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चिकित्सा उपागम






इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप

  • मनश्चिकित्सा की मूल प्रकृति एवं प्रक्रिया से परिचित हो सकेंगे,
  • इसका गुणविवेचन कर सकेंगे कि लोगों की सहायता के लिए विभिन्न प्रकार की चिकित्सा होती है,
  • अंतःक्षेप के मनोवैज्ञानिक रूपों के उपयोग को समझ सकेंगे, तथा मानसिक विकार से ग्रसित लोगों को किस प्रकार पुनःस्थापित किया जा सकता है को जान सकेंगे।


विषयवस्तु

मनश्चिकित्सा की प्रकृति एवं प्रक्रिया

चिकित्सात्मक संबंध

चिकित्सा के प्रकार

सेवार्थी के समस्या-निरूपण में अंतर्निहित चरण (बॉक्स 5.1)

मनोगतिक चिकित्सा

व्यवहार चिकित्सा

विश्रांति की विधियाँ (बॉक्स 5.2)

संज्ञानात्मक चिकित्सा

मानवतावादी-अस्तित्वपरक चिकित्सा

जैव-आयुर्विज्ञान चिकित्सा

वैकल्पिक चिकित्सा

मानसिक रोगियों का पुनःस्थापन 


प्रमुख पद
सारांश
समीक्षात्मक प्रश्न
परियोजना विचार
वेबलिंक्स
शैक्षिक संकेत


परिचय

इसके पूर्ववर्ती अध्याय में आप प्रमुख मनोवैज्ञानिक विकारों और उनके द्वारा रोगी एवं अन्य दूसरे लोगों को होने वाले कष्टों के बारे में पढ़ चुके हैं। इस अध्याय में आप रोगी की सहायता के लिए मनश्चिकित्सकों द्वारा प्रयुक्त विभिन्न चिकित्सापरक विधियों के बारे में जानेंगे। मनश्चिकित्सा कई प्रकार की होती है। कुछ चिकित्सा आत्म-अवगाहन प्राप्त करने पर ध्यान देती है; अन्य दूसरी चिकित्सा अपेक्षाकृत अधिक क्रिया-अभिविन्यस्त होती है। रोगी को अपनी कमज़ोर होती हुई स्थिति से उबरने में किस प्रकार मदद की जाए, सभी उपागम इसी मूल विषय पर टिके हैं। किसी रोगी के लिए एक चिकित्सा उपागम की प्रभाविता कई कारकों पर निर्भर करती है, जैसे - विकार की गंभीरता, दूसरों के द्वारा अनुभव किया जाने वाला कष्ट तथा समय, प्रयास और धन की उपलब्धता इत्यादि।

सभी चिकित्सा उपागमों की प्रकृति सहायता करने वाली और सुधार करने वाली होती है। सभी उपागमों में चिकित्सक और रोगी या सेवार्थी के बीच में अंतर्वैयक्तिक संबंध होता है। कुछ की प्रकृति निदेशात्मक होती है, जैसे - मनोगतिक जबकि कुछ की अनिदेशात्मक, जैसे - व्यक्ति-केंद्रित चिकित्सा। इस अध्याय में हम मनश्चिकित्सा के कुछ प्रमुख रूपों की संक्षेप में चर्चा करेंगे।


मनश्चिकित्सा की प्रकृति एवं प्रक्रिया

मनश्चिकित्सा उपचार चाहने वाले या सेवार्थी तथा उपचार करने वाले या चिकित्सक के बीच में एक एेच्छिक संबंध है। इस संबंध का उद्देश्य उन मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान करना होता है जिनका सामना सेवार्थी द्वारा किया जा रहा हो। यह संबंध सेवार्थी के विश्वास को बनाने में सहायक होता है जिससे वह अपनी समस्याओं के बारे में मुक्त होकर चर्चा कर सके। मनश्चिकित्सा का उद्देश्य दुरनुकूलक व्यवहारों को बदलना, वैयक्तिक कष्ट की भावना को कम करना तथा रोगी को अपने पर्यावरण से बेहतर ढंग से अनुकूलन करने में मदद करना है। अपर्याप्त वैवाहिक, व्यावसायिक तथा सामाजिक समायोजन की यह आवश्यकता होती है कि व्यक्ति के वैयक्तिक पर्यावरण में परिवर्तन किए जाएँ।

सभी मनश्चिकित्सात्मक उपागमों में निम्न अभिलक्षण पाए जाते हैं - (1) चिकित्सा के विभिन्न सिद्धांतों में अंतर्निहित नियमों का व्यवस्थित या क्रमबद्ध अनुप्रयोग होता है, (2) केवल वे व्यक्ति, जिन्होंने कुशल पर्यवेक्षण में व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया हो, मनश्चिकित्सा कर सकते हैं, हर कोई नहीं। एक अप्रशिक्षित व्यक्ति अनजाने में लाभ के बजाय हानि अधिक पहुँचा सकता है, (3) चिकित्सात्मक स्थितियों में एक चिकित्सक और एक सेवार्थी होता है जो अपनी संवेगात्मक समस्याओं के लिए सहायता चाहता है और प्राप्त करता है (चिकित्सात्मक प्रक्रिया में यही व्यक्ति ध्यान का मुख्य केंद्र होता है) तथा (4) इन दोनों व्यक्तियों, चिकित्सक एवं सेवार्थी, के बीच की अंतःक्रिया के परिणामस्वरूप एक चिकित्सात्मक संबंध का निर्माण एवं उसका सुदृढ़ीकरण होता है। यह एक गोपनीय, अंतर्वैयक्तिक एवं गत्यात्मक संबंध होता है। यही मानवीय संबंध किसी भी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा का केंद्र होता है तथा यही परिवर्तन का माध्यम बनता है।

सभी मनश्चिकित्साओं के उद्देश्य निम्नलिखित लक्ष्यों में कुछ या सब होते हैं -

(1) सेवार्थी के सुधार के संकल्प को प्रबलित करना।

(2) संवेगात्मक दबाव को कम करना।

(3) सकारात्मक विकास के लिए संभाव्यताओं को प्रकट करना।

(4) आदतों में संशोधन करना।

(5) चिंतन के प्रतिरूपों में परिवर्तन करना

(5) आत्म-जागरूकता को बढ़ाना।

(6) अंतर्वैयक्तिक संबंधों एवं संप्रेषण में सुधार करना।

(7) निर्णयन को सुकर बनाना।

(8) जीवन में अपने विकल्पों के प्रति जागरूक होना।

(9) अपने सामाजिक पर्यावरण से एक सर्जनात्मक एवं आत्म-जागरूक तरीके से संबंधित होना।


चिकित्सात्मक संबंध

सेवार्थी एवं चिकित्सक के बीच एक विशेष संबंध को चिकित्सात्मक संबंध या चिकित्सात्मक मैत्री कहा जाता है। यह न तो एक क्षणिक परिचय होता है और न ही एक स्थायी एवं टिकाऊ संबंध। इस चिकित्सात्मक मैत्री के दो मुख्य घटक होते हैं। पहला घटक इस संबंध की संविदात्मक प्रकृति है, जिसमें दो इच्छुक व्यक्ति, सेवार्थी एवं चिकित्सक, एक एेसी साझेदारी या भागीदारी में प्रवेश करते हैं जिसका उद्देश्य सेवार्थी की समस्याओं का निराकरण करने में उसकी मदद करना होता है। चिकित्सात्मक मैत्री का दूसरा घटक है - चिकित्सा की सीमित अवधि। यह मैत्री तब तक चलती है जब तक सेवार्थी अपनी समस्याओं का सामना करने में समर्थ न हो जाए तथा अपने जीवन का नियंत्रण अपने हाथ में न ले ले। इस संबंध की कई अनूठी विशिष्टताएँ हैं। यह एक विश्वास तथा भरोसे पर आधारित संबंध है। उच्चस्तरीय विश्वास सेवार्थी को चिकित्सक के सामने अपना बोझ हलका करने तथा उसके सामने अपनी मनोवैज्ञानिक और व्यक्तिगत समस्याओं को विश्वस्त रूप से बतलाने में समर्थ बनाता है। चिकित्सक सेवार्थी के प्रति अपनी स्वीकृति, तदनुभूति, सच्चाई और गर्मजोशी दिखाकर इसे बढ़ावा देता है। चिकित्सक अपने शब्दों और व्यवहारों से यह संप्रेषित करता है कि वह सेवार्थी का मूल्यांकन नहीं कर रहा है तथा वह सेवार्थी के प्रति अपनी इन सकारात्मक भावनाओं को दिखाता रहेगा चाहे सेवार्थी उसके प्रति अशिष्ट व्यवहार क्यों न करे या पूर्व में की गई या सोची गई ‘गलत’ बातों को क्यों न बतलाएं। यह अशर्त सकारात्मक आदर (unconditional positive regard) की भावना है जो चिकित्सक की सेवार्थी के प्रति होती है। चिकित्सक की सेवार्थी के प्रति तदनुभूति होती है। तदनुभूति (empathy) सहानुभूति (sympathy) तथा किसी दूसरे व्यक्ति की स्थिति की बौद्धिक समझ से भिन्न होती है। सहानुभूति में व्यक्ति को दूसरे के कष्ट के प्रति दया और करुणा तो होती है किंतु दूसरे व्यक्ति की तरह वह अनुभव नहीं कर सकता। बौद्धिक समझ भावशून्य इस आशय से होती है कि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की तरह अनुभव कर पाने में असमर्थ होता है और न ही वह सहानुभूति का अनुभव कर पाता है। इसके विपरीत तदनुभूति में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की दुर्दशा को समझ सकता है तथा उसी की तरह अनुभव कर सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि दूसरे व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से या उसके स्थान पर स्वयं को रखकर बातों को समझना। तदनुभूति चिकित्सात्मक संबंध को समृद्ध बनाती है तथा इसे एक स्वास्थ्यकर संबंध में परिवर्तित करती है।

चिकित्सात्मक मैत्री के लिए यह भी आवश्यक है कि चिकित्सक सेवार्थी द्वारा अभिव्यक्त किए गए अनुभवों, घटनाओं, भावनाओं तथा विचारों के प्रति नियमबद्ध गोपनीयता का अवश्य पालन करे। चिकित्सक को सेवार्थी के विश्वास और भरोसे का किसी भी प्रकार से कभी भी अनुचित लाभ नहीं उठाना चाहिए। अंततः, यह एक व्यावसायिक संबंध है और इसे एेसा ही रहना चाहिए।


क्रियाकलाप 5.1

हो सकता है कि आपके किसी सहपाठी या मित्र या किसी दूरदर्शन धारावाहिक के आपके मनपसंद पात्र ने हाल ही में जीवन की एक नकारात्मक या अभिघातज घटना का अनुभव किया हो (उदाहरणार्थ किसी प्रिय की मृत्यु, किसी महत्वपूर्ण संबंध या मित्रता का टूटना) जिसे आप जानते हैं। अपने को दूसरे के स्थान पर रखकर यह जानने का प्रयास कीजिए कि वह व्यक्ति कैसा अनुभव कर रहा है, वह क्या सोच रहा है तथा पूरी स्थिति के प्रति उसके परिप्रेक्ष्य को जानने का प्रयास कीजिए। इससे आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि वह व्यक्ति कैसा अनुभव कर रहा है।

(नोट - यह अभ्यास कक्षा में किया जाना चाहिए जिससे किसी कष्टप्रद अनुभव से उबरने में अध्यापक विद्यार्थी की मदद कर सके)।


चिकित्सा के प्रकार

यद्यपि सभी मनश्चिकित्साओं का उद्देश्य मानव कष्टों का निराकरण तथा प्रभावी व्यवहार को बढ़ावा देना होता है तथापि वे संप्रत्ययों, विधियों और तकनीक में एक-दूसरे से बहुत भिन्न होते हैं। मनश्चिकित्सा को तीन व्यापक समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे कि मनोगतिक, व्यवहार तथा अस्तित्वपरक मनश्चिकित्साएँ। कालानुक्रम रूप से मनोगतिक चिकित्सा का आविर्भाव पहले हुआ, तत्पश्चात व्यवहार चिकित्सा जबकि अस्तित्वपरक चिकित्साओं जिन्हें तीसरी शक्ति भी कहा जाता है का आविर्भाव सबसे अंत में हुआ। मनश्चिकित्सा का यह वर्गीकरण निम्न प्राचलों (parameters) पर आधारित है -

1. क्या कारण है, जिसने समस्या को उत्पन्न किया?

मनोगतिक चिकित्सा के अनुसार अंतःमनोद्वंद्व, अर्थात व्यक्ति के मानस में विद्यमान द्वंद्व, मनोवैज्ञानिक समस्याओं का स्रोत होते हैं। व्यवहार चिकित्सा के अनुसार मनोवैज्ञानिक समस्याएँ व्यवहार एवं संज्ञान के दोषपूर्ण अधिगम के कारण उत्पन्न होती हैं। अस्तित्वपरक चिकित्सा की अभिधारणा है कि अपने जीवन और अस्तित्व के अर्थ से संबंधित प्रश्न मनोवैज्ञानिक समस्याओं का कारण होते हैं।

2. कारण का प्रादुर्भाव कैसे हुआ?

मनोगतिक चिकित्सा में बाल्यावस्था की अतृप्त इच्छाएँ तथा बाल्यावस्था के अनसुलझे भय अंतःमनोद्वंद्व को उत्पन्न करते हैं। व्यवहार चिकित्सा की अभिधारणा है कि दोषपूर्ण अनुबंधन प्रतिरूप, दोषपूर्ण अधिगम तथा दोषपूर्ण चिंतन एवं विश्वास दुरनुकूलक व्यवहारों को उत्पन्न करते हैं जो बाद में मनोवैज्ञानिक समस्याओं का कारण बनते हैं। अस्तित्वपरक चिकित्सा वर्तमान को महत्त्व देती है। यह व्यक्ति के अकेलेपन, विसंबंधन (alienation), अपने अस्तित्व की व्यर्थता के बोध इत्यादि से जुड़ी वर्तमान भावनाएँ हैं जो मनोवैज्ञानिक समस्याओं का कारण हैं।

3. उपचार की मुख्य विधि क्या है?

मनोगतिक चिकित्सा मुक्त साहचर्य विधि और स्वप्न को बताने की विधि का उपयोग सेवार्थी की भावनाओं और विचारों को प्राप्त करने के लिए करती है। इस सामग्री की व्याख्या सेवार्थी के समक्ष की जाती है ताकि इसकी मदद से वह अपने द्वंद्वों का सामना और समाधान कर अपनी समस्याओं पर विजय पा सके। व्यवहार चिकित्सा दोषपूर्ण अनुबंधन प्रतिरूप की पहचान कर वैकल्पिक व्यवहारात्मक प्रासंगिकता (behavioural contin-gencies) नियत करती है जिससे व्यवहार में सुधार हो सके। इस प्रकार की चिकित्सा में प्रयुक्त संज्ञानात्मक विधियाँ सेवार्थी के दोषपूर्ण चिंतन प्रतिरूप को चुनौती देकर उसे अपने मनोवैज्ञानिक कष्टों पर विजय पाने में मदद करती हैं। अस्तित्वपरक चिकित्सा एक चिकित्सात्मक पर्यावरण प्रदान करती है जो सकारात्मक, स्वीकारात्मक तथा अनिर्णयात्मक होता है। सेवार्थी अपनी समस्याओं के बारे में बात कर सकता है तथा चिकित्सक एक सुकरकर्त्ता की तरह कार्य करता है। सेवार्थी व्यक्तिगत संवृद्धि की प्रक्रिया के माध्यम से समाधान तक पहुँचता है।

4. सेवार्थी और चिकित्सक के बीच चिकित्सात्मक संबंध की प्रकृति क्या होती है?

मनोगतिक चिकित्सा का मानना है कि चिकित्सक सेवार्थी की अपेक्षा उसके अंतःमनोद्वंद्व को ज़्यादा अच्छी तरह समझता है इसलिए वह (चिकित्सक) सेवार्थी के विचारों और भावनाओं की व्याख्या उसके लिए करता है जिससे वह (सेवार्थी) उनको समझ सके। व्यवहार चिकित्सा का मानना है कि चिकित्सक सेवार्थी के दोषपूर्ण व्यवहार और विचारों के प्रतिरूपों को पहचानने में समर्थ होता है। इसके आगे व्यवहार चिकित्सा का यह भी मानना है कि चिकित्सक उचित व्यवहार और विचारों के प्रतिरूपों को जानने में समर्थ होता है जो सेवार्थी के लिए अनुकूली होगा। मनोगतिक और व्यवहार चिकित्सा दोनों का मानना है कि चिकित्सक सेवार्थी की समस्याओं के समाधान तक पहुँचने में समर्थ होते हैं। इन चिकित्साओं के विपरीत अस्तित्वपरक चिकित्सा इस बात पर बल देती है कि चिकित्सक केवल एक गर्मजोशी भरा और तदनुभूतिक संबंध प्रदान करता है, जिसमें सेवार्थी अपनी समस्याओं की प्रकृति और कारण स्वयं अन्वेषण करने में सुरक्षित महसूस करता है।

5. सेवार्थी को मुख्य लाभ क्या है?

मनोगतिक चिकित्सा संवेगात्मक अंतर्दृष्टि को महत्वपूर्ण लाभ मानती है जो सेवार्थी उपचार के द्वारा प्राप्त करता है। संवेगात्मक अंतर्दृष्टि तब उपस्थित मानी जाती है जब सेवार्थी अपने द्वंद्वों को बौद्धिक रूप से समझता है; द्वंद्वों को संवेगात्मक रूप से स्वीकार करने में समर्थ होता है और द्वंद्वों की ओर अपने संवेगों को परिवर्तित करने में समर्थ होता है। इस संवेगात्मक अंतर्दृष्टि के परिणामस्वरूप सेवार्थी के लक्षण दूर होते हैं तथा कष्ट कम हो जाते हैं। व्यवहार चिकित्सा दोषपूर्ण व्यवहार और विचारों के प्रतिरूपों को अनुकूली प्रतिरूपों में बदलने को उपचार का मुख्य लाभ मानती है। अनुकूली या स्वस्थ व्यवहार और विचारों के प्रतिरूपों को स्थापित करने से कष्ट में कमी तथा लक्षणों का दूर होना सुनिश्चित होता है। मानवतावादी चिकित्सा व्यक्तिगत संवृद्धि को मुख्य लाभ मानती है। व्यक्तिगत संवृद्धि अपने बारे में और अपनी आकांक्षाओं, संवेगों तथा अभिप्रेरकों के बारे में बढ़ती समझ प्राप्त करने की प्रक्रिया है।


सेवार्थी के समस्या-निरूपण में अंतर्निहित चरण

नैदानिक निरूपण का संबंध उपचार के लिए प्रयुक्त चिकित्सात्मक मॉडल के अनुरूप सेवार्थी की समस्या के निरूपण से है। नैदानिक निरूपण के निम्न लाभ हैं -

1. समस्या की समझ - चिकित्सक सेवार्थी द्वारा अनुभव किए जा रहे कष्टों के निहितार्थों को समझने में समर्थ होता है।

2. मनश्चिकित्सा में उपचार हेतु लक्ष्य क्षेत्रों की पहचान - सैद्धांतिक निरूपण में चिकित्सा के लिए समस्या के लक्ष्य-क्षेत्रों की स्पष्ट रूप से पहचान की जाती है। अतः यदि कोई सेवार्थी किसी नौकरी पर बने रहने में असमर्थता के लिए मदद चाहता है और अपने उच्च अधिकारियों का सामना करने में असमर्थता अभिव्यक्त करता है तो व्यवहार चिकित्सा में नैदानिक निरूपण इसे दुशि्ंचता तथा आग्रहिता कौशलों में कमी बताएगा। अतः लक्ष्य-क्षेत्र अपने आपको निश्चयात्मक रूप से व्यक्त करने में असमर्थता तथा बढ़ी हुई दुशि्ंचता के रूप में पहचाने गए।

3. उपचार के लिए तकनीक का वरण या चुनाव - उपचार के लिए तकनीक का चुनाव इस बात पर निर्भर करता है कि चिकित्सक किस प्रकार की चिकित्सात्मक व्यवस्था में प्रशिक्षित है। यद्यपि इस व्यापक क्षेत्र में भी तकनीक का चुनाव, तकनीक का समय निर्धारण, और चिकित्सा के परिणाम से प्रत्याशाएँ नैदानिक निरूपण पर निर्भर करते हैं।

नैदानिक निरूपण एक सतत प्रक्रिया है। निरूपण में पुनः निरूपण की आवश्यकता हो सकती है क्योंकि चिकित्सा की प्रक्रिया में कुछ नैदानिक अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। सामान्यतः पहले एक या दो सत्रों में प्रारंभिक नैदानिक निरूपण के लिए काप.ηी नैदानिक सामग्री प्राप्त हो जाती है। बिना नैदानिक निरूपण के मनश्चिकित्सा आरंभ करना उपयुक्त नहीं होता है।

बॉक्स 5.

6. उपचार की अवधि क्या है?

क्लासिकी मनोविश्लेषण की अवधि कई वर्षों तक की हो सकती है। हालाँकि मनोगतिक चिकित्सा के कई आधुनिक रूपांतर 10–15 सत्रों में पूरे हो जाते हैं। व्यवहार और संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा तथा अस्तित्वपरक चिकित्सा संक्षिप्त होती हैं तथा कुछ महीनों में ही पूरी हो जाती हैं।

इस प्रकार विभिन्न प्रकार की मनश्चिकित्सा बहुविध प्राचलों पर भिन्न होती हैं। तथापि वे सभी मनोवैज्ञानिक कष्टों का उपचार मनोवैज्ञानिक उपायों से प्रदान करने की समान विधि अपनाती हैं। चिकित्सक, चिकित्सात्मक संबंध और चिकित्सा की प्रक्रिया सेवार्थी में परिवर्तन के कारक बन जाते हैं जिससे मनोवैज्ञानिक कष्ट का उपशमन होता है। मनश्चिकित्सा की प्रक्रिया का प्रारंभ सेवार्थी की समस्या के निरूपण से होता है। सेवार्थी के समस्या-निरूपण में अंतर्निहित चरण बॉक्स 5.1 में दिए गए हैं।

आगामी खंडों में पूर्व में उल्लिखित मनश्चिकित्सा की तीन प्रमुख व्यवस्थाओं में से प्रत्येक की प्रतिनिधि-चिकित्सा के बारे में व्याख्या की गई है।

क्रियाकलाप 5.2

कुछ एेसी संस्थाओं के बारे में सूचना एकत्र 

कीजिए जो मनोरोग/मनश्चिकित्सात्मक सहायता प्रदान करती हैं।


मनोगतिक चिकित्सा

जैसा कि आप पहले पढ़ चुके हैं मनोगतिक चिकित्सा जिसका प्रतिपादन सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud) द्वारा किया गया, मनश्चिकित्सा का सबसे प्राचीन रूप है। उनके घनिष्ठ सहयोगी कार्ल युंग (Carl Jung) ने इसमें संशोधन किया जिसे वैश्लेषिक मनश्चिकित्सा के रूप में जाना गया। बाद में फ्रॉयड के उत्तराधिकारियों ने जो नव-फ्रॉयडवादी के नाम से जाने जाते हैं, क्लासिकी मनोगतिक चिकित्सा के अपने रूपांतर स्थापित किए। मोटे तौर पर, मनोगतिक चिकित्सा ने मानस की संरचना, मानस के विभिन्न घटकों के मध्य गतिकी और मनोवैज्ञानिक कष्ट के स्रोतों का संप्रत्ययीकरण किया है। आप इन संप्रत्ययों को ‘आत्म एवं व्यक्तित्व’ तथा ‘मनोवैज्ञानिक विकार’ के अध्यायों में पहले ही पढ़ चुके हैं। मनोगतिक चिकित्सा में उपचार की विधि, उपचार के चरण, चिकित्सात्मक संबंध की प्रकृति तथा प्रत्याशित परिणाम की व्याख्या नीचे की गई है।

अंतःमनोद्वंद्व के स्वरूप को बाहर निकालने की विधियाँ

चूँकि मनोगतिक उपागम अंतःमनोद्वंद्व को मनोवैज्ञानिक विकारों का मुख्य कारण समझता है अतः उपचार में पहला चरण इसी अंतःमनोद्वंद्व को बाहर निकालना है। मनोविश्लेषण ने अंतःमनोद्वंद्व  को बाहर निकालने के लिए दो महत्वपूर्ण विधियों मुक्त साहचर्य (free association) विधि तथा स्वप्न व्याख्या (dream interpretaton) विधि का आविष्कार किया। मुक्त साहचर्य विधि सेवार्थी की समस्याओं को समझने की प्रमुख विधि है। जब एक बार चिकित्सात्मक संबंध स्थापित हो जाता है और सेवार्थी आरामदेह महसूस करने लगता है तब चिकित्सक उससे कहता है कि वह स्तरण पटल (couch) पर लेट जाए, अपनी आँखों को बंद कर ले और मन में जो कुछ भी आए उसे बिना किसी अवरोधन या काट-छाँट के बताने को कहता है। सेवार्थी को एक विचार को दूसरे विचार से मुक्त रूप से संबद्ध करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और इस विधि को मुक्त साहचर्य विधि कहते हैं। जब सेवार्थी एक आरामदायक और विश्वसनीय वातावरण में मन में जो कुछ भी आए बोलता है तब नियंत्रक पराहम् तथा सतर्क अहं को प्रसुप्तावस्था में रखा जाता है। चूँकि चिकित्सक बीच में हस्तक्षेप नहीं करता इसलिए विचारों का मुक्त प्रवाह, अचेतन मन की इच्छाएँ और द्वंद्व जो अहं द्वारा दमित किए जाते रहे हों वे सचेतन मन में प्रकट होने लगते हैं। सेवार्थी का यह मुक्त बिना काट-छाँट वाला शाब्दिक वृत्तांत सेवार्थी के अचेतन मन की एक खिड़की है जिसमें अभिगमन का चिकित्सक को अवसर मिलता है। इस तकनीक के साथ ही साथ सेवार्थी को निद्रा से जागने पर अपने स्वप्नों को लिख लेने को कहा जाता है। मनोविश्लेषक इन स्वप्नों को अचेतन मन में उपस्थित अतृप्त इच्छाओं के प्रतीक के रूप में देखता है। स्वप्न की प्रतिमाएँ प्रतीक हैं जो अंतःमानसिक शक्तियों का संकेतक होती हैं। स्वप्न प्रतीकों का उपयोग करते हैं क्योंकि वे अप्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त होते हैं इसलिए अहं को सतर्क नहीं करते। यदि अतृप्त इच्छाएँ प्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त की जाएँ तो सदैव सतर्क अहं उन्हें दमित कर देगा जो पुनः दुशि्ंचता का कारण बनेगा। इन प्रतीकों की व्याख्या अनुवाद की एक स्वीकृत परंपरा के अनुसार की जाती है जो अतृप्त इच्छाओं तथा द्वंद्वों के संकेतक होते हैं।

उपचार की प्रकारता

अन्यारोपण (transference) तथा व्याख्या या निर्वचन (interpretation) रोगी का उपचार करने के उपाय हैं। जैसे ही अचेतन शक्तियाँ उपरोक्त मुक्त साहचर्य एवं स्वप्न व्याख्या विधियों द्वारा सचेतन जगत में लाई जाती हैं, सेवार्थी चिकित्सक की अपने अतीत सामान्यतः बाल्यावस्था के आप्त व्यक्तियों के रूप में पहचान करने लगता है। चिकित्सक को एक दंड देने वाले पिता या उपेक्षा करने वाली माँ के रूप में देखा जा सकता है। चिकित्सक एक अनिर्णयात्मक तथापि अनुज्ञापक अभिवृत्ति बनाए रखता है और सेवार्थी को सांवेगिक पहचान स्थापित करने की इस प्रक्रिया को जारी रखने की अनुमति देता है। यही अन्यारोपण की प्रक्रिया है। चिकित्सक इस प्रक्रिया को प्रोत्साहन देता है क्योंकि इससे उसे सेवार्थी के अचेतन द्वंद्वों को समझने में मदद मिलती है। सेवार्थी अपनी कुंठा, क्रोध, भय और अवसाद, जो उसने अपने अतीत में उस व्यक्ति के प्रति अपने मन में रखे थी लेकिन उस समय उनकी अभिव्यक्ति नहीं कर पाया था, को चिकित्सक के प्रति व्यक्त करने लगता है। चिकित्सक वर्तमान में उस व्यक्ति का स्थानापन्न बन जाता है। इस अवस्था को अन्यारोपण तंत्रिकाताप (transference neurosis) कहते हैं। एक पूर्ण विकसित अन्यारोपण तंत्रिकाताप चिकित्सक को सेवार्थी के द्वारा सहे जा रहे अंतःमनोद्वंद्व के स्वरूप के प्रति अभिज्ञ बनाता है। सकारात्मक अन्यारोपण (positive transference) में सेवार्थी चिकित्सक की पूजा करने लगता है या उससे प्रेम करने लगता है और चिकित्सक का अनुमोदन चाहता है। नकारात्मक अन्यारोपण (negative transference) तब प्रदर्शित होता है जब सेवार्थी में चिकित्सक के प्रति शत्रुता, क्रोध और अमर्ष या अप्रसन्नता की भावना होती है।

अन्यारोपण की प्रक्रिया में प्रतिरोध (resistance) भी होता है। चूँकि अन्यारोपण की प्रक्रिया अचेतन इच्छाओं और द्वंद्वों को अनावृत करती है, जिससे कष्ट का स्तर बढ़ जाता है इसलिए सेवार्थी अन्यारोपण का प्रतिरोध करता है। इस प्रतिरोध के कारण अपने आपको अचेतन मन की कष्टकर स्मृतियों के पुनःस्मरण से बचाने के लिए सेवार्थी चिकित्सा की प्रगति का विरोध करता है। प्रतिरोध सचेतन और अचेतन दोनों हो सकता है। सचेतन प्रतिरोध तब होता है जब सेवार्थी जान-बूझकर किसी सूचना को छिपाता है। अचेतन प्रतिरोध तब उपस्थित माना जाता है जब सेवार्थी चिकित्सा सत्र के दौरान मूक या चुप हो जाता है, तुच्छ बातों का पुनःस्मरण करता है किंतु संवेगात्मक बातों का नहीं, नियोजित भेंट में अनुपस्थित होता है तथा चिकित्सा सत्र के लिए देर से आता है। चिकित्सक बार-बार इसे सेवार्थी के सामने रखकर तथा दुशि्ंचता, भय, शर्म जैसे संवेगों को उभार कर, जो इस प्रतिरोध के कारण हैं, इस प्रतिरोध पर विजय प्राप्त करता है।

निर्वचन मूल युक्ति है जिससे परिवर्तन को प्रभावित किया जाता है। प्रतिरोध (confrontation) एवं स्पष्टीकरण (clarification) निर्वचन की दो विश्लेषणात्मक तकनीक हैं। प्रतिरोध में चिकित्सक सेवार्थी के किसी एक मानसिक पक्ष की ओर संकेत करता है जिसका सामना सेवार्थी को अवश्य करना चाहिए। स्पष्टीकरण एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से चिकित्सक किसी अस्पष्ट या भ्रामक घटना को केंद्रबिंदु में लाता है। यह घटना के महत्वपूर्ण विस्तृत वर्णन को महत्वहीन वर्णन से अलग करके तथा विशिष्टता प्रदान करके किया जाता है। निर्वचन एक अधिक सूक्ष्म प्रक्रिया है। यह मनोविश्लेषण का शिखर माना जाता है। चिकित्सक मुक्त साहचर्य, स्वप्न व्याख्या, अन्यारोपण तथा प्रतिरोध की प्रक्रिया में अभिव्यक्त अचेतन सामग्री का उपयोग सेवार्थी को  अभिज्ञ बनाने के लिए करता है कि किन मानसिक अंतर्वस्तुओं एवं द्वंद्वों ने कुछ घटनाओं, लक्षणों तथा द्वंद्वों को उत्पन्न किया है। निर्वचन बाल्यावस्था में भोगे हुए वंचन या अंतःमनोद्वंद्व पर केंद्रित हो सकता है। प्रतिरोध, स्पष्टीकरण तथा निर्वचन को प्रयुक्त करने की पुनरावृत्त प्रक्रिया को समाकलन कार्य (working through) कहते हैं। समाकलन कार्य रोगी को अपने आपको और अपनी समस्या के स्रोत को समझने में तथा बाहर आई सामग्री को अपने अहं में समाकलित करने में सहायता करता है।

समाकलन कार्य का परिणाम है अंतर्दृष्टि (insight)। अंतर्दृष्टि कोई आकस्मिक घटना नहीं है बल्कि एक क्रमिक प्रक्रिया है जहाँ अचेतन स्मृतियाँ लगातार सचेतन अभिज्ञता में समाकलित होती रहती हैं; ये अचेतन घटनाएँ तथा स्मृतियाँ अन्यारोपण में पुनःअनुभूत होती हैं और समाकलित की जाती हैं। जैसे यह प्रक्रिया चलती रहती है सेवार्थी बौद्धिक एवं सांवेगिक स्तर पर अपने आपको बेहतर समझने लगता है और अपनी समस्याओं और द्वंद्वों के बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त करता है। बौद्धिक समझ बौद्धिक अंतर्दृष्टि है। सांवेगिक समझ भूतकाल की अप्रीतिकर घटनाओं के प्रति अपनी अविवेकी प्रतिक्रिया की स्वीकृति, सांवेगिक रूप से परिवर्तन की तत्परता तथा परिवर्तन करना सांवेगिक अंतर्दृष्टि है। अंतर्दृष्टि चिकित्सा का अंतिम बिंदु है जब सेवार्थी अपने बारे में एक नई समझ प्राप्त कर चुका होता है। बदले में भूतकाल के द्वंद्व, रक्षा युक्तियाँ और शारीरिक लक्षण भी नहीं रह जाते तथा सेवार्थी मनोवैज्ञानिक रूप से एक स्वस्थ व्यक्ति हो जाता है। इस अवस्था पर मनोविश्लेषण समाप्त कर दिया जाता है।

उपचार की अवधि

सप्ताह में चार-पाँच दिनों तक रोज एक घंटे के सत्र के साथ मनोविश्लेषण कई वर्षों तक चल सकता है। यह एक गहन उपचार है। उपचार में तीन अवस्थाएँ (three stages) होती हैं। पहली अवस्था प्रारंभिक अवस्था है। सेवार्थी नित्यकर्मों से परिचित हो जाता है, विश्लेषक से एक चिकित्सात्मक संबंध स्थापित करता है तथा अपनी चेतना से भूत और वर्तमान की कष्टप्रद घटनाओं के बारे में सतही सामग्रियों की संस्मृति प्रक्रिया से वह कुछ राहत महसूस करता है। दूसरी अवस्था मध्य अवस्था है जो एक लंबी प्रक्रिया है। इसकी विशेषता सेवार्थी की ओर से अन्यारोपण और प्रतिरोध तथा चिकित्सक के द्वारा प्रतिरोध एवं स्पष्टीकरण अर्थात समाकलन कार्य है। ये सारी प्रक्रियाएँ अंततः अंतर्दृष्टि की ओर ले जाती हैं। तीसरी अवस्था समाप्ति की अवस्था है जिसमें विश्लेषक के साथ संबंध भंग हो जाता है और सेवार्थी चिकित्सा छोड़ने की तैयारी कर लेता है।


व्यवहार चिकित्सा

व्यवहार चिकित्साओं का यह मानना है कि मनोवैज्ञानिक कष्ट दोषपूर्ण व्यवहार प्रतिरूपों या विचार प्रतिरूपों के कारण उत्पन्न होते हैं। अतः इनका केंद्रबिंदु सेवार्थी में विद्यमान व्यवहार और विचार होते हैं। उसका अतीत केवल उसके दोषपूर्ण व्यवहार तथा विचार प्रतिरूपों की उत्पत्ति को समझने के संदर्भ में महत्वपूर्ण होता है। अतीत को फिर से सक्रिय नहीं किया जाता। वर्तमान में केवल दोषपूर्ण प्रतिरूपों में सुधार किया जाता है।

अधिगम के सिद्धांतों का नैदानिक अनुप्रयोग ही व्यवहार चिकित्सा को गठित करता है। व्यवहार चिकित्सा में विशिष्ट तकनीकों एवं सुधारोन्मुख हस्तक्षेपों का एक विशाल समुच्चय होता है। यह कोई एकीकृत सिद्धांत नहीं है जिसे क्लिनिकल निदान या विद्यमान लक्षणों को ध्यान में रखे बिना अनुप्रयुक्त किया जा सके। अनुप्रयुक्त किए जाने वाली विशिष्ट तकनीकों या सुधारोन्मुख हस्तक्षेपों के चयन में सेवार्थी के लक्षण तथा क्लिनिकल निदान मार्गदर्शक कारक होते हैं। दुर्भीति या अत्यधिक और अपंगकारी भय के उपचार के लिए तकनीकों के एक समुच्चय को प्रयुक्त करने की आवश्यकता होगी जबकि क्रोध-प्रस्फोटन के उपचार के लिए दूसरी। अवसादग्रस्त सेवार्थी की चिकित्सा दुशि्ंचतित सेवार्थी से भिन्न होगी। व्यवहार चिकित्सा का आधार दोषपूर्ण या अपक्रियात्मक व्यवहार को निरूपित करना, इन व्यवहारों को प्रबलित तथा संपोषित करने वाले कारकों तथा उन विधियों को खोजना है जिनसे उन्हें परिवर्तित किया जा सके।

उपचार की विधि

जो सेवार्थी मनोवैज्ञानिक कष्ट या शारीरिक लक्षणों, जिन्हें शारीरिक बीमारी नहीं माना जा सकता, से ग्रस्त होते हैं, उनका साक्षात्कार इस दृष्टि से किया जाता है जिससे कि उनके व्यवहार प्रतिरूपों का विश्लेषण किया जा सके। अपक्रियात्मक दोषपूर्ण अधिगम के पूर्ववृत्त व्यवहार और दोषपूर्ण अधिगम को बनाए रखने वाले कारकों को ढूँढ़ने के लिए व्यवहार विश्लेषण किया जाता है। अपक्रियात्मक व्यवहार वे व्यवहार होते हैं जो सेवार्थी को कष्ट प्रदान करते हैं। पूर्ववर्ती कारक वे कारण होते हैं जो व्यक्ति को उस व्यवहार में मग्न हो जाने के लिए पहले ही से प्रवृत्त कर देते हैं। संपोषण कारक वे कारक होते हैं जो दोषपूर्ण व्यवहार के स्थायित्व को प्रेरित करते हैं। उदाहरणार्थ, एक नवयुवक ने धूम्रपान का अपक्रियात्मक व्यवहार अर्जित कर लिया है तथा उससे छुटकारा पाने के लिए सहायता चाहता है। व्यवहार विश्लेषण जब सेवार्थी तथा उसके परिवार के सदस्यों का साक्षात्कार करने के बाद किया गया है तो पता चला कि उस व्यक्ति ने धूम्रपान तब प्रारंभ किया जब वह वार्षिक परीक्षा की तैयारी कर रहा था। उसने बताया कि धूम्रपान से उसे दुशि्ंचता से आराम मिला। अतः दुश्चिंता उत्पन्न करने वाली स्थिति प्रेरणार्थक या पूर्ववर्ती कारक हुई। आराम मिलने की भावना धूम्रपान करते रहने के लिए संपोषण कारक बन जाती है। सेवार्थी ने धूम्रपान की क्रियाप्रसूत अनुक्रिया अर्जित कर ली जो दुश्चिंता से आराम दिलाने वाले प्रबलन मूल्य के कारण बनी रहती है।

एक बार जब दोषपूर्ण व्यवहार जो कष्टकर होते हैं, की पहचान कर ली जाती है तब एक उपचार का पैकेज चुना जाता है। दोषपूर्ण व्यवहार का शमन करना या उन्हें समाप्त करना और उन्हें अनुकूली व्यवहार प्रतिरूपों से प्रतिस्थापित करना उपचार का उद्देश्य होता है। चिकित्सक इसे पूर्ववर्ती संक्रिया (antecedent operations) तथा अनुवर्ती या परिणामी संक्रिया (consequent operations) स्थापित करके संपन्न करता है। पूर्ववर्ती संक्रिया उन पहलुओं में परिवर्तन कर जो व्यवहार के पहले घटित होते हैं, एेसे व्यवहार को नियंत्रित करती है। यह परिवर्तन किसी विशेष परिणाम के प्रबलन मूल्य को घटाकर या बढ़ाकर किया जा सकता है। इसे स्थापक संक्रिया कहते हैं। उदाहरणार्थ, यदि एक बच्चा रात का भोजन करने में परेशान करता है तो स्थापक संक्रिया यह होगी कि चायकाल के समय खाने की मात्रा को घटा दिया जाए। उससे रात के भोजन के समय भूख बढ़ जाएगी तथा इस प्रकार रात के भोजन के समय खाने का प्रबलन मूल्य बढ़ जाएगा। जब बच्चा ठीक से भोजन करे तो उसकी प्रशंसा करना इस व्यवहार (खाने के व्यवहार) को प्रोत्साहित करेगा। चायकाल के समय भोजन की मात्रा घटाना पूर्ववर्ती संक्रिया हुई तथा अनुवर्ती संक्रिया रात का भोजन करने के लिए बालक की प्रशंसा हुई। यह रात का भोजन करने की अनुक्रिया को स्थापित करता है।

व्यवहारात्मक तकनीक

व्यवहार को परिवर्तित करने की बहुत-सी तकनीकें उपलब्ध हैं। इन तकनीकों का सिद्धांत है सेवार्थी के भाव-प्रबोधन स्तर को कम करना, प्राचीन अनुबंधन या क्रियाप्रसूत अनुबधंन द्वारा व्यवहार को बदलना जिसमें प्रबलन की भिन्न-भिन्न प्रासंगिकता हो, साथ ही यदि आवश्कता हो तो प्रतिस्थानिक (vicarious) अधिगम प्रक्रिया का भी उपयोग करना।

व्यवहार परिष्करण की दो मुख्य तकनीकें हैं - निषेधात्मक प्रबलन तथा विमुखी अनुबंधन। जैसा कि आप कक्षा 11 में पहले ही पढ़ चुके हैं प्राणियों की एेसी अनुक्रियाएँ जो उन्हें पीड़ादायक उद्दीपकों से छुटकारा दिलाती हैं या उनसे दूर रहने और बच निकलने के पथ प्रदर्शन करती हैं, निषेधात्मक प्रबलन (negative reinforcement) प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए, दुखदायी ठंड से बचने के लिए व्यक्ति ऊनी कपड़े पहनना, लकड़ी जलाना तथा बिजली के हीटर का उपयोग करता सीखता है। व्यक्ति खतरनाक उद्दीपकों से दूर भागना सीखता है क्योंकि यह निषेधात्मक प्रबलन प्रदान करता है। विमुखी अनुबंधन (aversive conditioning) का संबंध अवांछित अनुक्रिया के विमुखी परिणाम के साथ पुनरावृत्त साहचर्य से है। उदाहरण के लिए, एक मद्यव्यसनी को बिजली का एक हल्का आघात दिया जाए और मद्य सूँघने को कहा जाए। एेसे पुनरावृत्त युग्मन से मद्य की गंध उसके लिए अरुचिकर हो जाएगी क्योंकि बिजली के आघात की पीड़ा के साथ इसका साहचर्य स्थापित हो जाएगा और व्यक्ति मद्य छोड़ देगा। यदि कोई अनुकूली व्यवहार कभी-कभी ही घटित होता है तो इस न्यूनता को बढ़ाने के लिए सकारात्मक प्रबलन (positive reinforce-ment) दिया जाता है। उदाहरण के लिए यदि एक बालक गृह कार्य नियमित रूप से नहीं करता तो उसकी माँ नियत समय गृह कार्य करने के लिए सकारात्मक प्रबलन के रूप में बच्चे का मनपसंद पकवान बनाकर दे सकती है। मनपसंद भोजन का सकारात्मक प्रबलन उसके नियत समय पर गृह कार्य करने के व्यवहार को बढ़ाएगा। व्यवहारात्मक समस्याओं वाले लोगों को कोई वांछित व्यवहार करने पर हर बार पुरस्कार के रूप में एक टोकन दिया जा सकता है। ये टोकन संगृहीत किए जाते हैं और किसी पुरस्कार से उनका विनिमय या आदान-प्रदान किया जाता है, जैसे रोगी को बाहर घुमाने ले जाना या बच्चे को बाहर खाना खिलाना। इसे टोकन अर्थव्यवस्था (token economy) कहते हैं।

विभेदक प्रबलन द्वारा एक साथ अवांछित व्यवहार को घटाया जा सकता है तथा वांछित व्यवहार को बढ़ावा दिया जा सकता है। वांछित व्यवहार के लिए सकारात्मक प्रबलन तथा अवांछित व्यवहार के लिए निषेधात्मक प्रबलन का साथ-साथ उपयोग इस प्रकार की एक विधि हो सकती है। दूसरी विधि वांछित व्यवहार को सकारात्मक रूप से प्रबलन देना तथा अवांछित व्यवहार की उपेक्षा करना है। दूसरी विधि कम कष्टकर तथा समान रूप से प्रभावी है। उदाहरण के लिए आइए एक लड़की का मामला लें जो इसलिए रोती और रूठती है कि उसके कहने पर उसे सिनेमा दिखाने नहीं ले जाया जाता। माता-पिता को अनुदेश दिया जाता है कि यदि वह रूठे और रोए नहीं तो उसे सिनेमा ले जाया जाए, मगर यदि वह रूठती और रोती है तो न ले जाया जाए। इसके बाद, उन्हें अनुदेश दिया जाता है कि जब भी लड़की रूठे या रोए तो उसकी उपेक्षा की जाए। इस प्रकार शिष्टतापूर्वक सिनेमा ले जाने के लिए कहने का वांछित व्यवहार बढ़ता है तथा रोने और रूठने का अवांछित व्यवहार कम होता है।

आपने पिछले अध्याय में दुर्भीति या अविवेकी भय के बारे में पढ़ा है। दुर्भीति या अविवेकी भय के उपचार के लिए वोल्प (Wolpe) द्वारा प्रतिपादित क्रमिक विसंवेदनीकरण (systematic desensitisation) एक तकनीक है। सेवार्थी का साक्षात्कार भय उत्पन्न करने वाली स्थितियों को जानने के लिए किया जाता है तथा सेवार्थी के साथ-साथ चिकित्सक दुश्चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों का एक पदानुक्रम तैयार करता है तथा सबसे कम दुश्चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों को पदानुक्रम में सबसे नीचे रखता है। चिकित्सक सेवार्थी को विश्रांत करता है और सबसे कम दुश्चिंता उत्पन्न करने वाली स्थिति के बारे में सोचने को कहता है। बॉक्स 5.2 में विश्रांति की विधि के बारे में बताया गया है। सेवार्थी से कहा जाता है कि ज़रा-सा भी तनाव महसूस करने पर भयानक स्थिति के बारे में सोचना बंद कर दे। कई सत्रों के पश्चात सेवार्थी विश्रांति की अवस्था बनाए रखते हुए तीव्र भय उत्पन्न करने वाली स्थितियों के बारे में सोचने में समर्थ हो जाता है। इस प्रकार सेवार्थी क्रमानुसार भय के प्रति विसंवेदनशील हो जाता है।


बॉक्स 5.2

विश्रांति की विधियाँ

दुशि्ंचता मनोवैज्ञानिक कष्ट की अभिव्यक्ति है जिसके लिए सेवार्थी उपचार चाहता है। व्यवहारात्मक चिकित्सक दुशि्ंचता को सेवार्थी के भाव-प्रबोधन के स्तर को बढ़ाने वाले के रूप में देखता है जो दोषपूर्ण व्यवहार उत्पन्न करने में एक पूर्ववर्ती कारक की तरह कार्य करता है। सेवार्थी दुशि्ंचता को कम करने के लिए धूम्रपान कर सकता है, अपने आपको अन्य क्रियाओं में निमग्न कर सकता है, जैसे - भोजन या दुशि्ंचता के कारण लंबे समय तक अपने अध्ययन में एकाग्र नहीं हो पाता है। अतः दुशि्ंचता में कमी अत्यधिक भोजन या धूम्रपान के अवांछित व्यवहारों को कम करेगी। दुशि्ंचता के स्तर को कम करने के लिए विश्रांति की विधियों का उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, प्रगामी पेशीय विश्रांति और ध्यान एक विश्रांति की अवस्था उत्पन्न करते हैं। प्रगामी पेशीय विश्रांति में सेवार्थी को पेशीय तनाव या तनाव के प्रति जागरूकता लाने के लिए विशिष्ट पेशी समूहों को संकुचित करना सिखाया जाता है। सेवार्थी के पेशी समूह, जैसे - अग्रबाहु को तानना सीखने के बाद सेवार्थी को तनाव को मुक्त करने के लिए कहा जाता है। सेवार्थी को यह भी बताया जाता है कि उसे (सेवार्थी) वर्तमान में ही तनाव है और उसको इसकी विपरीत अवस्था में जाना है। पुनरावृत्त अभ्यास के साथ सेवार्थी शरीर की सारी पेशियों को विश्रांत करना सीख जाता है। आप ध्यान के बारे में इस अध्याय के बाद के खंड में सीखेंगे।


यहाँ अन्योन्य प्रावरोध का सिद्धांत (principle of reciprocal inhibition) क्रियाशील होता है। इस सिद्धांत के अनुसार दो परस्पर विरोधी शक्तियों की एक ही समय में उपस्थिति कमज़ोर शक्ति को अवरुद्ध करती है। अतः पहले विश्रांति की अनुक्रिया विकसित की जाती है तत्पश्चात धीरे-से दुश्चिंता उत्पन्न करने वाले दृश्य की कल्पना की जाती है और विश्रांति से दुश्चिंता पर विजय प्राप्त की जाती है। सेवार्थी अपनी विश्रांत अवस्था के कारण प्रगामी तीव्रतर दुश्चिंता को सहन करने योग्य हो जाता है। मॉडलिंग या प्रतिरूपण (modelling) की प्रक्रिया में सेवार्थी एक विशेष प्रकार से व्यवहार करना सीखता है। इसमें वह कोई भूमिका-प्रतिरूप (role model) या चिकित्सक, जो प्रारंभ में भूमिका-प्रतिरूप की तरह कार्य करता है, के व्यवहार का प्रेक्षण करके उस व्यवहार को करना सीखता है। प्रतिस्थानिक अधिगम अर्थात दूसरों का प्रेक्षण करते हुए सीखना, का उपयोग किया जाता है और व्यवहार में आए हुए छोटे-छोटे परिवर्तनों को भी पुरस्कृत करने की प्रक्रिया से सेवार्थी धीरे-धीरे मॉडल के व्यवहारों को अर्जित करना सीख जाता है।

व्यवहार चिकित्सा में तकनीकों की बड़ी विविधता है। परिशुद्ध व्यवहार विश्लेषण करना और उचित तकनीकों से उपचार का पैकेज बनाना ही चिकित्सक का कौशल माना जाता है।


क्रियाकलाप  5.3

आपका मित्र परीक्षा से पहले बहुत अधीर और आतंकित महसूस कर रहा है। वह ऊपर-नीचे चहलकदमी कर रहा है, अध्ययन करने में असमर्थ है तथा उसे लगता है कि उसने जो कुछ सीखा था वह सब भूल गया है। अंतःश्वसन (गहरा श्वास लेना), उसे कुछ समय (5–10 सेकण्ड) तक रोककर रखना, फिर निःश्वसन (श्वास निकालना) द्वारा विश्राम करने में उसकी मदद कीजिए। उसे यह क्रिया 5 –10 बार दोहराने के लिए कहिए। उसे अपने श्वसन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए भी कहिए। स्वयं आप भी कभी अधीरता महसूस करने पर यह अभ्यास कर सकते हैं।


संज्ञानात्मक चिकित्सा

संज्ञानात्मक चिकित्साओं में मनोवैज्ञानिक कष्ट का कारण अविवेकी विचारों और विश्वासों में स्थापित किया जाता है। अल्बर्ट एलिस (Albert Ellis) ने संवेग तर्क चिकित्सा (rational emotive therapy, RET) को प्रतिपादित किया। इस चिकित्सा की केंद्रीय धारणा है कि अविवेकी विश्वास पूर्ववर्ती घटनाओं और उनके परिणामों के बीच मध्यस्थता करते हैं। संवेग तर्क चिकित्सा में पहला चरण है पूर्ववर्ती-विश्वास-परिणाम (पू.वि.प.) विश्लेषण। पूर्ववर्ती घटनाओं जिनसेे मनोवैज्ञानिक कष्ट उत्पन्न हुआ, को लिख लिया जाता है। सेवार्थी के साक्षात्कार द्वारा उसके उन अविवेकी विश्वासों का पता लगाया जाता है जो उसकी वर्तमानकालिक वास्तविकता को विकृत कर रहे हैं। हो सकता है इन अविवेकी विश्वासों को पुष्ट करने वाले आनुभविक प्रमाण पर्यावरण में नहीं भी हों। इन विश्वासों को ‘अनिवार्य’ या ‘चाहिए’ विचार कह सकते हैं, तात्पर्य यह है कि कोई भी बात एक विशिष्ट तरह से होनी ‘चाहिए’ या ‘अनिवार्य’ है। अविवेकी विश्वासों के उदाहरण हैं, जैसे - "किसी को हर एक का प्यार हर समय मिलना चाहिए", "मनुष्य की तंगहाली बाह्य घटनाओं के कारण होती है जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता" इत्यादि। अविवेकी विश्वासों के कारण पूर्ववर्ती घटना का विकृत प्रत्यक्षण नकारात्मक संवेगों और व्यवहारों के परिणाम का कारण बनता है। अविवेकी विश्वासों का मूल्यांकन प्रश्नावली और साक्षात्कार के द्वारा किया जाता है। संवेग तर्क चिकित्सा की प्रकिया में चिकित्सक अनिदेशात्मक प्रश्न करने की प्रक्रिया से अविवेकी विश्वासों का खंडन करता है। प्रश्न करने का स्वरूप सौम्य होता है, निदेशात्मक या जाँच-पड़ताल वाला नहीं। ये प्रश्न सेवार्थी को अपने जीवन और समस्याओं से संबंधित पूर्वधारणाओं के बारे में गहराई से सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। धीरे-धीरे सेवार्थी अपने जीवन-दर्शन में परिवर्तन लाकर अविवेकी विश्वासों को परिवर्तित करने में समर्थ हो जाता है। तर्कमूलक विश्वास तंत्र अविवेकी विश्वास तंत्र को प्रतिस्थापित करता है और मनोवैज्ञानिक कष्टों में कमी आती है।

दूसरी संज्ञानात्मक चिकित्सा आरन बेक (Aaron Beck) की है। दुशि्ंचता या अवसाद द्वारा अभिलक्षित मनोवैज्ञानिक कष्ट संबंधी उनके सिद्धांत के अनुसार परिवार और समाज द्वारा दिए गए बाल्यावस्था के अनुभव मूल अन्विति योजना या मूल स्कीमा (core schema) या तंत्र के रूप में विकसित हो जाते हैं, जिनमें व्यक्ति के विश्वास और क्रिया के प्रतिरूप सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार एक सेवार्थी जो बाल्यावस्था में अपने माता-पिता द्वारा उपेक्षित था एक एेसा मूल स्कीमा विकसित कर लेता है, "मैं वांछित नहीं हूँ"। जीवनकाल के दौरान कोई निर्णायक घटना उसके जीवन में घटित होती है। विद्यालय में सबके सामने अध्यापक के द्वारा उसकी हँसी उड़ाई जाती है। यह निर्णायक घटना उसके मूल स्कीमा "मैं वांछित नहीं हूँ" को क्रियाशील कर देती है जो नकारात्मक स्वचालित विचारों को विकसित करती है। नकारात्मक विचार सतत अविवेकी विचार होते हैं, जैसे - ‘कोई मुझे प्यार नहीं करता’, ‘मैं कुरूप हूँ’, ‘मैं मूर्ख हूँ’, ‘ मैं सफल नहीं हो सकता/सकती’ इत्यादि। इन नकारात्मक स्वचालित विचारों में संज्ञानात्मक विकृतियाँ भी होती हैं। संज्ञानात्मक विकृतियाँ चिंतन के एेसे तरीके हैं जो सामान्य प्रकृति के होते हैं किंतु वे वास्तविकता को नकारात्मक तरीके से विकृत करते हैं। विचारों के इन प्रतिरूपों को अपक्रियात्मक संज्ञानात्मक संरचना (dysfunctional cognitive structures) कहते हैं। सामाजिक यथार्थ के बारे में ये संज्ञानात्मक त्रुटियाँ उत्पन्न करती हैं।

इन विचारों का बार-बार उत्पन्न होना दुश्चिंता और अवसाद की भावनाओं को विकसित करता है। चिकित्सक जो प्रश्न करता है वे सौम्य होते हैं तथा सेवार्थी के विश्वासों और विचारों के प्रति बिना धमकी वाले किंतु उनका खंडन करने वाले होते हैं। इन प्रश्नों के उदाहरण कुछ एेसे हो सकते हैं, "क्यों हर कोई तुम्हें प्यार करे?", "तुम्हारे लिए सफल होना क्या अर्थ रखता है?" इत्यादि। ये प्रश्न सेवार्थी को अपने नकारात्मक स्वचालित विचारों की विपरीत दिशा में सोचने को बाध्य करते हैं जिससे वह अपने अपक्रियात्मक स्कीमा के स्वरूप के बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त करता है तथा अपनी संज्ञानात्मक संरचना को परिवर्तित करने में समर्थ होता है। इस चिकित्सा का लक्ष्य संज्ञानात्मक पुनःसंरचना को प्राप्त करना है जो दुश्चिंता तथा अवसाद को घटाती है।

व्यवहार चिकित्सा के सदृश संज्ञानात्मक चिकित्सा भी सेवार्थी की किसी एक विशिष्ट समस्या का समाधान करने पर ध्यान केंद्रित करती है। मनोगतिक चिकित्सा के विपरीत संज्ञानात्मक चिकित्सा अधिक मुक्त अर्थात चिकित्सक इसमें सेवार्थी के साथ अपनी विधि के बारे में विचार-विमर्श करता है। यह चिकित्सा अल्पकालिक होती है जो 10–20 सत्रों तक समाप्त हो जाती है।

संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा

आजकल सर्वाधिक प्रचलित चिकित्सा संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (cognitive behaviour therapy, CBT) है। मनश्चिकित्सा की प्रभाविता एवं परिणाम पर किए गए अनुसंधान ने निर्णायक रूप से यह प्रमाणित किया है कि संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा विभिन्न प्रकार के मनोवैज्ञानिक विकारों, जैसे - दुश्चिंता, अवसाद, आतंक दौरा, सीमावर्ती व्यक्तित्व इत्यादि के लिए एक संक्षिप्त और प्रभावोत्पादक उपचार है। मनोविकृति की रूपरेखा बताने के लिए संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा जैव-मनोसामाजिक उपागम का उपयोग करती है। यह संज्ञानात्मक चिकित्सा को व्यवहारपरक तकनीकों के साथ संयुक्त करती है।

तर्काधार यह है कि सेवार्थी के कष्टों का मूल या उद्गम स्थान जैविक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक क्षेत्रों में होता है। अतः समस्या के जैविक पक्षों को विश्रांति की विधियों द्वारा, मनोवैज्ञानिक पक्षों को व्यवहार चिकित्सा तथा संज्ञानात्मक चिकित्सा तकनीकों द्वारा और सामाजिक पक्षों को पर्यावरण में परिवर्तन द्वारा संबोधित करने के कारण संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा को एक व्यापक चिकित्सा बनाती है। जिसका उपयोग करना आसान है, यह कई प्रकार के विकारों के लिए प्रयुक्त की जा सकती है तथा जिसकी प्रभावोत्पादकता प्रमाणित हो चुकी है।

मानवतावादी-अस्तित्वपरक चिकित्सा

मानवतावादी-अस्तित्वपरक चिकित्सा की धारणा है कि मनोवैज्ञानिक कष्ट व्यक्ति के अकेलापन, विसंबंधन तथा जीवन का अर्थ समझने और यथार्थ संतुष्टि प्राप्त करने में अयोग्यता की भावनाओं के कारण उत्पन्न होते हैं। मनुष्य व्यक्तिगत संवृद्धि एवं आत्मसिद्धि (self-actualisation) की इच्छा तथा संवेगात्मक रूप से विकसित होने की सहज आवश्यकता से अभिप्रेरित होते हैं। जब समाज और परिवार के द्वारा ये आवश्यकताएँ बाधित की जाती हैं तो मनुष्य मनोवैज्ञानिक कष्ट का अनुभव करता है। आत्मसिद्धि को एक सहज शक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जो व्यक्ति को अधिक जटिल, संतुलित और समाकलित होने के लिए अर्थात बिना खंडित हुए जटिलता एवं संतुलन प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। समाकलित होने का तात्पर्य है साकल्य-बोध, एक संपूर्ण व्यक्ति होना, भिन्न-भिन्न अनुभवों के होते हुए भी मूल भाव में वही व्यक्ति होना। जिस तरह से भोजन या पानी की कमी कष्ट का कारण होती है, उसी तरह आत्मसिद्धि का कुंठित होना भी कष्ट का कारण होता है।

जब सेवार्थी अपने जीवन में आत्मसिद्धि की बाधाओं का प्रत्यक्षण कर उनको दूर करने योग्य हो जाता है तब रोगोपचार घटित होता है। आत्मसिद्धि के लिए आवश्यक है संवेगों की मुक्त अभिव्यक्ति। समाज और परिवार संवेगों की इस मुक्त अभिव्यक्ति को नियंत्रित करते हैं क्योंकि उन्हें भय होता है कि संवेगों की मुक्त अभिव्यक्ति से समाज को क्षति पहुँच सकती है क्योंकि इससे ध्वंसात्मक शक्तियाँ उन्मुक्त हो सकती हैं। यह नियंत्रण सांवेगिक समाकलन की प्रक्रिया को निष्फल करके विध्वंसक व्यवहार और नकारात्मक संवेगों का कारण बनता है। इसलिए चिकित्सा के दौरान एक अनुज्ञात्मक, अनिर्णयात्मक तथा स्वीकृतिपूर्ण वातावरण तैयार किया जाता है जिसमें सेवार्थी के संवेगों की मुक्त अभिव्यक्ति हो सके तथा जटिलता, संतुलन और समाकलन प्राप्त किया जा सके। इसमें मूल पूर्वधारणा यह है कि सेवार्थी को अपने व्यवहारों का नियंत्रण करने की स्वतंत्रता है तथा यह उसका ही उत्तरदायित्व है। चिकित्सक केवल एक सुगमकर्ता और मार्गदर्शक होता है। चिकित्सा की सफलता के लिए सेवार्थी स्वयं उत्तरदायी होता है। चिकित्सा का मुख्य उद्देश्य सेवार्थी की जागरूकता को बढ़ाना है। जैसे-जैसे सेवार्थी अपने
विशिष्ट व्यक्तिगत
 अनुभवों को समझने लगता है वह स्वस्थ होने लगता है। सेवार्थी आत्म-संवृद्धि की प्रक्रिया को प्रारंभ करता है जिससे वह स्वस्थ हो जाता है।

अस्तित्वपरक चिकित्सा

विक्टर फ्रेंकल (Victor Frankl) नामक एक मनोरोगविज्ञानी और तंत्रिकाविज्ञानी ने उद्बोधक चिकित्सा (logotherapy) प्रतिपादित की। लॉगोस (logos) आत्मा के लिए ग्रीक भाषा का एक शब्द है और उद्बोधक चिकित्सा का तात्पर्य आत्मा का उपचार है। फ्रेंकल जीवन के प्रति खतरनाक परिस्थितियों में भी अर्थ प्राप्त करने की इस प्रक्रिया को अर्थ निर्माण की प्रक्रिया कहते हैं। इस अर्थ निर्माण की प्रक्रिया का आधार व्यक्ति की अपने अस्तित्व का आध्यात्मिक सत्य प्राप्त करने की खोज होती है। जैसे एक अचेतन मन होता है, जो मूल प्रवृत्तियों का भंडार है (अध्याय 2 देखें), उसी तरह एक आध्यात्मिक अचेतन भी होता है जो प्रेम, सौंदर्यात्मक अभिज्ञता, और जीवन मूल्यों का भंडार होता है। जब व्यक्ति के अस्तित्व के शारीरिक, मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक पक्षों से जीवन की समस्याएँ जुड़ती हैं तो तंत्रिकातापी दुश्चिंता उत्पन्न होती है। प्रेंηकल ने निरर्थकता की भावना को उत्पन्न करने में आध्यात्मिक दुश्चिंता की भूमिका पर ज़ोर दिया है और इसीलिए इसे अस्तित्व दुश्चिंता (existential anxiety) अर्थात आध्यात्मिक मूल की तंत्रिकातापी दुश्चिंता कहा जा सकता है। उद्बोधक चिकित्सा का उद्देश्य अपने जीवन की परिस्थितियों को ध्यान में रखे बिना जीवन में अर्थवत्ता और उत्तरदायित्व बोध प्राप्त कराने में सेवार्थी की सहायता करना है। चिकित्सक सेवार्थी के जीवन की विशिष्ट प्रकृति पर ज़ोर देता है और सेवार्थी को अपने जीवन में अर्थवत्ता प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

उद्बोधक चिकित्सा में चिकित्सक निष्कपट होता है और अपनी भावनाओं, मूल्यों और अपने अस्तित्व के बारे में सेवार्थी से खुल कर बात करता है। इसमें ‘आज और अभी’ पर ज़ोर दिया जाता है और अन्यारोपण को सक्रिय रूप से हतोत्साहित किया जाता है। चिकित्सक सेवार्थी को वर्तमान की तात्कालिकता का स्मरण कराता है। अपने अस्तित्व का अर्थ प्राप्त करने की प्रक्रिया में सेवार्थी की मदद करना चिकित्सक का लक्ष्य होता है।

सेवार्थी-केंद्रित चिकित्सा

सेवार्थी-केंद्रित चिकित्सा कार्ल रोज़र्स (Carl Rogers) द्वारा प्रतिपादित की गई है। रोज़र्स ने वैज्ञानिक निग्रह को सेवार्थी-केंद्रित चिकित्सा की व्यष्टीकृत पद्धति से संयुक्त किया। रोज़र्स ने मनश्चिकित्सा में स्व के संप्रत्यय को प्रस्तुत किया और उनकी चिकित्सा का मानना है कि किसी व्यक्ति के अस्तित्व का मूल स्वतंत्रता और वरण होते हैं। चिकित्सा एक एेसा गर्मजोशी का संबंध प्रदान करती है जिससे सेवार्थी अपनी विघटित भावनाओं के साथ संबद्ध हो सकता है। चिकित्सक तदनुभूति प्रदर्शित करता है अर्थात सेवार्थी के अनुभवों को समझना, जैसे कि वे उसी की हों, उसके प्रति सहृदय होता है तथा अशर्त सकारात्मक आदर रखता है अर्थात सेवार्थी जैसा है उसी रूप में उसे वह स्वीकार करता है। तदनुभूति चिकित्सक और सेवार्थी के बीच में एक सांवेगिक अनुनाद की स्थिति बनाती है। अशर्त सकारात्मक आदर यह बताता है कि चिकित्सक की सकारात्मक हार्दिकता सेवार्थी की उन भावनाओं पर आश्रित नहीं हैं जो वह चिकित्सा सत्र के दौरान प्रदर्शित करता है। यह अनन्य अशर्त हार्दिकता यह सुनिश्चित करती है कि सेवार्थी चिकित्सक के ऊपर विश्वास कर सकता है तथा स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकता है। सेवार्थी इतना सुरक्षित महसूस करता है कि वह अपनी भावनाओं का अन्वेषण करने लगता है। चिकित्सक सेवार्थी की भावनाओं का अनिर्णयात्मक तरीके से परावर्तन करता है। यह परावर्तन सेवार्थी के कथनों की पुनःअभिव्यक्ति से प्राप्त किया जाता है अर्थात सेवार्थी के कथनों के अर्थ वर्धन के लिए उससे सरल स्पष्टीकरण माँगना। परावर्तन की यह प्रक्रिया सेवार्थी को समाकलित होने में मदद करती है। समायोजन बढ़ने के साथ ही व्यक्तिगत संबंध भी सुधरते हैं। सार यह है कि यह चिकित्सा सेवार्थी को अपना वास्तविक स्व होने में मदद करती है जिसमें चिकित्सक एक सुगमकर्ता की भूमिका निभाता है।

गेस्टाल्ट चिकित्सा

जर्मन शब्द ‘गेस्टाल्ट’ का अर्थ है ‘समग्र’। यह चिकित्सा फ्रेडेरिक (फ्रिट्ज) पर्ल्स ने अपनी पत्नी लॉरा पर्ल्स के साथ प्रस्तुत की थी। गेस्टाल्ट चिकित्सा का उद्देश्य व्यक्ति की आत्म-जागरूकता एवं आत्म-स्वीकृति के स्तर को बढ़ाना 
होता है। सेवार्थी को शारीरिक प्रक्रियाओं और संवेगों, जो जागरूकता को अवरुद्ध करते हैं, को पहचानना सिखाया जाता है। चिकित्सक इसके लिए सेवार्थी को अपनी भावनाओं और द्वंद्वों के बारे में उसकी कल्पनाओं की अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करता है। यह चिकित्सा समूहों में भी प्रयुक्त की जा सकती है।

जैव-आयुर्विज्ञान चिकित्सा
मनोवैज्ञानिक विकारों के उपचार हेतु दवाएँ निर्दिष्ट की जा सकती हैं। मानसिक विकारों के उपचार के लिए दवाओं का नुस्खा एक अर्हताप्राप्त चिकित्सा व्यवसायी, जिसे मनोरोगविज्ञानी कहा जाता है, द्वारा लिखा जाता है। वे चिकित्सापरक डॉक्टर होते हैं जिन्हें मानसिक विकारों के ज्ञान, निदान और उपचार में विशेषज्ञता प्राप्त होती है। किस प्रकार की दवा उपयोग की जाएगी यह विकारों की प्रकृति पर निर्भर करता है। तीव्र मानसिक विकृति, जैसे - मनोविदलता और द्विध्रुवीय विकार में मनस्तापी विरोधी औषधियों की आवश्यकता होती है। सामान्य मानसिक विकार, जैसे - सामान्यीकृत दुश्चिंता या प्रतिक्रियात्मक अवसाद में भी मृदुतर औषधियों की आवश्यकता पड़ सकती है। मानसिक विकारों के उपचार के लिए निर्दिष्ट दवाओं के अनुषंगी प्रभाव भी होते हैं जिन्हें समझने और मॉनीटर करते रहने की ज़रूरत होती है। इसलिए यह आवश्यक है कि दवाओं को उचित चिकित्सापरक-पर्यवेक्षण में ही दिया जाए। यहाँ तक कि वे दवाएँ जो एक सामान्य व्यक्ति परीक्षा के लिए जागकर पढ़ने के लिए उपयोग करता है या किसी पार्टी में ‘चरम उत्तेजन’ प्राप्त करने के लिए उपयोग करता है, उनके भी खतरनाक अनुषंगी प्रभाव हो सकते हैं। इन दवाओं की लत पड़ सकती है और ये शरीर तथा मस्तिष्क को क्षति पहुँचा सकती हैं।
आपने चलचित्रों में मानसिक समस्याओं से ग्रसित लोगों को बिजली का आघात देते हुए देखा होगा। विद्युत-आक्षेपी चिकित्सा (electro-convulsive therapy, ECT) जैव-आयुर्विज्ञान चिकित्सा का एक दूसरा प्रकार है। इलेक्ट्रोड द्वारा बिजली के हल्के आघात रोगी के मस्तिष्क में दिए जाते हैं जिससे आक्षेप उत्पन्न हो सके। जब रोगी के सुधार के लिए बिजली के आघात आवश्यक समझे जाते हैं तो ये केवल मनोरोगविज्ञानी के द्वारा ही दिए जाते हैं। विद्युत-आक्षेपी चिकित्सा एक नेमी उपचार नहीं है और यह तभी दिया जाता है जब दवाएँ रोगी के लक्षणों को नियंत्रित करने में प्रभावी नहीं होती हैं।

मनश्चिकित्सा में स्वास्थ्य-लाभ में योगदान देने वाले कारक

जैसा कि हम पढ़ चुके हैं मनश्चिकित्सा मानसिक कष्टों के उपचार हेतु है। एेसे कई कारक हैं जो इस स्वास्थ्य-
लाभ
प्रक्रिया में योगदान देते हैं। इनमें से कुछ कारक निम्नलिखित हैं -

1. स्वास्थ्य-लाभ में एक महत्वपूर्ण कारक है चिकित्सक द्वारा अपनाई गई तकनीक तथा रोगी/सेवार्थी के साथ इन्हीं तकनीकों का परिपालन। यदि दुशि्ंचतित सेवार्थी को स्वस्थ करने के लिए व्यवहार पद्धति और संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा शाखा अपनाई जाती है तो विश्रांति की विधियाँ और संज्ञानात्मक पुनःसंरचना तकनीक स्वास्थ्य-लाभ में बहुत बड़ा योगदान देती हैं।

2. चिकित्सात्मक मैत्री जो चिकित्सक एवं रोगी/सेवार्थी के बीच में बनती है, में स्वास्थ्य-लाभ के गुण विद्यमान होते हैं क्योंकि चिकित्सक नियमित रूप से सेवार्थी से मिलता है तथा उसे तदनुभूति और हार्दिकता प्रदान करता है।

3. चिकित्सा के प्रारंभिक सत्रों में जब रोगी/सेवार्थी की समस्याओं की प्रकृति को समझने के लिए उसका साक्षात्कार किया जाता है, तो वह स्वयं द्वारा अनुभव किए जा रहे संवेगात्मक समस्याओं को चिकित्सक के सामने रखता है। संवेगों को बाहर निकालने की इस प्रक्रिया को भाव-विरेचन या कैथार्सिस कहते हैं और इसमें स्वास्थ्य-लाभ के गुण विद्यमान होते हैं

4. मनश्चिकित्सा से संबंधित अनेक अविशिष्ट कारक हैं। इनमें से कुछ कारक रोगी/सेवार्थी से संबंधित बताए जाते हैं तथा कुछ चिकित्सक से। ये कारक अविशिष्ट
इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि ये
 मनश्चिकित्सा की विभिन्न पद्धतियों, भिन्न रोगियों/सेवार्थियों तथा भिन्न मनश्चिकित्सकों के आर-पार घटित होती हैं। रोगियों/ सेवार्थियों पर लागू होने वाले अविशिष्ट कारक हैं - परिवर्तन के लिए अभिप्रेरणा उपचार के कारण सुधार की प्रत्याशा इत्यादि। इन्हें रोगी चर (patient variables) कहा जाता है। चिकित्सक पर लागू होने वाले अविशिष्ट कारक हैं - सकारात्मक स्वभाव, अनसुलझे संवेगात्मक द्वंद्वों की अनुपस्थिति, अच्छे मानसिक स्वास्थ्य की उपस्थिति इत्यादि। इन्हें चिकित्सक चर (therapist variables) कहा जाता है।

मनश्चिकित्सा के नैतिक सिद्धांत

कुछ नैतिक मानक जिनका व्यवसायी मनश्चिकित्सकों द्वारा प्रयोग किया जाना चाहिए, वे हैं -

1. सेवार्थी से सुविज्ञ सहमति लेनी चाहिए।

2. सेवार्थी की गोपनीयता बनाए रखनी चाहिए।

3. व्यक्तिगत कष्ट और व्यथा को कम करना मनश्चिकित्सक के प्रत्येक प्रयासों का लक्ष्य होना चाहिए।

4. चिकित्सक-सेवार्थी संबंध की अखंडता महत्वपूर्ण है।

5. मानव अधिकार एवं गरिमा के लिए आदर।

6. व्यावसायिक सक्षमता एवं कौशल आवश्यक हैं।


वैकल्पिक चिकित्सा

इन्हें वैकल्पिक चिकित्सा इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनमें पारंपरिक औषध-उपचार या मनश्चिकित्सा की वैकल्पिक उपचार संभावनाएँ होती हैं। अनेक प्रकार की वैकल्पिक चिकित्साएँ हैं, जैसे -योग, ध्यान, एेक्यूपंक्चर, वनौषधि, उपचार इत्यादि। पिछले 25 वर्षों में मनोवैज्ञानिक कष्टों के लिए उपचार कार्यक्रम के रूप में योग एवं ध्यान ने सबसे अधिक लोकप्रियता प्राप्त की है।

योग एक प्राचीन भारतीय पद्धति है जिसे पातंजलि के योग सूत्र के अष्टांग योग में विस्तृत रूप से बताया गया है। योग, जैसा कि सामान्यतः आजकल इसे कहा जाता है, का आशय केवल आसन या शरीर संस्थिति घटक अथवा श्वसन अभ्यास या प्राणायाम अथवा दोनों के संयोग से होता है। ध्यान का संबंध श्वास अथवा किसी वस्तु या विचार या किसी मंत्र पर ध्यान केंद्रित करने के अभ्यास से है। जहाँ ध्यान केंद्रित किया जाता है। विपश्यना ध्यान, जिसे सतर्कता-आधारित ध्यान के नाम से भी जाना जाता है, में ध्यान को बाँधे रखने के लिए कोई नियत वस्तु या विचार नहीं होता है। व्यक्ति निष्क्रिय रूप से विभिन्न शारीरिक संवेदनाओं एवं विचारों, जो उसकी चेतना में आते रहते हैं, का प्रेक्षण करता है।

तीव्र गति से श्वास लेने की तकनीक, जो अत्यधिक वायु-संचार करती है तथा जो सुदर्शन क्रिया योग में प्रयुक्त की जाती है, लाभदायक, कम खतरे वाली और कम खर्च वाली तकनीक है। यह दबाव, दुश्चिंता, अभिघातज उत्तर दबाव विकार, अवसाद, दबाव-संबंधी चिकित्सा रोग, मादक द्रव्यों का दुरुपयोग तथा अपराधियों के पुनःस्थापन के लिए उपयोग की जाती है। सुदर्शन क्रिया योग का उपयोग सामूहिक विपदा के उत्तरजीवियों में अभिधातज उत्तर दबाव विकास को समाप्त करने के लिए एक लोक-स्वास्थ्य हस्तक्षेप तकनीक के रूप में किया जाता है। योग विधि कुशल-क्षेम, भावदशा, ध्यान, मानसिक केंद्रीयता तथा दबाव सहिष्णुता को बढ़ाती है। एक कुशल योग शिक्षक द्वारा उचित प्रशिक्षण तथा प्रतिदिन 30 मिनट तक का अभ्यास इसके लाभ को बढ़ा सकता है। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिकाविज्ञान संस्थान (National Institute of Mental Health and Neurosciences, NIMHANS), भारत में किए गए शोध ने प्रदर्शित किया है कि सुदर्शन क्रिया योग अवसाद को कम करता है। इसके अलावा जो मद्यव्यसनी रोगी सुदर्शन क्रिया योग का अभ्यास करते हैं उनके अवसाद एवं दबाव स्तर में कमी पाई गई है। अनिद्रा का उपचार योग से किया गया है। योग नींद आने की अवधि को कम करता है तथा निद्रा की गुणवत्ता को बढ़ाता है।

अमेरिका में सिखाया जाने वाला कुंडलिनी योग मानसिक विकारों के उपचार में प्रभावी पाया गया है। अरैखिक विज्ञान संस्थान (The Institute for Non-linear Science), कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन डिएगो, अमेरिका, ने पाया है कि कुंडलिनी योग मनोग्रहित-बाध्यता विकार के उपचार में प्रभावी है। कुंडलिनी योग में मंत्रों के उच्चारण के साथ श्वसन तकनीक या प्राणायाम को संयुक्त किया जाता है। अवसाद की पुनरावृत्त घटना की रोकथाम सतर्कता-आधारित ध्यान या विपश्यना के द्वारा की जा सकती है। इस प्रकार का ध्यान रोगियों को अपने सांवेगिक उद्दीपकों के बेहतर प्रक्रमण में सहायता करेगा और इसलिए इन उद्दीपकों के प्रक्रमण में पूर्वाग्रहों को रोकेगा।


मानसिक रोगियों का पुनःस्थापन

मनोवैज्ञानिक विकारों के उपचार के दो घटक होते हैं, अर्थात लक्षणों में कमी आना तथा क्रियाशीलता या जीवन की गुणवत्ता के स्तर में सुधार लाना। कम तीव्र विकारों, जैसे - सामान्यीकृत दुश्चिंता, प्रतिक्रियात्मक अवसाद या दुर्भीति के लक्षणों में कमी आना जीवन की गुणवत्ता में सुधार से संबंधित होता है। जबकि मनोविदलता जैसे गंभीर मानसिक विकारों के लक्षणों में कमी आना जीवन की गुणवत्ता में सुधार से संबंधित नहीं हो सकता है। कई रोगी नकारात्मक लक्षणों से ग्रसित होते हैं, जैसे - काम करने या दूसरे लोगों के साथ अन्योन्यक्रिया में अनभिरुचि तथा अभिप्रेरणा का अभाव। इस तरह के रोगियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पुनःस्थापना की आवश्यकता होती है। पुनःस्थापना का उद्देश्य रोगी को सशक्त बनाना होता है जिससे जितना संभव हो सके वह समाज का एक उत्पादक सदस्य बन सके। पुनः स्थापना में रोगियों को व्यावसायिक चिकित्सा, सामाजिक कौशल प्रशिक्षण तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है। व्यावसायिक चिकित्सा में रोगियों को मोमबत्ती बनाना, कागज़ की थैली बनाना और कपड़ा बुनना सिखाया जाता है जिससे वे एक कार्य अनुशासन बना सकें। भूमिका-निर्वाह, अनुकरण और अनुदेश के माध्यम से रोगियों को सामाजिक कौशल प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे कि वे अंतर्वैयक्तिक कौशल विकसित कर सकें। इसका उद्देश्य होता है रोगी को सामाजिक समूह में काम करना सिखाना। संज्ञानात्मक पुनःप्रशिक्षण मूल संज्ञानात्मक प्रकार्यों, जैसे - अवधान, स्मृति और अधिशासी प्रकार्यों में सुधार लाने के लिए दिया जाता है। जब रोगी में पर्याप्त सुधार जाता है तो उसे व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है जिसमें उत्पा

प्रमुख पद

वैकल्पिक चिकित्सा, व्यवहार चिकित्सा, जैव-आयुर्विज्ञान चिकित्सा, सेवार्थी-केंद्रित चिकित्सा, संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा, तदनुभूति, गेस्टाल्ट चिकित्सा, मानवतावादी चिकित्सा, मनोगतिक चिकित्सा, मनश्चिकित्सा, पुनःस्थापन, प्रतिरोध, आत्मसिद्धि, चिकित्सात्मक मैत्री, अन्यारोपण, अशर्त सकारात्मक आदर।दक रोज़गार प्रारंभ करने के लिए आवश्यक कौशलों के अर्जन में उसकी मदद की जाती है।


सारांश

मनश्चिकित्सा मनोवैज्ञानिक कष्ट से निवारण के लिए एक उपचार है। यह एक सजातीय उपचार विधि नहीं है। भिन्न प्रकार की लगभग 400 मनश्चिकित्साएँ होती हैं।
मनोविश्लेषण, व्यवहारात्मक, संज्ञानात्मक तथा मानवतावादी-अस्तित्वपरक मनश्चिकित्सा की महत्वपूर्ण पद्धतियाँ हैं। इनमें से प्रत्येक पद्धति में कई शाखाएँ हैं।
मनश्चिकित्सा के महत्वपूर्ण घटक हैं - नैदानिक निरूपण अर्थात सेवार्थी की समस्या का कथन और एक विशेष चिकित्सा के संदर्भ में उसका उपचार।
चिकित्सात्मक मैत्री चिकित्सक एवं सेवार्थी के बीच का संबंध है जिसमें सेवार्थी का चिकित्सक में विश्वास और चिकित्सक की सेवार्थी के लिए तदनुभूति होती है।
मनोवैज्ञानिक कष्ट से पीड़ित वयस्कों के लिए मनश्चिकित्सा की प्रधान पद्धति व्यक्तिगत मनश्चिकित्सा है। मनश्चिकित्सा का अभ्यास करने से पहले चिकित्सक को व्यावसायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
वैकल्पिक चिकित्सा, जैसे - यौगिक और ध्यानस्थ अभ्यास कुछ मनोवैज्ञानिक विकारों के उपचार में प्रभावी पाए गए हैं।
मानसिक रोगियों के सक्रिय लक्षणों में कमी आने के बाद उनका पुनःस्थापन उनके जीवन की गुणवत्ता को सुधारने के लिए आवश्यक होता है।


समीक्षात्मक प्रश्न

1. मनश्चिकित्सा की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र का वर्णन कीजिए। मनश्चिकित्सा में चिकित्सात्मक संबंध के महत्त्व को उजागर कीजिए।

2. मनश्चिकित्सा के विभिन्न प्रकार कौन-से हैं? किस आधार पर इनका वर्गीकरण किया गया है?

3. एक चिकित्सक सेवार्थी से अपने सभी विचार यहाँ तक कि प्रारंभिक बाल्यावस्था के अनुभवों को बताने को कहता है। इसमें उपयोग की गई तकनीक और चिकित्सा के प्रकार का वर्णन कीजिए।

4. व्यवहार चिकित्सा में प्रयुक्त विभिन्न तकनीकों की चर्चा कीजिए।

5. उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए कि संज्ञानात्मक विकृति किस प्रकार घटित होती है।

6. कौन-सी चिकित्सा सेवार्थी को व्यक्तिगत संवृद्धि चाहने एवं अपनी संभाव्यताओं की सिद्धि के लिए प्रेरित करती है? उन चिकित्साओं की चर्चा कीजिए जो इस सिद्धांत पर आधारित हैं।

7. मनश्चिकित्सा में स्वास्थ्य-लाभ के लिए किन कारकों का योगदान होता है? कुछ वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की गणना कीजिए।

8. मानसिक रोगियों के पुनःस्थापन के लिए कौन-सी तकनीकों का उपयोग किया जाता है?

9. छिपकली/तिलचटा के दुर्भीति भय का सामाजिक अधिगम सिद्धांतकार किस प्रकार स्पष्टीकरण करेगा? इसी दुर्भीति का एक मनोविश्लेषक किस प्रकार स्पष्टीकरण करेगा?

10. क्या विद्युत-आक्षेपी चिकित्सा मानसिक विकारों के उपचार के लिए प्रयुक्त की जानी चाहिए?

11. किस प्रकार की समस्याओं के लिए संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा सबसे उपयुक्त मानी जाती है?


परियोजना विचार

1. विद्यालय में अक्सर जब आप अच्छा काम करते हैं तो आप अच्छे अंक (स्वर्णांक या तारा) पाते हैं और खराब काम करने पर बुरा या काला अंक पाते हैं। यह टोकन व्यवस्था का एक उदाहरण है। अपने सहपाठियों की सहायता से एक सूची बनाइए जिसमें कक्षा और विद्यालय के उन सभी क्रियाकलापों को सम्मिलित कीजिए जिसके लिए आप पुरस्कृत किए गए हों या अपने अध्यापक से प्रशंसा या अपने मित्रों से सराहना पाई हो। एक और सूची बनाइए जिसमें उन क्रियाकलापों को लिखिए जिसके लिए आपको अपने अध्यापक/अध्यापिका से डाँट पड़ी हो या आपके सहपाठी आपसे क्रुद्ध हुए हों।
2. अपने अतीत या वर्तमान से उस व्यक्ति के बारे में बताएँ जिसने सतत रूप से आपके प्रति अशर्त सकारात्मक आदर प्रदर्शित किया हो। आप पर इसका क्या प्रभाव हुआ या हो रहा है? व्याख्या करें। अपने अन्य मित्रों से भी इसी तरह की सूचना एकत्र करें और एक रिपोर्ट तैयार करें।


वेबलिंक्स

http://www.sciencedirect.com

http://allpsych.com

http://mentalhealth.com


शैक्षिक संकेत

1. विद्यार्थियों को स्व और व्यक्तित्व से संबंधित अध्याय 2 में पढ़े हुए व्यक्तित्व के कुछ सिद्धांतों को विभिन्न चिकित्सा उपागमों से जोड़ने के लिए कहा जा सकता है।

2. विद्यार्थियों से संबंधित कुछ व्यवहारात्मक मुद्दों, जैसे - किसी मित्र से संबंध का टूटना आदि का भूमिका-निर्वाह एवं नाटकीकरण उनमें अभिरुचि उत्पन्न करेगा तथा मनोविज्ञान के अनुप्रयोग पर भी बल देगा।

3. चूँकि चिकित्सा एक उच्चस्तरीय कुशल-प्रक्रिया है जिसमें व्यावसायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है, इसलिए विद्यार्थियों को इसे हल्के ढंग से विवेचन करने से रोकना चाहिए।

4. कोई क्रिया/परिचर्चा जिसका विद्यार्थियों के मानस पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है, उसे अध्यापक की उपस्थिति में उचित ढंग से संचालित किया जाना चाहिए।