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अध्याय 7


परियोजना कार्य के लिए सुझाव


यह अध्याय कुछ छोटी-छोटी अनुसंधान परियोजनाओं के बारे में सुझाव देता है जिन पर आप कार्य कर सकते हैं। अनुसंधान के बारे में पढ़ने और उसे वास्तव में करने में बहुत अंतर होता है। किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए व्यावहारिक प्रयास करना और सुव्यवस्थित रूप से साक्ष्य इकट्ठा करना एक अत्यंत उपयोगी अनुभव है। आशा है यह अनुभव आपका समाजशास्त्रीय अनुसंधान से जुड़ी कुछ कठिनाइयों से नहीं बल्कि इसके उत्साह से भी परिचय कराएगा। इस अध्याय को पढ़ने से पहले, कृपया 11वीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक ‘समाजशास्त्र परिचय’ के अध्याय 5 (समाजशास्त्र - अनुसंधान पद्धतियाँ) पर पुनःदृष्टिपात करें।

यहाँ जो सुझाव दिए गए हैं उनमें उन संभावित समस्याओं को ध्यान में रखने का प्रयास किया गया है जो विभिन्न संदर्भों, परिस्थितियों या विभिन्न प्रकार के विद्यालयों में एेसे शोध कार्यों के दौरान उपस्थित हो सकती हैं। इनका अभिप्राय आपके मन में शोध के बारे में एक उत्साह पैदा करना है। एक "वास्तविक" अनुसंधान परियोजना निश्चित रूप से अधिक विस्तृत होगी और उसे संपन्न करने के लिए छात्रों को विद्यालय में उपलब्ध समय से कहीं अधिक समय देने एवं प्रयत्न करने की आवश्यकता होगी। यह सिर्फ़ सुझाव मात्र है-आप अपने अध्यापकों के साथ विचार-विमर्श कर अन्य शोध परियोजनाएँ तैयार कर उन पर कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं।

प्रत्येक अनुसंधान प्रश्न यानी शोध विषय पर कार्य करने के लिए एक उपयुक्त अनुसंधान पद्धति की आवश्यकता होती है। एक प्रश्न का उत्तर अक्सर एक से अधिक पद्धतियों से दिया जा सकता है लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि एक अनुसंधान पद्धति सभी प्रश्नों के लिए उपयुक्त हो। दूसरे शब्दों में, अधिकांश शोध प्रश्नों के लिए, शोधकर्ता के पास संभावित पद्धतियों को चुनने की स्वतंत्रता होती है, लेकिन यह चुनाव आमतौर पर सीमित होता है। शोध प्रश्न का सावधानीपूर्वक निर्धारण करने के बाद, शोधकर्ता का सबसे पहला काम उपयुक्त शोध प्रणाली का चयन करना होेता है। यह चयन तकनीकी कसौटियों (यानी प्रश्न और पद्धति के बीच कितनी संगतता है) के अनुसार ही नहीं बल्कि व्यावहारिकता को भी ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। व्यावहारिकता में अनेक बातें शामिल हो सकती हैं जैसे, अनुसंधान के लिए उपलब्ध समय की मात्रा, लोगों एवं सामग्री दोनाें के रूप में उपलब्ध संसाधन; वे परिस्थितियाँ जिनमें शोध किया जाना है, इत्यादि।

उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि आप ‘सह-शिक्षा विद्यालयों’ और ‘केवल बालकों’ या ‘केवल बालिकाओं’ वाले विद्यालयों के बीच तुलना करना चाहते हैं। दरअसल, यह एक व्यापक विषय है। इसलिए सर्वप्रथम आप एक विशेष प्रश्न तैयार करें जिसका आप उत्तर देना चाहते हों। उदाहरण के लिए, क्या सह-शिक्षा विद्यालयों के छात्र केवल बालकों/बालिकाओं वाले विद्यालयों के छात्रों की अपेक्षा पढ़ाई में बेहतर प्रदर्शन करते हैं? क्या केवल बालकाें वाले विद्यालय खेल-कूद में सह-शिक्षा विद्यालयों से हमेशा बेहतर होेते हैं? क्या केवल बालकों या बालिकाओं वाले विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे सह-शिक्षा विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों की अपेक्षा अधिक खुश रहते हैं; अथवा इसी तरह के अन्य प्रश्न। एक निर्धारित प्रश्न चुन लेने के बाद अगला कदम होता है उपयुक्त पद्धति का चयन करना।

उदाहरणार्थ, अंतिम प्रश्न यानी क्या केवल बालकों या बालिकाओं वाले विद्यालयों के बच्चे अधिक खुश रहते हैं? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए आप विभिन्न प्रकार के विद्यालयों के छात्रों से साक्षात्कार की पद्धति चुन सकते हैं। साक्षात्कार में आप छात्रों से सीधे यह पूछ सकते हैं कि वे अपने विद्यालय के बारे में कैसा महसूस करते हैं। फिर आप इस प्रकार इकट्ठे किए गए उत्तरों का विश्लेषण यह देखने के लिए कर सकते हैं कि क्या विभिन्न प्रकार के विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों के उत्तरों में क्या कोई भिन्नता है? शोध प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए एक विकल्प के रूप में आप एक दूसरी पद्धति भी अपना सकते हैं जैसे, प्रत्यक्ष प्रेक्षण। इसका अर्थ यह हुआ कि आपको सह-शिक्षा और बालक/बालिका वाले विद्यालयों में कुछ समय यह अवलोकन करने में बिताना होगा कि वहाँ के छात्र कैसा व्यवहार करते हैं। आपको कुछ कसौटियाँ निर्धारित करनी होंगी जिनके आधार पर आप यह कह सकेंगे कि छात्र अपने विद्यालय से कितना खुश हैं। इस प्रकार, पर्याप्त समय तक विभिन्न प्रकार के स्कूलों का अवलोकन करने के बाद आप अपने प्रश्न का ठीक उत्तर देेने की आशा कर सकेंगे। आप एक तीसरी पद्धति, सर्वेक्षण प्रणाली, भी अपना सकते हैं। इसके लिए आपको छात्रों से उनके विद्यालय के बारे में उनके विचार जानने के लिए एक प्रश्नावली तैयार करनी होगी। इसके बाद आप अपनी प्रश्नावली प्रत्येक प्रकार के विद्यालय में समान संख्या में छात्रों को वितरित कर देंगे। तत्पश्चात् आप छात्रों से भरी हुई प्रश्नावलियों को इकट्ठा करके उनके परिणामों का विश्लेषण करेंगे।

यहाँ कुछ व्यावहारिक कठिनाइयों के उदाहरण दिए गए हैं जो इस तरह का अनुसंधान करते समय शायद आपके समक्ष आ सकती हैं। मान लीजिए कि आप सर्वेक्षण करने का निर्णय लेते हैं। आपको सर्वप्रथम प्रश्नावली की बहुत सारी प्रतियाँ तैयार करनी होंगी। इस कार्य में समय, प्रयत्न और पैसा लगता है। इसके बाद, आपको छात्रों को उनकी कक्षाओं में प्रश्नावली वितरित करने के लिए अध्यापकों से अनुमति भी लेनी होगी। हो सकता है कि आपको पहली बार में यह अनुमति न मिले या यह कह दिया जाए कि बाद में आना। प्रश्नावली वितरण के बाद, यह स्थिति आ सकती है कि जिन छात्रों को आपने प्रश्नावली दी थी, उनमें से बहुतोें ने तो उसे भरकर लौटाने का कष्ट ही न किया हो अथवा सब प्रश्नों के उत्तर न दिए हों; इसी तरह की और भी कई समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं। तब आपको यह निर्णय लेना होगा कि एेसी समस्याओं से कैसे निपटा जाए; क्या आधे-अधूरे उत्तर देने वाले उत्तरदाताओं के पास जाकर यह कहा जाए कि वे अपनी प्रश्नावली को पूरी तरह भरें; अथवा अपूर्ण प्रश्नावलियों को एक तरफ़ छोड़कर ठीक से भरी गई प्रश्नावलियों पर ही विचार करें; पूरे दिए गए उत्तरों के आधार पर ही अपना निर्णय ले लें; इत्यादि। शोध कार्य के दौरान आपको एेसी व्यवहारिक समस्याओं से निपटने के लिए तैयार रहना होगा।


7.1 शोध पद्धतियों की बहुलता

शायद आपको 11वीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक समाजशास्त्र परिचय के पाँचवें अध्याय में अनुसंधान पद्धतियाें पर की गई चर्चा याद होगी। आपकी याददाश्त को ताज़ा करने के लिए इस अध्याय को दुबारा पढ़ने का यह अच्छा समय है।


सर्वेक्षण प्रणाली

इस प्रणाली के अंतर्गत सामान्यतः निर्धारित प्रश्नों को अपेक्षाकृृत बड़ी संख्या में लोगों से पूछा जाता है। (यह संख्या 30, 1000, 2000 या इससे भी अधिक हो सकती है, ‘बड़ी संख्या’ किसे माना जाएगा यह विषय एवं संदर्भ पर आधारित होता है।) ये प्रश्न अन्वेषक द्वारा व्यक्तिगत रूप से पूछे जा सकते हैं जहाँ उत्तरदाता प्रश्न सुनकर उनका उत्तर देता है और अन्वेषक उन उत्तरों को लिख लेता है। अथवा, प्रश्नावली उत्तरदाताओं को सौंप दी जाती है और उत्तरदाता स्वयं उन प्रश्नावलियों को भर कर अन्वेषक को लौटा देते हैैं। सर्वेक्षण प्रणाली का मुख्य लाभ यह है कि इसके अंतर्गत एक साथ काफ़ी बड़ी संख्या में लोगों के विचार जाने जा सकते हैं। इसलिए, इसके परिणाम संबंधित समूह या जनसंख्या के विचारों का सही प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रणाली की कमजोरी यह है कि इसके द्वारा जो प्रश्न पूछे जाते हैं वे पहले से ही निर्धारित होते हैं। प्रश्न पूछते वक्त इसमें कोई फेरबदल नहीं किया जा सकता। इसलिए, यदि उत्तरदाता किसी प्रश्न को ठीक से नहीं समझ पाते तो गलत या भ्रामक परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। इसके अलावा, यदि कोई उत्तरदाता कोई दिलचस्प बात कहता है तो उसके बारे में आगे कोई नए प्रश्न नहीं पूछे जा सकते क्योंकि आपको प्रश्नावली की पूर्व-निर्धारित सीमाओं के भीतर रहना पड़ता है। इसके अलावा, प्रश्नावलियाँ एक विशेष समय पर खींची गई फ़ोटो की तरह एक निश्चित स्थिति का ही चित्र प्रस्तुत करती हैं। यह स्थिति आगे चलकर बदल भी सकती है अथवा यह भी संभव है कि पहले उसका स्वरूप आज जैसा न रहा हो, लेकिन सर्वेक्षण में इन बदली हुई स्थितियों को शामिल नहीं किया जा सकता।


साक्षात्कार

साक्षात्कार, सर्वेक्षण पद्धति से इस तरह से भिन्न होता है कि साक्षात्कार हमेशा व्यक्तिगत रूप से किया जाता है और इस पद्धति में अपेक्षाकृत काफ़ी कम लोगों (जैसे, 5, 20, या 40 आमतौर पर इससे अधिक नहीं) को शामिल किया जाता है। साक्षात्कार संरचित हो सकते हैं यानी उनमें पूर्व निर्धारित प्रश्न पूछे जाते हैं अथवा ये असंरचित होते हैं। जिनमें कुछ विषय या प्रकरण ही पूर्वनिर्धारित होते हैं और वास्तविक प्रश्न वार्तालाप के दौरान उभर कर आते हैं। साक्षात्कार अधिक या कम गहन हो सकते हैं, इस अर्थ में कि साक्षात्कार लेने वाला एक व्यक्ति का लंबे समय (2-3 घंटे) तक साक्षात्कार ले सकता है या उनकी कहानी की विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए बार-बार साक्षात्कार कर सकता है।

साक्षात्कार पद्धति का एक लाभ यह भी होता है कि साक्षात्कारों में लचीलापन होता है, यानी कि संबंधित विषयों पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है, प्रश्नों को आवश्यकतानुसार तोड़ा-मरोड़ा या संशोधित किया जा सकता है और उत्तरदाता से उसके द्वारा दिए गए उत्तर को स्पष्ट करने के लिए भी कहा जा सकता है। साक्षात्कार पद्धति की एक कमज़ोरी यह है कि इसमें बहुत ज़्यादा लोगों को शामिल नहीं किया जा सकता और यह व्यक्तियाें के एक चयनित समूह के विचारों को ही प्रस्तुत कर सकता है।


प्रेक्षण

प्रेक्षण पद्धति के अंतर्गत शोधकर्ता को अपने शोध कार्य के लिए निर्धारित परिस्थिति या संदर्भ में क्या-कुछ हो रहा है इस पर बारीकी से नज़र रखनी होती है और उसका अभिलेख तैयार करना होता है। यह काम ऊपर से तो बहुत आसान दिखाई देता है पर व्यावहारिक रूप से हमेशा इतना सरल नहीं होता। कौन-सी घटना शोध कार्य की दृष्टि से प्रासंगिक है और कौन-सी नहीं है इसका पूर्वनिर्णय किए बिना जो कुछ हो रहा है उस पर सावधानीपूर्वक नज़र रखनी होती है। कभी-कभी, जो घटित नहीं हो रहा है वह वास्तव में जो घटित हो रहा है उतना ही महत्त्वपूर्ण या दिलचस्प होता है। उदाहरण के लिए, यदि आपका शोधप्रश्न यह हो कि विभिन्न वर्गों के लोग कुछ विशिष्ट स्थानों (जैसे, बाग, पार्क, मैदान या अन्य सार्वजनिक स्थान) का इस्तेमाल कैसे करते हैं, तब यह जानना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है कि एक दिए गए वर्ग या समूह के लोग (जैसे, उदाहरण के लिए, ग़रीब या मध्य वर्ग के लोग) उस जगह कभी नहीं गए हों अथवा उन्होंने उसे कभी देखा नहीं हो।


एक से अधिक पद्धतियों का सम्मिश्रण

आप एक ही शोध प्रश्न पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने के लिए पद्धतियों का सम्मिश्रण भी कर सकते हैं। वस्तुतः इस सम्मिश्रण को अपनाने के लिए अक्सर सिफ़ारिश की जाती है। उदाहरण के लिए, यदि आप सामाजिक जीवन में समाचारपत्र और टेलीविज़न जैसे जनसंचार के साधनों की बदलती हुई स्थिति के बारे में शोध कर रहे हैं तो आप सर्वेक्षण और एेतिहासिक पद्धतियों को एक साथ अपना सकते हैं। सर्वेक्षण आपको यह बतला देगा कि आज क्या हो रहा है, जबकि एेतिहासिक पद्धति से आपको यह पता चल सकेगा कि पहले पत्रिकाएँ, समाचारपत्र अथवा टेलीविज़न के कार्यक्रम कैसे होते थे।


7.2 छोटी शोध परियोजनाओं के लिए संभावित प्रकरण एवं विषय

यहाँ कुछ संभावित शोध विषयों के बारे में सुझाव दिए जा रहे हैं, ये सुझाव मात्र हैं, आप अपने अध्यापकों से परामर्श करके अन्य विषय चुन सकते हैं। स्मरण रहे कि यह विषय मात्र हैं; आपको इन विषयों पर आधारित निर्धारित प्रश्नाें का चुनाव करने की आवश्कता है। यह भी याद रखें कि इनमें से अधिकांश विषयों के लिए अधिकांश प्रणालियाँ अपनाई जा सकती हैं, लेकिन आपने जिस प्रश्न विशेष को चुना है, उसके लिए अपनाई जाने वाली प्रणाली उपयुक्त होनी चाहिए। आप प्रणालियों का सम्मिश्रण भी कर सकते हैं। सुझाए गए विषय किसी विशेष क्रम में नहीं दिए गए हैं। जो विषय आपकी पाठ्यपुस्तकों से स्पष्ट या प्रत्यक्ष रूप से नहीं लिए गए हैं, उन पर विशेष बल दिया गया है क्योंकि पाठ्य सामग्री से संबंधित अपने परियोजनागत विचारों पर सोचना आपके तथा आपके अध्यापकों के लिए अधिक आसान होगा।


1. सार्वजनिक परिवहन

लोगों के जीवन में इसकी क्या भूमिका है? इसकी आवश्यकता किन्हें होती है? उन्हें इसकी आवश्कता क्यों होती है? विभिन्न प्रकार के लोग सार्वजनिक परिवहन पर कितने निर्भर हैं? सार्वजनिक परिवहन से किस प्रकार की समस्याएँ और मुद्दे जुड़े हैं? सार्वजनिक परिवहन के साधन या उनके रूप समय के साथ किस प्रकार बदलते रहे हैं? क्या सार्वजनिक परिवहन की उपलब्धता में अंतर आने से सामाजिक समस्याएँ पैदा होती हैं? क्या एेसे समूह हैं जिन्हें सार्वजनिक परिवहन की आवश्यकता नहीं होती? उनकी इसके प्रति क्या सोच है? आप परिवहन के किसी एक विशेष साधन जैसे, ताँगा या रिक्शा या रेलगाड़ी को भी चुन सकते हैं और अपने कस्बे या शहर के संदर्भ में उसका इतिहास लिख सकते हैं। परिवहन के इस साधन में अब तक क्या-क्या परिवर्तन हुए हैं? इसका अन्य किन-किन साधनों के साथ तगड़ा मुकाबला रहा है? इस मुकाबले में किसकी जीत या हार हुई? इस हार या जीत के कारण क्या थे? परिवहन के इस साधन का भविष्य कैसा होगा? क्या कोई इसकी कमी महसूस करेगा?

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यदि आप दिल्ली में रहते हैं तो दिल्ली मेट्रो (रेल) के बारे में और जानने की कोशिश करें। क्या आप एक विज्ञान-कथा लिख सकते हैं कि आज से लगभग 50 साल बाद यानी 2050 या 2060 में यह मेट्रो रेलगाड़ी कैसी होगी? (याद रहे, एक अच्छी विज्ञान-कथा लिखना आसान नहीं होता! आप जो भी कल्पना करें उसके लिए कारण अवश्य दें। ये कल्पनाएँ वर्तमान वस्तुओं/स्थितियों/संबंधों से अलग होते हुए भी इनसे किसी मायने में जुड़ी भी होनी चाहिए। इसलिए आपको यह कल्पना करनी होगी कि भविष्य में सार्वजनिक परिवहन वर्तमान परिस्थितियों में से किस प्रकार विकसित होगा और आज की तुलना में, मेट्रो की भूमिका भविष्य में कैसी होगी)।


2. सामाजिक जीवन में संचार माध्यमों की भूमिका

संचार माध्यमों में जनसंचार के साधन जैसे, समाचारपत्र, टेलीविज़न, फ़िल्में, इंटरनेट, इत्यादि शामिल हो सकते हैं जो कि सूचना प्रदान करते हैं और बड़ी संख्या में लोगों द्वारा देखे जाते हैं या बड़ी संख्या में लोग इनका इस्तेमाल करते हैं। इनमें वे साधन भी शामिल किए जा सकते हैं जिनका प्रयोग लोग परस्पर संपर्क के लिए करते हैं जैसे, दूरभाष, पत्र, मोबाइल फ़ोन, ई-मेल और इंटरनेट। इन क्षेत्रों में आप उदाहरणार्थ, सामाजिक जीवन में संचार माध्यमों के बदलते हुए स्थान और मुद्रित सामग्री (पुस्तकें, समाचारपत्र, पत्रिकाएँ), रेडियो, टेलीविज़न एवं अन्य प्रमुख माध्यमों में होने वाले परिवर्तनों के बारे में अन्वेषण कर सकते हैं। एक अन्य स्तर पर आप फ़िल्मों, पुस्तकों आदि के संबंध में कुछ विशेष समूहों (वर्गों, आयु समूहों, लिंगों) की पसंदों और नापसंदों के बारे में विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछ सकते हैं। नए संचार माध्यमों (जैसे, मोबाइल फ़ोन या इंटरनेट) और उनके प्रभाव के बारे में लोगों का दृष्टिकोण क्या है? लोगों के जीवन में उनका स्थान क्या है, इस बारे में हम प्रेक्षण और पूछताछ के जरिये क्या जान सकते हैं? प्रेक्षण के माध्यम से आप कही गई बातों और वास्तविक व्यवहार के बीच के अंतर (यदि कोई हो) को जान सकते हैं। लोग जितने घंटे टेलीविज़न देखने के बारे में सोचते हैं क्या वह वास्तव में उतने ही घंटे टेलीविज़न देखते हैं या उनके विचार से कितने घंटे टेलीविज़न देखना उचित होगा, आदि)। संचार माध्यमों के बाह्य रूप में परिवर्तन हो जाने के कुछ परिणाम क्या हैं? (उदाहरण के लिए, क्या टेलीविज़न ने रेडियो और समाचारपत्रों के महत्त्व को वास्तव में कम कर दिया है अथवा प्रत्येक माध्यम का अपना अलग स्थान है?)। वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से लोग किसी एक या अन्य माध्यम को अधिक पसंद करते हैं?

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वैकल्पिक रूप से, आप संचार माध्यमों (समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, टेलीविज़न, आदि) की विषय-वस्तु के विश्लेषण के आधार पर चाहे जितनी परियोजनाओं पर कार्य करने की बात सोच सकते हैं और यह भी कि इन माध्यमों ने कुछ विशेष विषयों या प्रकरणों जैसे, विद्यालय और विद्यालयी शिक्षा, पर्यावरण, जाति, धार्मिक संघर्षों, खेल-कूद के कार्यक्रम, स्थानीय बनाम राष्ट्रीय या क्षेत्रीय समाचार, आदि का कैसा विवेचन किया है?


3. घर-परिवार में काम आने वाले उपकरण एवं घरेलू कार्य

एेसे घरेलू उपकरणों का मतलब है वे सभी उपकरण जो घरेलू काम में इस्तेमाल किए जाते हैं जैसे, गैस, कैरोसीन या अन्य प्रकार के स्टोव; मिक्सियाँ, विभिन्न प्रकार के खाद्य परिसाधक (फूड प्रोसेसर) और ग्राइंडर; कपड़ों पर इस्तरी करने के लिए बिजली या अन्य प्रकार की इस्तरियाँ; कपड़े धोने की मशीनें; ओवन; टोस्टर; प्रेशर कुुुुकर, आदि। समय के साथ घरेलू काम-काज में कैसा परिवर्तन हुआ है? क्या इन उपकरणों के आ जाने से काम का स्वरूप, विशेष रूप से घर-परिवार के भीतर श्रम-विभाजन का स्वरूप बदल गया है? वे लोग कौन हैं जो इन उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं? क्या वे अधिकतर पुरुष या स्त्रियाँ, जवान या बूढ़े, वेतन-भोगी या निःशुल्क काम करने वाले लोग हैं? इन उपकरणों का प्रयोग करने वाले उनके बारे में क्या महसूस करते हैं? क्या इन उपकरणों ने काम को वास्तव में आसान बना दिया है? क्या घर-परिवार के भीतर किए जाने वाले आयु से संबंधित कार्यों में कोई परिवर्तन आया है? (अर्थात्, क्या अब जवान/बूढ़े लोगों द्वारा किए जाने वाले विभिन्न प्रकार के कार्यों में, पहले की तुलना में, कोई अंतर आया है?)।

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वैकल्पिक रूप से, आप केवल इस बात पर ही ध्यान केंद्रित कर सकते हैं कि घर-परिवार के भीतर घरेलू कार्यों का बँटवारा कैसे किया जाता है, कौन क्या करता है और क्या इस बारे में हाल में कोई परिवर्तन हुआ है?


4. सार्वजनिक स्थान का उपयोग

यह शोध विषय उन सार्वजनिक स्थानों (जैसे, खुला मैदान, सड़क के किनारे की जगह या पैदल-पटरी, आवासीय बस्तियों में खाली पड़े भूखंड, सार्वजनिक कार्यालयों के बाहर की खाली जगह, आदि) के बारे में है जिनका उपयोग विभिन्न तरह से किया जाता है। उदाहरण के लिए, कुछ खाली जगहों में तो कई तरह के छोटे-छोटे काम-धंधे चलते हैं जैसे, सड़क के किनारे की खाली जगह में छिटपुट सामान बेचने वाले खड़े होते हैं, छोटी-मोटी कामचलाऊ दुकानें होती हैं अथवा वाहन खड़े किए जाते हैं। अन्य जगहें, वैसे तो खाली दिखाई देती हैं, लेकिन समय-समय पर विभिन्न तरीकों से काम में लाई जाती है जैसे, विवाह या धार्मिक समारोहों के लिए, सार्वजनिक बैठकों के लिए, अथवा कई तरह की चीजें फेंकने के लिए.... अनेक खाली स्थानों पर बेघर गरीब लोग रहने लगते हैं और इस प्रकार वहाँ उनके घर ही बन जाते हैं। इस सामान्य विषय पर आप कुछ शोध प्रश्न तैयार करने की कोशिश करेंः विभिन्न वर्गों के लोग सार्वजनिक स्थान के उपयोग के बारे में क्या महसूस करते हैं? इन वर्गों के लिए इस खाली जगह का क्या उपयोग हो सकता है? आपके पड़ोस में स्थित किसी खाली जगह का इस्तेमाल, समय के साथ, कैसे बदलता रहा है? क्या इसकी वजह से कोई लड़ाई-झगड़ा या मनमुटाव होता है? इन झगड़ों के क्या कारण हैं?

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5. विभिन्न आयु वर्गों की बदलती हुई आकांक्षाएँ

क्या आपके संपूर्ण जीवन में आपकी महत्त्वाकांक्षाएँ सदा एक जैसी ही रही हैं? अधिकांश लोग विशेष रूप से छोटी उम्र में अपने लक्ष्य बदलते रहते हैं। इस शोध विषय के अंतर्गत यह पता लगाने का प्रयत्न किया जाता है कि यह परिवर्तन कौन से हैं और क्या विभिन्न समूहों में इन परिवर्तनों का कोई विशेष स्वरूप है। इस संबंध में शोध कार्य करने के लिए आप विभिन्न प्रकार के विद्यालयों में विभिन्न आयु वर्गों (जैसे, कक्षा 5, 8 और 11) के बच्चों, स्त्री-पुरुष, विभिन्न पैतृक पृष्ठभूमि, आदि के लोगों को चुन सकते हैं और यह देख सकते हैं कि क्या उनमें परिवर्तन का कोई विशेष रूप दिखाई देता है। आप अपने शोध कार्य में वयस्कों को भी शामिल कर सकते हैं और यह देख सकते हैं कि क्या उन्हें कोई एेसा परिवर्तन याद आता है और क्या विद्यालय जाने वाले बच्चों की तुलना में विद्यालयी शिक्षा समाप्त कर चुके बच्चों में परिवर्तनों का कोई निश्चित स्वरूप है।

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6. एक वस्तु की जीवनी

आप अपने घर में मौजूद एक विशेष उपभोग वस्तु जैसे, टेलीविज़न, मोटर साइकिल, कारपेट (कालीन) या फर्नीचर के बारे में सोचें। यह कल्पना करने की कोशिश करें कि उस वस्तु का जीवन-इतिहास क्या रहा होगा। आप अपने आपको वह वस्तु मानकर अपनी ‘आत्मकथा’ लिखें। उस वस्तु को अपनी वर्तमान स्थिति तक पहुँचने के लिए विनिमय के किन दौरों से गुजरना पड़ा है? क्या आप उन सामाजिक संबंधों को खोज सकते हैं जिनके माध्यम से वह वस्तु बनाई, बेची और खरीदी गई थी? इसका इसके मालिकों यानी आप, आपके परिवार, समुदाय के लिए क्या प्रतीकात्मक महत्त्व है?

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यदि आपका टेलीविज़न (या सोफा-सेट अथवा मोटर साइकिल...) स्वयं सोच या बोल सकता तो वह उन लोगों के बारे में क्या कहता जिनके संपर्क में वह आया है? (जैसे, आपका परिवार अथवा अन्य परिवार या घर जिनकी आप कल्पना कर सकते हों)।