखकगण इस दौर को दो-दलीय प्रणाली के नज़दीक क्यों बता रहे हैं?

(ग) कांग्रेस और जनता पार्टी में किन कारणों से टूट पैदा हुई?