1 संरचनात्मक परिवर्तन

वर्तमान को समझने के लिए यह जरूरी है कि उसके अतीत के कुछ पक्षों की भी जानकारी हो। अतीत का यह ज्ञान किसी भी व्यक्ति या समूह या फिर भारत जैसे पूरे देश को जानने हेतु आवश्यक है। भारत का इतिहास काफ़ी समृद्ध एवं विस्तृत है। भारत के अतीत की जानकारी प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत को जानने से मिलती है। जबकि आधुनिक भारत को समझने के लिए ज़रूरी है कि भारत के औपनिवेशिक अनुभवों को जानें। भारत में आधुनिक विचार एवं संस्थाओं की शुरुआत औपनिवेशिकता की देन है। उपनिवेशवाद के प्रभाव के कारण भारत ने आधुनिक विचारों को जाना। यह एक विरोधाभासी स्थिति भी थी। इस दौर में भारत ने पाश्चात्य उदारवाद एवं स्वतंत्रता को आधुनिकता के रूप में जाना वहीं दूसरी ओर इन पश्चिमी विचारों के विपरीत भारत में ब्रितानी उपनिवेशवादी शासन के अंतर्गत स्वतंत्रता एवं उदारता का अभाव था। इस तरह के अंतः विरोधी तथ्यों ने भारतीय सामाजिक संरचना एवं संस्कृति में परिवर्तनों को दिशा दी एवं उन पर प्रभाव डाला। एेसे अनेक संरचनात्मक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के बारे में अध्याय 1 और 2 में चर्चा की गई है।

अगले कुछ पाठों में यह बात साफ़ उभर कर आएगी कि किस प्रकार भारत में सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय आंदोलन, हमारी विधि व्यवस्था, हमारा राजनीतिक जीवन और संविधान, हमारे उद्योग एवं कृषि, हमारे नगर और हमारे गाँव–इन सब पर उपनिवेशवाद के विरोधाभासी अनुभवों का गहरा प्रभाव पड़ा। उपनिवेशवाद के साथ हमारे इन विरोधाभासी संबंधों का प्रभाव आधुनिकता पर भी पड़ा। इसके कुछ उदाहरण, जो हम अपने आम जीवन में पाते हैं, वेे इस प्रकार हैंः-

हमारे देश में स्थापित संसदीय, विधि एवं शिक्षा व्यवस्था ब्रिटिश प्रारूप व प्रतिमानों पर आधारित है। यहाँ तक कि हमारा सड़कों पर बाएँ चलना भी ब्रिटिश अनुकरण है। सड़क के किनारे रेहड़ी व गाड़ियों पर हमें ‘ब्रेड-अॉमलेट’ और ‘कटलेट’ जैसी खाने की चीजें आमतौर पर मिलती हैं। और तो और, एक प्रसिद्ध बिस्कुट निर्माता कंपनी का नाम भी ‘ब्रिटेन’ से संबद्ध है। अनेक स्कूलों में ‘नेक-टाई’ पोशाक का एक अनिवार्य हिस्सा होता है। कितनी पाश्चात्यता है हमारे दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली इन चीजों में। हम प्रायः पश्चिम की प्रशंसा करते हैं, लेकिन अक्सर विरोध भी करते हैं। एेसे बहुत से उदाहरण हमें अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में देखने को मिलते हैं। इन उदाहरणों से पता चलता है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद अब भी हमारे जीवन का एक जटिल हिस्सा है।

हम अंग्रेज़ी भाषा का उदाहरण ले सकते हैं, जिसके बहुआयामी और विरोधात्मक प्रभाव से हम सब परिचित हैं। उपयोग में आने वाली अंग्रेज़ी मात्र भाषा नहीं है बल्कि हम पाते हैं कि बहुत से भारतीयों ने अंग्रेज़ी भाषा में उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाएँ भी की हैं। अंग्रेज़ी के ज्ञान के कारण भारत को भूमंडलीकृत अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में एक विशेष स्थान प्राप्त है। लेकिन यह भी नहीं भूला जा सकता है कि अंग्रेज़ी आज भी विशेषाधिकारों की द्योतक है। जिसे अंग्रेज़ी का ज्ञान नहीं होता है उसे रोज़गार के क्षेत्र में परेशानियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन दूसरी ओर अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान अनेक वंचित समूहों के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ है। दलितों के संदर्भ में ये बातें उपयुक्त हैं। परंपरागत व्यवस्था में दलितों को औपचारिक शिक्षा से वंचित रहना पड़ा था। अंग्रेज़ी के ज्ञान से अब दलितों के लिए भी अवसरों के द्वार खुल गए हैं।

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Virtually English

Housewives and college students who know English take up plum assignments as online scorers in BPOs, writes K. Jeshi

It is a familiar classroom scene. The only unfamiliar thing is the setting. Computer screens turn blackboards and housewives take over as teachers to evaluate English essays written by non-English speaking students in Asia. All, at the click of the mouse. The encouraging comments given by the evaluators here motivate students in Japan, Korea and China to learn English. 

Online education, the new wave in the BPO segment, is bringing cheer to those who want to earn a fast buck. All you need is a flair for English, creative skills, basic computer knowledge, the drive to go that extra mile and willingness to learn.

Source: The HINDU, Thursday, May 04, 2006


क्रियाकलाप 1.1

→ एेसी सभी चीज़ों, प्रघटनाओं एवं प्रक्रियाओं की सूची तैयार करें जिनका संबंध औपनिवेशिक युग अर्थात् "ब्रिटिश काल" से हो, आम जीवन में उपयोग की जाने वाली वस्तुएँ, जैसे फर्नीचर, खाद्य-पदार्थ, भारतीय भाषाओं में उपयोग की जाने वाली कहावतें, मुहावरे आदि।

→ किसी भी भारतीय भाषा के उपन्यास, लघुकथा, सिनेमा या टेलीविजन धारावाहिकों के बारे में बताएँ जो औपनिवेशिक काल की याद दिलाते हों।

→ आपने सिनेमा या टेलीविजन धारावाहिकों में अदालती कार्यवाही का दृश्य देखा होगा। क्या आपने उस कार्यवाही पर ध्यान दिया है? यह कार्यवाही बड़े पैमाने पर ब्रिटिश व्यवस्था का अनुकरण करती है। कुछ वर्ष पूर्व तक यह देखा जाता था कि भारतीय न्यायाधीश बनावटी बालों वाला टोप पहना करते थे। पता कीजिए कि यह कैसे प्रचलन में आया और इसकी उत्पत्ति कहाँ हुई थी?

इस अध्याय में हमने उन अनेक संरचनात्मक परिवर्तनों का उल्लेख किया है जो उपनिवेशवाद के कारण आए। अब हम इस जानकारी केे बाद उपनिवेशवाद को एक संरचना एवं व्यवस्था के रूप में समझेंगे। उपनिवेशवाद ने राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक संरचना में नवीन परिवर्तन उत्पन्न किए। इस अध्याय में हम दो संरचनात्मक परिवर्तनों "औद्योगीकरण एवं नगरीकरण" की चर्चा करेंगे। हमारे विवेचन का मुख्य केंद्र तो विशिष्ट औपनिवेशिकतावाद होगा, पर साथ ही हम स्वतंत्र भारत में हुए विकास का भी उल्लेख करेंगे।

इन सभी संरचनात्मक परिवर्तनों के साथ सांस्कृतिक परिवर्तन भी हुए जिनकी चर्चा हम अगले अध्याय में करेंगे। हालाँकि इन दोनों परिवर्तनों को अलग करना बहुत कठिन है। फिर भी आप देखेंगे कि संरचनात्मक परिवर्तनों की चर्चा कैसे सांस्कृतिक परिवर्तनों को सम्मिलित किए बिना कठिन है?


1.1 उपनिवेशवाद की समझ

एक स्तर पर, एक देश के द्वारा दूसरे देश पर शासन को उपनिवेशवाद माना जाता है। आधुनिक काल में पश्चिमी उपनिवेशवाद का सबसे ज्यादा प्रभाव रहा है। भारत के इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ काल और स्थान के अनुसार विभिन्न प्रकार के समूहों का उन विभिन्न क्षेत्रों पर शासन रहा जो आज के आधुनिक भारत को निर्मित करते हैं, लेकिन औपनिवेशिक शासन किसी अन्य शासन से अलग और अधिक प्रभावशाली रहा। इसके कारण जो परिवर्तन आए वह अत्यधिक गहरे और भेदभावपूर्ण रहे हैं। इतिहास एेसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिसमें दूसरे देश के क्षेत्रों पर कब्ज़ा करके राजनीतिक क्षेत्र का विस्तार किया गया। एेसे अनगिनत उदाहरण हैं जिसमें कमजोर लोगों पर शक्तिशाली लोगों ने शासन किया। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि पूँजीवाद के आने से पहले के साम्राज्य और पूँजीवादी दौर के शासन में गुणात्मक अंतर है। पूर्व-पूँजीवादी शासक अपने प्रभुत्व से लाभ प्राप्त कर सके जो उनके निरंतर शासन अथवा विरासत से व्यक्त होता है। कुल मिलाकर पूर्व-पूँजीवादी शासक समाज के आर्थिक आधार में हस्तक्षेप नहीं कर सके। उन्होंने परंपरागत आर्थिक व्यवस्थाओं पर कब्ज़ा करके अपनी सत्ता को बनाए रखा। (अल्वी एवं शानिन)

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इसके विपरीत ब्रितानी उपनिवेशवाद पूँजीवादी व्यवस्था पर आधारित था। इसने प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक व्यवसाय में बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप किए। जिनसे ब्रितानी पूँजीवाद का विस्तार हुआ और उसे मजबूती मिली। उदाहरण के लिए भूमि संबंधी नियमों को लें। ब्रितानी उपनिवेशवाद ने केवल भूमि स्वामित्व के नियमों को ही नहीं बदला अपितु यह भी निर्धारित किया कि कौन सी फसल उगाई जाए और कौन सी नहीं। इसने उत्पादन क्षेत्र को भी नहीं छोड़ा। वस्तुओं के उत्पादन की प्रणाली और उनके वितरण के तरीकों को भी बदल दिया। यहाँ तक कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने ब्रिटिश पूँजीवाद के प्रसार के लिए जंगलों को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने पेड़ों की कटाई और बागानों में चाय की खेती की शुरुआत कराई। जंगल को नियंत्रित एवं प्रशासित करने के लिए अनेक कानून भी बनाए। इससे जंगल पर आश्रित गड़रिये व ग्रामीण लोगों के जीवन में परिवर्तन आए। नए औपनिवेशिक कानूनों के अंतर्गत ग्रामीणों, चरवाहों व गड़रियों का जंगलों में आना-जाना प्रतिबंधित कर दिया गया। अब जंगल से भेड़-बकरियों, गाय-भैंसों आदि पशुओं के लिए चारा इकट्ठा करना दुर्लभ हो गया। नीचे दिए गए बॉक्स में संक्षेप में बताया गया है कि किस प्रकार औपनिवेशिक कानून, विशेषकर जंगलों से संबंधित कानून, ने पूर्वोत्तर भारत पर प्रभाव डाला। इस संदर्भ में पूर्वोत्तर भारत में जंगल से संबंधित औपनिवेशिक नीतियाँ उल्लेखनीय हैं।


बॉक्स 1.1
पूर्वोत्तर भारत में जंगल से संबंधित औपनिवेशिक नीतियाँ

बंगाल में रेलवे की शुरुआत... एक निर्णायक घटना थी, जिससे असम की जंगल से संबंधित नीतियों में एक परिवर्तन आया (उस समय असम बंगाल प्रांत का एक हिस्सा था); अब ये नीतियाँ उदार न होकर हस्तक्षेपवादी हो

गईं...जैसे-जैसे रेलवे के शयनयानों की माँग बढ़ी वैसे-वैसे असम का वह जंगल जो व्यावसायिक दृष्टि से बहुत उपयोगी नहीं था, राजस्व कमाने का एक आकर्षक संसाधन बन गया (उन दिनों का असम, आज के सातों पूर्वोत्तर राज्यों से मिलकर बनता था)।

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भारत में पहले क्रीक पुल जो कि थाणे के पास है। उसके ऊपर से गुजरती हुई रेलगाड़ी-1854

1861 और 1878 के बीच, 269 वर्ग मील का विस्तृत जंगल आरक्षित घोषित कर दिया गया। सन् 1894 तक यह क्षेत्र 3683 वर्गमील का हो गया। और यह बढ़ते-बढ़ते 19वीं सदी के अंत तक 20061 वर्ग मील का हो गया, (जिसमें कुल प्रांत का 42.2 प्रतिशत क्षेत्रफल था) इसमें से 3,609 वर्ग मील को आरक्षित रखा गया था। इसमें गौर करने की बात यह है कि जंगल का वो बड़ा क्षेत्र जिसमें आदिवासी समुदायों का निवास था और जो सदियों से वहाँ जीवनयापन करते आए थे, भी प्रशासकीय नियंत्रण में आ गया। पहाड़ी क्षेत्रों में आदिवासी जनजातीय समुदाय जंगलों से संबद्ध होकर प्रकृति के साथ मैत्रीपूर्ण जीवन जीते थे। (नौंगबरी, 2003)


बॉक्स 1.2

सन् 1834 से लेकर 1920 तक, भारत के अनेकों बंदरगाहों से नियमित रूप से जहाज़ जाते थे। उन जहाजों में विभिन्न धर्मों, लिंग, वर्गों व जातियों के भारतीय लोग होते थे जिन्हें कम से कम पाँच साल के लिए मॉरीशस के बागानों में मजदूरी करने के लिए पहुँचाया जाता था। इसके लिए कई दशकों तक लोगों का चयन मुख्यतः बिहार प्रांत के विशेषकर पटना, गया, आरा, सारण, तिरहुत, चंपारण, मुंगेर, भागलपुर और पूर्णिया जिलों में से होता था। (पाइनीओ 1984)

उपनिवेशवाद ने लोगों की आवाजाही को भी बढ़ाया। भारत के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आना जाना चलता रहा। जैसे आज के झारखंड प्रदेश से, उन दिनों, बहुत सेे लोग चाय बागानों में मजदूरी करने के उद्देश्य से असम आए। उन्हीं दिनों एक नए मध्य वर्ग का भी उद्भव हुआ जो मुख्यतः बंगाल और मद्रास क्षेत्र से था। उसमें वे लोग थे जिनको उपनिवेशवादी शासन ने देश के विभिन्न भागों से सेवा के लिए चुना था इसके अलावा विभिन्न पेशेवर लोग जैसे–डॉक्टर एवं वकील। इन सरकारी सेवाकर्मियों और व्यवसायियों का भी बहुत आवागमन होता रहा। यह आवागमन भारत तक ही सीमित नहीं रहा। उपनिवेशवादी शासन ने भारतीय मजदूरों एवं दक्ष सेवाकर्मियों को जहाज़ों के माध्यम से सुदूर एशिया, अफ्रीका और अमरीका में स्थित अन्य उपनिवेशों में भी भेजा। कितने लोग तो जहाज़ पर रास्ते में ही मर जाते थे। जाने वाले अधिकांश लोगों में से कुछ तो कभी लौट कर ही नहीं आए। आज उन भारतीयों के वंशजों को "भारतीय मूल" का माना जाता है। दुनिया के अनेक देशों में भारतीय मूल के लोग पाए जाते हैं जो वस्तुतः भारत के उपनिवेशवादी शासन के दौरान उन देशों में पहुँचे।

व्यवस्थित शासन के लिए उपनिवेशवाद ने विभिन्न क्षेत्रों में भारी परिवर्तन की शुरुआत की। ये परिवर्तन वैधानिक, सांस्कृतिक अथवा वास्तुकला आदि क्षेत्रों में लाए गए। वस्तुतः उपनिवेशवाद वृहद एवं तीव्र रूप से लाए गए परिवर्तनों की कहानी थी। इनमें से कुछ परिवर्तन तो अप्रकट रूप में थे जबकि अनेक सुनियोजित तरीके से लाए गए थे। जैसे कि हम पाते हैं कि पश्चिमी शिक्षा पद्धति को भारत में इस उद्देश्य से लाया गया कि उससे भारतीयों का एक एेसा वर्ग तैयार हो जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद को बनाए रखने में सहयोगी हो। लेकिन हम यह भी पाते हैं कि यही पश्चिमी शिक्षा पद्धति राष्ट्रवादी चेतना एवं उपनिवेश विरोधी चेतना का माध्यम बनी।

उपनिवेशवाद के आयामों व तीव्रता को समझने के लिए यह आवश्यक है कि पूँजीवाद की संरचना को समझा जाए। पूँजीवाद एेसी आर्थिक व्यवस्था है जिसमें उत्पादन के साधन का स्वामित्व कुछ विशेष लोगों के हाथों में होता है। और इसमें ज़्यादा से ज़्यादा मुनाप्.ाηा कमाने पर ज़ोर दिया जाता है। (कक्षा 12 की पहली पाठ्यपुस्तक भारतीय समाज में पूँजीवादी बाज़ार के बारे में विस्तार से चर्चा की जा चुकी है)। पश्चिम में पूँजीवाद का प्रारंभ एक जटिल प्रक्रिया के फलस्वरूप हुआ। इस प्रक्रिया में मुख्य रूप से यूरोप द्वारा शेष दुनिया की खोज, गैर यूरोपीय देशों की संपत्ति और संसाधनों का दोहन, विज्ञान और तकनीक का अद्वितीय विकास और इसके उपयोग से उद्योग एवं कृषि में रूपांतरण आदि सम्मिलित हैं। पूँजीवाद को प्रारंभ से ही इसकी गतिशीलता, वृद्धि की संभावनाएँ, प्रसार, नवीनीकरण, तकनीक और श्रम के बेहतर उपयोग के लिए जाना गया। इन्हीं गुणों के कारण पूँज़ीवाद ज़्यादा से ज़्यादा लाभ सुनिश्चित करता है। पूँजीवादी दृष्टिकोण से बाज़ार को एक वृहद-भूमंडलीकृत रूप में देखा गया। पश्चिमी उपनिवेशवाद का पश्चिमी पूँजीवाद के विकास से अन्योन्याश्रित संबंध है। यही बात औपनिवेशिक भारत के संदर्भ में भी कही जा सकती है। भारत में भी पूँजीवाद के विकास के कारण उपनिवेशवाद प्रबल हुआ और इस प्रक्रिया के दूरगामी प्रभाव भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचना पर पड़े। अगले भाग में हम औद्योगीकरण और नगरीकरण के बारे में जानेंगे और समझेंगे कि कैसे उपनिवेशवाद के प्रभाव से कुछ विशिष्ट प्रारूपों का उद्भव हुआ।

अगर पूँजीवादी व्यवस्था सशक्त आर्थिक व्यवस्था बन सकती है तो ‘राष्ट्र राज्य’ भी सशक्त एवं प्रबल राजनीतिक रूप ले सकता है। आज यह बड़ा स्वाभाविक लगता है कि हम सब राष्ट्र राज्य में रहते हैं और हमें राष्ट्रीयता यानी कि राष्ट्र की नागरिकता स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। क्या आपको पता है कि पहले विश्वयुद्ध के पूर्व अंतर्राष्ट्रीय आवागमन के लिए पासपोर्ट का अधिक चलन नहीं था, कुछ ही क्षेत्रों के लोगों के पास यह उपलब्ध था समाजों का संगठन सामान्यतः इन आधारों पर नहीं होता था। राष्ट्र राज्य एक विशिष्ट प्रकार के राज्य के लिए उपयोगी है, जो कि आधुनिक समाज का लक्षण है। सरकार को एक विशेष क्षेत्र (टेरीटरी) में संप्रभुता प्राप्त होती है और इसमें रहने वाले लोग एक राष्ट्र के नागरिक होते हैं। ‘नेशन स्टेट’ या राष्ट्र-राज्य राष्ट्रवाद के उदय से घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। राष्ट्रवादी सिद्धांत के अनुसार किसी क्षेत्र विशेष में लोगों के समूह को स्वतंत्रता एवं संप्रभुता प्राप्त होती है। उन्हें अधिकार प्राप्त होता है कि वे अपनी स्वतंत्रता एवं संप्रभुता का इस्तेमाल कर सकें। ये प्रजातांत्रिक विचारों के उद्भव का महत्वपूर्ण हिस्सा है। अध्याय-3 में आप इसके बारे में विस्तार से जान पाएँगे। आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद के सिद्धांत तथा प्रजातांत्रिक अधिकार के बीच विपरीतार्थक संबंध है। हमने जाना है कि उपनिवेशवाद का मतलब, साधारणतः विदेशी शासन जैसे भारत में ब्रिटिश शासन से है जबकि इसके विपरीत राष्ट्रवाद का निर्देश था कि भारत के लोग या किसी भी उपनिवेशीय समाज के लोगों को संप्रभु होने का समान अधिकार है। भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं ने इस विरोधाभास को सही समय पर समझा। उन लोगों ने घोषणा कर दी कि स्वाधीनता उनका जन्मसिद्ध अधिकार है और वे राजनीतिक एवं आर्थिक स्वाधीनता के लिए लड़ें।


1.2 नगरीकरण और औद्योगीकरण

औपनिवेशिक अनुभव

औद्योगीकरण का संबंध यांत्रिक उत्पादन के उदय से है जो शक्ति के गैरमानवीय संसाधन जैसे वाष्प या विद्युत पर निर्भर होता है। बहुत सारी पश्चिमी समाजशास्त्रीय पुस्तकों में यह बताया गया है कि अति विकसित परंपरात्मक सभ्यताओं में भी खेत या जमीन पर उत्पादन से संबंधित कार्य करने के लिए अधिकाधिक मानवों की आवश्यकता होती थी। अपेक्षाकृत निम्न तकनीकी विकास की वजह से बहुत ही कम लोग कृषि के कार्य से अतिरिक्त कुछ अन्य आसान व्यवसाय कर सकते थे। इसके विपरीत, औद्योगिक समाजों में ज़्यादा से ज़्यादा रोज़गारवृत्ति में लगे लोग कारखानों, अॉफिसों और दुुकानों में कार्य करते हैं। औद्योगिक परिवेश में कृषि संबंधी व्यवसाय में लोगों की संख्या कम होती जाती है। यह देखने में आया है कि पश्चिम में 90 प्रतिशत से ज़्यादा लोग कस्बों और शहरों में रहते हैं क्योंकि वहीं पर रोजगार व व्यवसाय के अवसर अधिक होते हैं। अतः हम नगरीकरण को औद्योगीकरण से जोड़कर देखते हैं। ये दोनों प्रायः एक साथ होने वाली प्रक्रियाएँ हैं, लेकिन हमेशा एेसा नहीं होता।

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जयपुर

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चेन्नई

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मुंबई

उदाहरण के लिए ब्रिटेन औद्योगीकरण से गुज़रने वाला पहला समाज था जो सबसे पहले ग्रामीण से रूपांतरित होकर नगरीय देश बना।

सन् 1800 में 10,000 निवासियों वाले कस्बों और शहरों में पूरी जनसंख्या के 20 प्रतिशत लोग रहते थे। सन् 1900 तक यह अनुपात 74 प्रतिशत का हो गया। राजधानी लंदन में, सन् 1800 में, लगभग 1.1 करोड़ लोग रहा करते थे। बीसवीं सदी के प्रारंभ तक यह आकार बढ़कर इतना हो गया कि इसकी जनसंख्या तकरीबन 7 करोड़ हो गई थी। लंदन, उस वक्त तक दुनिया का सबसे बड़ा नगर था वह उत्पादन, वाणिज्य और आर्थिकी का सबसे बड़ा केंद्र था। यह केंद्र निरंतर फैलते हुए ब्रिटिश साम्राज्य का हृदय क्षेत्र हो गया था। (गिडिन्स, 2001: 572)


बॉक्स 1.3

भारत की जनगणना रिपोर्ट 1911, अंक-1, पृष्ठ संख्या-408

भारत में सस्ते यूरोपीय कपड़ों के थान और बर्तनों का अबाध और तीव्र गति से आयात और पश्चिमी रूपरेखा वाले उद्योगों के भारत में ही लग जाने के बाद भारत के ग्रामीण उद्योगों का लगभग सफ़ाया ही हो गया। खेती से हुई उपज की ऊँची कीमत को देखते हुए ग्रामीण कारीगरों ने अपने वंशानुगत व्यवसाय को छोड़कर खेती करना शुरू कर दिया। ग्रामीण संगठनों और कारोबारों का विघटन प्रत्येक क्षेत्र में अलग-अलग गति से हुआ। विकसित प्रांतों में यह परिवर्तन ज़्यादा स्पष्ट रूप से दिखा।


यह कौतूहल की बात है कि ठीक इसी ब्रिटिश औद्योगीकरण का एक उल्टा असर यानी कि भारत के कुछ क्षेत्रों में औद्योगिक क्षरण (डीइंडस्ट्रिीयलाइजेशन) हुआ। भारत में कुछ पुराने, परंपरात्मक नगरीय केंद्रों का भी पतन हो गया। जिस तरह ब्रिटेन में उत्पादन व निर्माण में चढ़ाव आया, उसके विपरीत भारत में गिरावट आई। परंपरागत ढंग से होने वाले रेशम और कपास का उत्पादन और निर्यात "मेनचेस्टर प्रतियोगिता" में गिरता चला गया। भारत के प्राचीन नगर, जैसे सूरत और मसुलीपट्नम जहाँ से व्यापार हुआ करता था, का अस्तित्व कमज़ोर होने लगा जबकि आधुनिक नगर जैसे बंबई और मद्रास जो उपनिवेशवादी शासन में प्रचलित हुए, मजबूत होते गए। भारतीय राज्यों पर ब्रिटिश अधिकार के बाद तंजौर, ढाका, और मुर्शीदाबाद की राजसभाओं का विघटन हो गया फलतः इन राजसभाओं के संरक्षण में कार्यरत कारीगर, कलाकार और कुलीन लोगों का भी पतन हुआ। 19वीं सदी के अंत से भारत के कुछ आधुनिक नए शहरों में जहाँ यांत्रिक उद्योग लगाए गए थे, लोगों की जनसंख्या बढ़ने लगी।


बॉक्स 1.4

ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश शासन ने (भारत को) बदले में जो दिया वह था - भूमि-स्वामित्व और अंग्रेज़ी में शिक्षा की सुविधा। कुछ तथ्य यह साबित करते हैं कि जो विकल्प दिए गए थे वे मध्य वर्ग का गठन करने के लिए समुचित नहीं थे। यह पहला तथ्य है कि प्रारंभ में इसका कृषि से हुई उपज से कोई लेना-देना नहीं था और दूसरा, भारत की सांस्कृतिक परंपरा से कोई संबंध नहीं था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि जमींदार ज़मीन के परजीवी हो गए और शिक्षित स्नातक बस नौकरी ढूँढ़ने वाले।

(मुखर्जी 1979:114)


क्रियाकलाप 1.2

→ तीनों नगरों की शुरुआत (उद्भव और विकास) के बारे में और जानकारी इकट्ठा करें।

→ इनके पुराने नामों के बारे में भी पता करें जिन्हें बदलकर अब बंबई से मुंबई, मद्रास से चेन्नई, कलकत्ता से कोलकाता, बंगलोर से बंगलूरु किया गया है।

→ अन्य शहरी उपनिवेशी नगरों के विकास के बारे में पता लगाइए?


नगरों में स्थित उत्पादकों के द्वारा बनाए गए विलासिता के सामानों, ढाका या मुर्शीदाबाद की उच्चकोटि की रेशम की माँग में दरबारों के विघटन के बाद भारी कमी हो गई। ये उत्पाद जिन बाह्य बाज़ारों पर निर्भर थे उनका भी कमोबेश सफ़ाया हो गया था। दूर-दराज के क्षेत्रों के ग्राम, शिल्प विशेषतः पूर्वी भारत के उन क्षेत्रों के अतिरिक्त जहाँ अंग्रेज़ों का प्रवेश जल्दी और सघन था अधिक समय तक स्थिर रहे, जब तक कि रेलवे के विस्तार ने उन्हें गंभीर रूप से प्रभावित नहीं किया।

(सरकार 1983: 29)


बॉक्स 1.5
दक्षिण एशिया के औपनिवेशिक नगर का प्रारूप

यूरोपीय शहर में.....विशाल बंगले, सुसज्जित मकान, सुनियोजित सड़क, सड़कों के दोनों किनारों पर पेड़...दोपहर और शाम को मिलने-जुलने के लिए क्लब ... खुली जगहों को पश्चिमी रूपरेखा के मनोरंजन की सुविधाओं, जैसे घुड़दौड़, गोल्फ, फुटबॉल और क्रिकेट के लिए सुरक्षित रखा गया था। जब घरेलू जलापूर्ति, विद्युत संपर्क और दूषित पानी के निष्कासन की सुविधाएँ मौजूद थी और तकनीकी स्तर पर संभव थीं तब यूरोपीय नगरों में रहने वाले लोगों ने उसका भरपूर इस्तेमाल किया। इन सुविधाओं का उपयोग केवल यूरोपीय मूल के नागरिकों के लिए ही सुलभ था।

(दत्त 1993 : 361)


ब्रिटेन में औद्योगीकरण के प्रभाव से ज़्यादातर लोग नगरों में आए लेकिन इसके विपरीत भारत में ब्रिटिश औद्योगीकरण के प्रारंभिक समय में ज़्यादातर लोगों को कृषि की ओर जाना पड़ा। भारतीय जनगणना रिपोर्ट इसे स्पष्ट रूप से दर्शाती है।

भारत में समाजशास्त्रीय लेखन में उपनिवेशवाद के विरोधाभासी और अनिच्छित परिणामों के बारे में अक्सर चर्चा की गई है। पश्चिमी औद्योगीकरण और उसके परिणामस्वरूप उभरे मध्यवर्ग की तुलना भारत में हुए औद्योगीकरण के अनुभवों के साथ की जाती रही है। एेसी ही एक झलक बॉक्स में दिए गए विवरण से मिलती है। निम्नलिखित तर्क से यह भी पता चलता है कि औद्योगीकरण का मतलब केवल मशीनों पर आधारित उत्पाद ही नहीं बल्कि यह नए सामाजिक समूहों और नए सामाजिक संबंधों के उद्भव और विकास की कहानी है। दूसरे शब्दों में यह भारतीय सामाजिक संरचना में हुए परिवर्तनों के बारे में है।

ब्रिटिश साम्राज्य की अर्थव्यवस्था में नगरों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। समुद्र तटीय नगर जैसे बंबई, कलकत्ता और मद्रास उपयुक्त माने गए थे। क्योंकि इन जगहों से उपभोग की आवश्यक वस्तुओं का निर्यात आसानी से किया जा सकता था। साथ ही, यहीं से उत्पादित वस्तुओं का सस्ती लागत से आयात किया जा सकता था। औपनिवेशिक नगर ब्रिटेन में स्थित आर्थिक केंद्र और औपनिवेशिक भारत में स्थित हाशिये के बीच महत्वपूर्ण संपर्क सूत्र थे। इस प्रकार ये नगर भूमंडलीय पूँजीवाद के ठोस उदाहरण थे। उदाहरण के रूप में औपनिवेशिक भारत में, बंबई को इस प्रकार सुनियोजित ढंग से विकसित किया गया था कि सन् 1900 तक भारत की एक तिहाई कच्ची कपास को जहाज़ से भेजा जा चुका था। कोलकाता से जूट (पटसन) का निर्यात होता था जबकि चेन्नई से कहवा, चीनी, नील और कपास ब्रिटेन को निर्यात किया जाता था।

औपनिवेशिक काल के नगरीकरण में पुराने शहरों का अस्तित्व कमजोर होता गया और उनकी जगह पर नए औपनिवेशिक शहरों का उद्भव और विकास हुआ। कोलकाता (उन दिनों का कलकत्ता) एेसा पहला नगर था। सन् 1690 में एक अंग्रेज़ व्यापारी, जिसका नाम जॉब चारनॉक था, ने हुगली नदी के तट से लगे तीन गाँवों-कोलीकाता, गोविंदपुर, और सुतानुती को पट्टे पर लिया। उसका उद्देश्य उन तीनों गाँवों में व्यापार के अड्डे बनाना था। हुगली नदी के किनारे ही सन् 1698 में फोर्ट विलियम की स्थापना रक्षा और सैन्य बल को गठित करने के उद्देश्य से हुई। फोर्ट और उसके आसपास का खुला क्षेत्र जिसे मैदान कहते थे जहाँ सैन्य बलों के डेरे थे, कलकत्ता नगर का केंद्र बना। इसी केंद्र से नगर का प्रसार हुआ।


चाय की बागवानी

हम अब तक जान चुके हैं कि भारत में औद्योगीकरण और नगरीकरण उस प्रकार नहीं हुआ जैसे ब्रिटेन में हुआ। इसकी वजह औद्योगीकरण की देर से हुई शुरुआत नहीं थी बल्कि यहाँ के प्रारंभिक औद्योगीकरण और नगरीकरण पर औपनिवेशिक शासन चलता था जो अपने ही हितों को देखता था।

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हम विभिन्न उद्योगों के बारे में यहाँ विस्तार से चर्चा नहीं करेंगे। हम केवल चाय की बागवानी को उदाहरण के रूप में ले लेंगे। अधिकारिक रिपोर्ट से पता चलता है कि औपनिवेशिक सरकार गलत तरीकों से मजदूरों की भर्ती करती थी और उनसे बलपूर्वक काम लिया जाता था। ब्रिटिश व्यवसायियों के लिए सरकारी बल का प्रयोग कर बागानों में मजदूरों से सस्ते में काम कराया जाता था। कथा साहित्य एवं अन्य स्रोतों से बागान में काम करने वालों के जीवन से संबंधित जानकारी प्राप्त होती है।

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वास्तव में औपनिवेशिक प्रशासक यह मानकर चलते थे कि बागान वालों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए मजदूरों पर कड़े से कड़ा बल प्रयोग किया जाए। वे इस तथ्य से पूर्णतः अवगत थे कि औपनिवेशिक देश में चलाए गए नियम कानून अलग हो सकते हैं और यह जरूरी नहीं है कि ब्रिटिश उन प्रजातांत्रिक नियमों का निर्वाह औपनिवेशिक देश में भी करे जो ब्रिटेन में लागू होते थे।


बॉक्स 1.6
श्रमिकों का चयन और नियुक्ति किस प्रकार होती थी

सन् 1851 में चाय उद्योगों की भारत में शुरुआत हुई। ज़्यादातर चाय के बागान असम में थे। सन् 1903 तक 4,79,000 स्थायी और 93,000 अस्थायी लोगों को यहाँ काम पर रखा गया था। चूँकि असम की जनसंख्या सघन नहीं थी और चाय के बागान निर्जन पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित थे इसलिए बड़ी संख्या में श्रमिकों को दूसरे प्रांतों से लाया गया था। लेकिन दूरदराज से हज़ारों मज़दूरों को लाकर एेसी जगह पर रखने में जहाँ की आबोहवा स्वास्थ्य के प्रतिकूल थी, यहाँ तक कि विचित्र प्रकार के बुखारों का प्रकोप था, इलाज में अत्यधिक खर्चा होता था और इस खर्चे के लिए बागानों के मालिक और ठेकेदार सहमत नहीं थे। सही तरीके से मज़दूरों को लाना खर्चीला होता इसलिए ब्रिटिश व्यावसायिकों ने सरकारी ताकत का सहारा लिया। एेसे कानून बनाए गए कि गरीब मज़दूरों के पास कोई विकल्प नहीं बचा। असम के चाय के बागानों के लिए मज़दूरों की नियुक्ति बरसों तक होती रही। यह काम ठेकेदारों को दिया गया था जो बंगाल के ट्रांसपोर्ट अॉफ़ नेटिव लेबरर्स एक्ट (न. 111)-1863, जिसका 1865, 1870 और 1873 में संशोधन किया गया, का इस्तेमाल करके मजदूरों को प्रलोभन, बल, भय के द्वारा असम भेजते थे।


बॉक्स 1.7
कर्ज़न के भाषण II से, पृष्ठ 238-9

असम जाने वाले मजदूर, दरअसल दस्तावेज़ (इकरारनामे) के तहत कई सालों के लिए वहाँ गए थे। सरकार की तरफ़ से उन मज़दूरों को दंडित करने का प्रावधान किया था जो समझौते के पट्टे के अनुसार व्यावसायिक शर्तें पूरी नहीं करते थे।

इस पक्ष को स्पष्ट करते हुए कानून के सदस्य टी. रालेघ ने जब सन् 1901 में श्रम एवं उत्प्रवासी विधेयक, 1901 असम लेबर एंड इमीग्रेशन के बारे में बोलते हुए कहा था कि पट्टे पर लिए गए मज़दूरों को यह कानून-विधिवत रूप से निर्देश देता है कि वह चार साल के लिए असम में मज़दूरी करने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। अगर कोई मज़दूर इस निर्देश का पालन करने में वि.फल रहता है तो उसे जेल हो सकती है। इस प्रकार की शर्त्तें मालिक-मजदूर से संबंधित साधारण कानूनों में नहीं होती हैं। लेकिन हमने ब्रिटिश भारत में असम के चाय बागानों के मालिकों ने सुविधा और .फायदे के लिए इस प्रकार की शर्त्तों को कानून का हिस्सा बनाया है। तथ्य यही है कि इस कानून का मुख्य उद्देश्य बागान वालों को .फायदा पहुँचाना है न कि मज़दूरों के हितों को ध्यान में रखना।

(आई.सी.पी 1901, अंक-XL पृष्ठ 133, संदर्भ चंद्रा 1966ः361–2)


बॉक्स 1.6 और 1.7 के लिए अभ्यास

ऊपर दिए गए बॉक्सों को पढ़ें और चर्चा करें

→ कार्य को नियंत्रित करने में औपनिवेशिक सरकार और इसके प्रशासकों की भूमिका।

→ ब्रिटिश चाय बागान मालिकों की सहायता के लिए ब्रिटिशों की राय

→ पता लगाएँ कि इन श्रमिकों के वंशज की क्या भूमिका रही है और वे कहाँ रह रहे हैं।


मज़दूरों के बारे में जानने के बाद यह आवश्यक है कि मालिकों/बागान वालों के बारे में जानें।


बॉक्स 1.8

बागानों के मालिक कैसे रहते थे?

सामान की लदाई और उतारने के लिए परबतपुरी एक अहम् जगह थी। जब भी भाप छोड़ते पानी के स्टीमर किनारे से लगते, आसपास के बागानों के मालिक अंग्रेज और उनकी मेम जहाज़ से उतरते। वैसे तो उनके बगीचे दूरदराज थे और उन्हें एकांत में ही रहना पड़ता था लेकिन उनकी जीवन शैली में भोग विलास की चमक भरपूर थी। उनके विशाल बँगले मज़बूत लकड़ी के पट्टों पर स्थित और घिरे हुए थे ताकि जंगली जानवर वहाँ न आ पाएँ। राज़सी बँगले के चाराें ओर मखमली बाग थे जिनकी रौनक में रंग-बिरंगे फूलों की कतार थी... उन गोरे साहबों ने कितने ही स्थानीय लोगों को विशेष ट्रेनिंग देकर बेहतर सेवा देने लायक बना दिया था। माली, बावर्ची और घरेलू कामकाज करने वाले नौकरों की कैफ़ियत देखते बनती थी।

नौकरों की सेवा की वजह से उन विशाल बँगलों के बरामदे और एक-एक सामान दूर से ही चमकते थे। सारी ज़रूरत की चीज़ें सा.फ-स.फाई के पाउडर से लेकर परिष्कृत काँटे, सेफ्टी पिन से लेकर चाँदी के बर्तन तक, नॉटिंघम के किनारे वाले टेबल क्लॉथ से लेकर नहाने के साबुन तक, सब कुछ जहाज़ से आते थे। बड़े-बड़े नहाने के टब जो कि विशाल नहाने के कमरे में रखे जाते थे, जिन्हें कि हर दिन सवेरे भिश्ती बँगले के कुएँ के पानी से भर देता था वे भी वास्तव में स्टीमर से ही आते थे।

(फुकन 2005)


स्वतंत्र भारत में औद्योगीकरण

पहले के भागाें में हमने जाना था कि भारत में औद्योगीकरण और नगरीकरण में औपनिवेशिक शासन की भूमिका महत्वपूर्ण थी। इस भाग में हम संक्षेप में जानेंगे कि औद्योगीकरण को स्वतंत्र भारत की सरकार ने सक्रिय तौर पर बढ़ावा कैसे दिया। कुछ अर्थों में यह एक प्रकार की प्रतिक्रिया भी थी जिसमें स्वाधीन भारत के शासक उपनिवेशवाद के द्वारा प्रभावित हुए विकास को सँजोए रखना चाहते थे। अध्याय-5 में हम भारतीय औद्योगीकरण और इसमें आए परिवर्तनों, विशेषकर सन् 1990 के बाद हुए उदारीकरण के बारे में चर्चा करेंगे।


क्रियाकलाप 1.3

आप सब अमूल मक्खन और अमूल के ही अन्य उत्पादों से तो परिचित ही होंगे। पता करें कि किस तरह से इस दुग्ध आधारित उद्योग का उद्भव हुआ।


भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए औपनिवेशिक शासन के दौरान हुआ आर्थिक शोषण एक केंद्रीय मुद्दा था। उपनिवेशवाद से पहले के भारत की जो तस्वीर कथा-साहित्य आदि में दिखती थी उसमें समृद्धि और संपन्नता थी। लेकिन उपनिवेशवाद के बाद के भारत में गरीबी दिखाई देती थी। स्वदेशी आंदोलन ने भारत की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रति निष्ठा को मजबूत किया। आधुनिक विचारों के द्वारा लोगों ने अनुभव किया कि गरीबी को दूर किया जा सकता है। भारतीय राष्ट्रवादियों ने अनुमान लगाया कि तीव्र और वृहद औद्योगीकरण के द्वारा आर्थिक स्थिति में आवश्यक सुधार किए जा सकते हैं जिनसे विकास और सामाजिक न्याय हो पाएगा। भारी मशीनीकृत उद्योगों का विकास हुआ। इन्हें बनाने वाले उद्योग, पब्लिक सेक्टर के विस्तार और बड़े को-अॉपरेटिव सेक्टर को महत्वपूर्ण माना गया।

जैसा कि जवाहरलाल नेहरू ने सोच रखा था, आधुनिक और समृद्धिशील भारत की नींव वृहद लौह-इस्पात उत्पादक उद्योगों या विशाल बाँधों और विद्युत शक्ति के केंद्रों पर रखी जानी थी। आप भाखड़ा नांगल बाँध पर पंडित नेहरू के विचारों को पढ़ें।

हमारे अभियंता यह बताते हैं कि संभवतः इसके जैसा विशाल/ऊँचा बाँध दुनिया में और कहीं नहीं है। इसके कार्य में कठिनाई और जटिलताएँ दिखाई देती हैं। जब मैं इसके आसपास घूम रहा था मेरे मन में यह विचार आया कि इन दिनों लोग बड़े मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों में मानवीय कल्याण के लिए कार्य करते हैं। इस विशाल भाखड़ा नांगल से बेहतर और बड़ा कौन सा स्थान होगा जहाँ हज़ारों- लाखों लोगों ने एक साथ काम किया। लोगों ने यहाँ अपना खून-पसीना बहाया और यहाँ तक कि प्राण भी त्याग दिए। इससे अच्छी और कौन-सी जगह होगी? (नेहरू 1980: 214)


क्रियाकलाप 1.4

आज़ादी के बाद के सालों में भारत में अनेक औद्योगिक शहरों का उद्भव और विकास हुआ। संभवतः आपमें से कुछ एेसे शहरों में रहते भी हों।

→ बोकारो, भिलाई, राउरकेला, दुर्गापुर जैसे शहरों के बारे में ज़ानकारी इकट्ठी करें। क्या आपके क्षेत्र में भी एेसे शहर हैं?

→ क्या आपको उर्वरक उत्पादन यंत्र और तेल के कुओं के क्षेत्र के आसपास बसे शहरों के बारे में पता है?

→ अगर एेसा कोई शहर आपके क्षेत्र में नहीं है तो पता करें कि एेसा क्यों है?


बॉक्स 1.9

सन् 1938 में, स्वतंत्रता के तकरीबन एक दशक पहले, राष्ट्रीय योजना समिति (नेशनल प्लानिंग कमेटी) का गठन हुआ जिसके अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू और संपादक के.टी. शाह थे। यह गठन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा किया गया था।

सन् 1939 से समिति ने अपना कार्य आरंभ किया लेकिन यह ज़्यादा आगे नहीं बढ़ पाई क्योंकि इसके अध्यक्ष नेहरू को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ़्तार कर लिया और बाद में विश्वयुद्ध भी छिड़ गया। इन व्यवधानों के बावजूद 29 सह-समितियों का गठन हुआ जिन्हें आठ उप समूहों में विभाजित किया जाना था और जिसके कार्य क्षेत्र में पूर्वनियोजित तरीके से, राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न पहलू थे। समिति के विचाराधीन क्षेत्र निम्नलिखित थे–

(क) कृषि और उत्पादन के अन्य प्राथमिक साधन

(ख) उद्योग और उत्पादन के द्वितीयक साधन

(ग) मानवीय कारक-श्रम व आबादी

(घ) वित्त और विनिमय

(ज) सार्वजनिक उपयोगिता-आवागमन और संचार

(च) सामाजिक सेवा-स्वास्थ्य और आवास

(छ) शिक्षा-सामान्य और तकनीकी

(ज) नियोजित अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका

अनेक सह-समितियों ने अपने प्रतिवेदन सौंपे और अंतरिम प्रतिवेदनों को भी समर्पित किया गया। यह सब भारत की स्वाधीनता के पूर्व हुआ। सन् 1948-49 में अनेक प्रतिवेदन प्रकाशित हुए। मार्च 1950 में भारत सरकार के प्रस्ताव पर योजना आयोग का गठन हुआ जो आयोग के क्रियाकलापों के लिए प्रमुख बिंदुओं को परिभाषित करता है।


स्वतंत्र भारत में नगरीकरण

आपको भारत में निरंतर बढ़ रही नगरीकरण की प्रक्रिया के बारे में तो जरूर पता होगा। हाल ही के वर्षों में बढ़ते हुए भूमंडलीकरण द्वारा शहरों के अत्यधिक प्रसार और परिवर्तनों की जानकारी भी होगी। अध्याय-6 में इसके बारे में विस्तार से चर्चा की जाएगी। भारत में 21वीं शताब्दी में नगरीकरण की प्रक्रिया की दर अत्यंत तीव्र होती नजर आती है। भारत सरकार की ‘स्मार्ट सिटी’ की महत्वाकांक्षी योजना इस गति को तीव्र करने में महत्वपूर्ण योगदान देगी। यहाँ हम समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भारत में नगरीकरण के विभिन्न प्रकारों को देखेंगे।

urban_village

एक नगरीय गाँव का दृश्य

आज़ादी के बाद के दो दशकों में भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखने लगा था। नगरीकरण अनेक प्रकारों से हो रहा था। इस पर विचार व्यक्त करते हुए समाजशास्त्री एम. एस. ए. राव ने लिखा है कि भारत के कई गाँव भी तेज़ी से बढ़ रहे नगरीय प्रभाव में आ रहे थे। नगरीय प्रकृति का प्रभाव गाँवों का शहर या नगर से कैसा संबंध है पर निर्भर करता है। उन्होंनेे तीन भिन्न प्रकार के नगरीय प्रभावों की स्थिति की व्याख्या की है


बॉक्स 1.10

सबसे पहले वे गाँव आते हैं जहाँ से अच्छी खासी संख्या में लोग दूरदराज के शहरों में रोज़गार ढूँढ़ने के लिए जाते हैं। वे उन शहरों में रहते हैं लेकिन उनके परिवार के सदस्य गाँवों में ही रहते हैं। उत्तर-मध्य भारत के एक गाँव माधोपुर में 298 घरों मे से 77 घर एेसे हैं जिनके सदस्य प्रवासी हैं, जबकि 77 अप्रवासियों में से लगभग आधे एेसे हैं जो मुंबई या कोलकाता में काम करते हैं। कुल अप्रवासियों के 75 प्रतिशत एेसे प्रवासी हैं जो गाँव में अपने परिवार को नियमित रूप से पैसे भेजते हैं और 83 प्रतिशत अप्रवासी प्रत्येक साल या चार से पाँच बार या दो साल में एक बार अपने गाँवों में आते हैं। बहुत सारे प्रवासी केवल भारतीय नगरों में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी रहते हैं। जैसे कि गुजरात के गाँवों के अनेक प्रवासी अफ्रीका और ब्रिटेन के शहरों में रहते हैं। इन लोगों ने अपने गाँवों में आधुनिक फैशन के मकान भी बनाए हुए हैं। इन्होंने ज़मीन-जायदाद में भी निवेश किया हुआ है, तथा शिक्षण संस्थान और जनकल्याण के लिए स्थापित ट्रस्टों को भी दान दिया है...

दूसरे प्रकार का शहरी प्रभाव उन गाँवों में देखा जाता है जो औद्योगिक शहरों के निकट स्थित हैं। जब एक भिलाई जैसा औद्योगिक शहर उभरता है तो उसके आसपास के कुछ गाँवों की पूरी ज़मीन उस शहर का हिस्सा बन जाती है, जबकि कुछ गाँवों की आंशिक भूमि अधिग्रहित की जाती है। एेसे शहरों में प्रवासी कामगार आते ही रहते हैं जिससे गाँवों में मकानों की माँग बढ़ जाती है और बाज़ार का विस्तार होता है। साथ ही साथ स्थानीय निवासियों और अप्रवासियों के बीच के संबंधों को संतुलित करने की समस्या भी उत्पन्न होती है।

महानगरों का उद्भव और विकास तीसरे प्रकार का शहरी प्रभाव है जिससेे निकटवर्ती गाँव प्रभावित होते हैं। नगरों के विस्तार में कुछ सीमावर्ती गाँव पूरी तरह से नगर के प्रसार में विलीन हो जाते हैं जबकि वे क्षेेत्र जहाँ लोग नहीं रहते नगरीय विकास के लिए प्रयोग कर लिए जाते हैं।

(राव 1974 : 486-490)


बॉक्स 1.10 का अभ्यास

उपरोक्त कथन को ध्यान से पढ़ें। संभवतः आपने कुछ अलग प्रकार का या ऊपर दिए गए प्रकार का ही नगरीकरण देखा और अनुभव किया होगा। इसके बारे में संक्षेप में लिखें। सभी विद्यार्थी एक-दूसरे के अनुभवों पर चर्चा करें।


1.11.2

ऊपर दिया गया चार्ट दर्शाता है कि भारत में नगरीय जनसंख्या और यूए/कस्बों की संख्या बढ़ रही है। दूसरा चार्ट दिखाता है कि नगरीय आबादी का प्रतिशत बढ़ रहा है, लेकिन नगरीय जनसंख्या की दशकीय वृद्धि दर जनसंख्या के घटने की प्रवृत्ति को दिखा रहा है।

1951 में, भारत की जनसंख्या के 17.29% यानी, 62.44 मिलियन लोग 2843 कस्बों में रह रहे थे। जबकि 2011 में भारत की जनसंख्या के 31.16% अर्थात 377.10 मिलियन लोग 7935 कस्बों में रह रहे थे। यह निरपेक्ष संख्या, यूए/कस्बों की संख्या और नगरीय जनसंख्या के प्रतिशत भाग के रूप में स्थिर वृद्धि दर्शाती है। हालांकि, 1981-2001 में नगरीय जनसंख्या में गिरावट दिखाने वाली दशकीय वृद्धि दर ने इस प्रवृत्ति को उलटा कर दिया और 2011 में इसमें मामूली सी वृद्धि देखी गई। 1951 में नगरीय आबादी की दशकीय वृद्धि दर 41.42 थी और 2011 में यह 31.80 थी।

आजादी के बाद पहली बार, निरपेक्ष रूप में नगरीय क्षेत्रों की जनसंख्या में ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक वृद्धि देखने को मिली है, जो कि ग्रामीण क्षेत्रों की वृद्धि दर में तेजी से आई गिरावट और नगरीय क्षेत्रों की वृद्धि दर के लगभग समान रहने के कारण हुई।


निष्कर्ष

आपको यह तो स्पष्ट लग रहा होगा कि उपनिवेशवाद केवल इतिहास का विषय नहीं बल्कि यह आज भी हमारे दैनिक जीवन में जटिल रूप में मौजूद है। इस अध्याय से यह प्रकट होता है कि औद्योगीकरण और नगरीकरण का मतलब केवल उत्पादन व्यवस्था, तकनीकी नवीनीकरण, आबादी की सघनता ही नहीं इसके अलावा, यह हमारे जीवन का एक अंतरंग हिस्सा है। आप स्वतंत्र भारत में औद्योगीकरण और शहरीकरण के बारे में और विस्तार से अध्याय-5 और 6 में पढ़ेंगे।


प्रश्नावली

1. उपनिवेशवाद का हमारे जीवन पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ा है? आप या तो किसी एक पक्ष जैसे संस्कृति या राजनीति को केंद्र में रखकर, या सारे पक्षों को जोड़कर विश्लेषण कर सकते हैं।

2. औद्योगीकरण और नगरीकरण का परस्पर संबंध है विचार करें।

3. किसी एेसे शहर या नगर को चुनें जिससे आप भली-भाँति परिचित हैं। उस शहर/नगर के इतिहास, उसके उद्भव और विकास, तथा समसामयिक स्थिति का विवरण दें।

4. आप एक छोटे कस्बे में या बहुत बड़े शहर, या अर्धनगरीय स्थान, या एक गाँव में रहते हैंः-

→ जहाँ आप रहते हैं उस जगह का वर्णन करें

→ वहाँ की विशेषताएँ क्या हैं, आप को क्यों लगता है कि वह एक कस्बा है शहर नहीं, एक गाँव है कस्बा नहीं या शहर है गाँव नहीं?

→ जहाँ आप रहते हैं क्या वहाँ कोई कारखाना है?

→ क्या लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती है?

→ क्या व्यवसाय वहाँ निर्णायक रूप में प्रभावशाली है?

→ क्या वहाँ इमारतें हैं?

→ क्या वहाँ शिक्षा की सुविधाएँ उपलब्ध हैं?

→ लोग कैसे रहते और व्यवहार करते हैं?

→ लोग किस तरह बात करते और कैसे कपड़े पहनते हैं?


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