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2 सांस्कृतिक परिवर्तन
हमने पिछले अध्याय में यह जाना कि किस प्रकार उपनिवेशवाद से हुए परिवर्तनों ने भारतीय सामाजिक संरचना में बदलाव उत्पन्न किए। औद्योगीकरण और नगरीकरण ने जनजीवन में रूपांतरण किया। कुछ लोगों ने खेत के स्थान पर कारखानों में काम करना प्रारंभ किया। बहुत से लोग गाँवों को छोड़ शहरों में रहने लगे। या कि रहने और कार्य करने की प्रणालियाँ अर्थात् संरचनाओं में परिवर्तन हुआ। संस्कृति, जीवनशैली, प्ररूप, मूल्य, फैशन और यहाँ तक कि भाव-भंगिमाओं में भी गुणात्मक बदलाव हुए। समाजशास्त्रियों की समझ में सामाजिक संरचना का अर्थ "लोगों के संबंधों की वह सतत व्यवस्था है जिसे कि सामाजिक रूप से स्थापित प्ररूप अथवा व्यवहार के प्रतिमान के रूप में सामाजिक संस्थाओं और संस्कृति के द्वारा परिभाषित और नियंत्रित किया जाता है।" आपने पहले ही अध्याय-1 में उन संरचनात्मक परिवर्तनों का अध्ययन कर लिया है जिन्हें उपनिवेशवाद ने उत्पन्न किया। इस अध्याय में आप यह जानेंगे कि वे संरचनात्मक परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तनों को समझने के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं।
यहाँ आप दो परस्पर संबंधित घटनाओं के बारे में जानेंगे। ये दोनों उपनिवेशिक शासन के प्रभाव की जटिल उत्पत्ति हैं। पहली घटना का संबंध 19वीं शताब्दी के समाज सुधारकों एवं प्रारंभिक 20वीं शताब्दी के राष्ट्रवादी नेताओं के सुनियोजित एवं सजग प्रयासों से संबंधित है। यह उन सामाजिक व्यवहारों में परिवर्तन लाने के लिए था जो महिलाओं एवं निम्न जातियों के साथ भेदभाव करते थे। दूसरी घटना उन कम सुनिश्चित परंतु निर्णायक परिवर्तनों से जुड़ी हुई है जो सांस्कृतिक व्यवहारों में हुए और जिन्हें संस्कृतीकरण, आधुनिकीकरण, लौकिकीकरण एवं पश्चिमीकरण की चार प्रक्रियाओं के रूप में समझा जा सकता है। ये बात बड़ी दिलचस्प है कि संस्कृतीकरण की प्रक्रिया उपनिवेशवाद की शुरुआत से पहले से होती रही जबकि बाद की तीन प्रक्रियाएँ वास्तव में भारत के लोगों की वह जटिल प्रतिक्रिया हैं जो उपनिवेशवाद से हुए परिवर्तनों के कारण हुई।
2.1 उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुए समाज सुधार आंदोलन
राजा राम मोहन राय
पंडिता रमाबाई
सर सैयद अहमद खाँ
आप जान चुके हैं कि उपनिवेशवाद ने हमारे जीवन पर दूरगामी प्रभाव डाले। उन्नीसवीं सदी में हुए समाज सुधार आंदोलन उन चुनौतियों के जवाब थे जिन्हें औपनिवेशिक भारत महसूस कर रहा था। आप संभवतः उन सभी सामाजिक पहुलओं से अवगत हों जिन्हें भारतीय समाज में सामाजिक कुरीति माना जाता था। उन सामाजिक कुरीतियों से भारतीय समाज बुरी तरह से ग्रस्त था। सती प्रथा, बाल-विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध और जाति-भेद कुछ इस प्रकार की कुरीतियाँ थीं। एेसा नहीं है कि उपनिवेशवाद से पूर्व भारत में इन सामाजिक भेदभावों के विरुद्ध संघर्ष न हुए हों। ये बौद्ध धर्म के केंद्र में थे। एेसे कुछ प्रयत्न, मुख्यतः भक्ति एवं सूफी आंदोलनों के केंद्र में भी थे। उन्नीसवीं सदी में हुए समाज सुधारक आधुनिक संदर्भ एवं मिश्रित विचारों से संबद्ध थे। यह प्रयास पश्चिमी उदारवाद के आधुनिक विचार एवं-प्राचीन साहित्य के प्रतीक नयी दृष्टि के मिले-जुले रूप में उत्पन्न हुए।
बॉक्स 2.1
मिश्रित विचार
→ राममोहन राय ने सती प्रथा का विरोध करते हुए न केवल मानवीय व प्राकृतिक अधिकारों से संबंधित आधुनिक सिद्धांतों का हवाला ही नहीं दिया बल्कि उन्होंने हिंदू शास्त्रों का भी संदर्भ दिया।
→ रानाडे ने विधवा-विवाह के समर्थन में शास्त्रों का संदर्भ देते हुए ‘द टेक्स्ट अॉफ द हिंदू लॉ’ जिसमें उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह को नियम के अनुसार बताया। इस संदर्भ में उन्होंने वेदों के उन पक्षों का उल्लेख किया जो विधवा पुनर्विवाह को स्वीकृति प्रदान करते हैं और उसे शास्त्र सम्मत मानते हैं।
→ शिक्षा की नयी प्रणाली में आधुनिक और उदारवादी प्रवृत्ति थी। यूरोप में हुए पुनर्जागरण, धर्म-सुधारक आंदोलन और प्रबोधन आंदोलन से उत्पन्न साहित्य को सामाजिक विज्ञान और भाषा-साहित्य में सम्मिलित किया गया। इस नए प्रकार के ज्ञान में मानवतावादी, पंथनिरपेक्ष और उदारवादी प्रवृत्तियाँ थीं।
→ सर सैयद अहमद खान ने इस्लाम की विवेचना की और उसमें स्वतंत्र अन्वेषण की वैधता (इजतिहाद) का उल्लेख किया। उन्होंने कुरान में लिखी गई बातों और आधुनिक विज्ञान द्वारा स्थापित प्रकृति के नियमों में समानता जाहिर की।
→ कंदुकीरी विरेशलिंगम की पुस्तक ‘द सोर्स अॉफ़ नॉलेज’ में नव्य-न्याय के तर्कों को देखा जा सकता है। उन्होंने जुलियस हक्सले द्वारा लिखे ग्रंथों को भी अनुवादित किया।
समाजशास्त्री सतीश सबरवाल ने औपनिवेशिक भारत में आधुनिक पविर्तनों की रूपरेखा से जुड़े निम्नलिखित तीन पहलुओं की विवेचना की है–
→ संचार माध्यम
→ संगठनों के स्वरूप, तथा
→ विचारों की प्रकृति
नयी प्रौद्योगिकी ने संचार के विभिन्न स्वरूपों को गति प्रदान की। प्रिंटिंग प्रेस, टेलीग्राफ़ तथा बाद में माइक्रोफ़ोन, लोगों के आवागमन एवं पानी के जहाज़ तथा रेल के आने से यह संभव हुआ। साथ ही रेल से वस्तुओं के आवागमन में नवीन विचारों को तीव्र गति प्रदान करने में सहायता प्रदान की। इससे नए विचारों को भी जैसे पंख लग गए। भारत में पंजाब औैर बंगाल के समाज सुधारकों के विचार-विनिमय मद्रास और महाराष्ट्र के समाज सुधारकों से होने लगे। बंगाल के केशव चंद्र सेन ने 1864 में मद्रास का दौरा किया। पंडिता रमाबाई ने देश के अनेक क्षेत्रों का दौरा किया। इनमें से कुछ ने तो विदेशों का भी दौरा किया। ईसाई मिशनरी तो सुदूर क्षेत्रों जैसे आज के नागालैंड, मिजोरम और मेघालय में भी गए।
नयी प्रौद्योगिकी तथा संगठन जिन्होंने संचार के विभिन्न स्वरूपों को गति प्रदान की
आधुनिक सामाजिक संगठनों जैसे बंगाल में ब्रह्म समाज और पंजाब में आर्य समाज की स्थापना हुई। 1914 ई. में अंजुमन-ए-ख्वातीन-ए-इस्लाम की स्थापना हुई। ये भारत में मुस्लिम महिलाओं की राष्ट्र स्तरीय संस्था थी। समाज सुधारकों ने सभाओं व गोष्ठियों के अलावा जन-संचार के माध्यम जैसे अखबार, पत्रिका आदि के माध्यम से भी सामाजिक विषयों पर वाद-विवाद जारी रखा। समाज सुधारकों द्वारा लिखे हुए विचारों का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। उदाहरण के लिए विष्णु शास्त्री ने, सन् 1868 में, इंदु प्रकाश ने विद्यासागर की पुस्तक का मराठी अनुवाद प्रकाशित किया।
वीरेशलिंगम
विद्यासागर
जोतिबा फुले
स्वतंत्रता एवं उदारवाद के नवीन विचार, परिवार रचना एवं विवाह से संबंधित नए विचार, माँ एवं पुत्री की नवीन भूमिका एवं परपंरा एवं संस्कृति में स्वचेतन गर्व के नवीन विचार आए। शिक्षा के मूल्य अत्यंत महत्वपूर्ण हुए। यह समझा गया कि राष्ट्र का आधुनिक बनना जरूरी है लेकिन प्राचीन विरासत को बचाए रखना भी जरूरी है। महिलाआें की शिक्षा के विषय में भी व्यापक बहस हुई। यह महत्वपूर्ण है कि समाज सुधारक जोतिबा फुले (इन्हें ज्योतिबा भी कहा जाता है) ने पुणे में महिलाओं के लिए पहला विद्यालय खोला। सुधारकों ने एकमत होकर ये माना कि समाज के उत्थान के लिए महिलाओं का शिक्षित होना जरूरी है। उनमें से कुछ का ये भी विश्वास था कि आधुनिकता के उदय से पहले भी भारत में स्त्रियाँ शिक्षित हुआ करती थीं। लेकिन बहुत से विचारकों ने इसका खंडन करते हुए यह माना कि महिला शिक्षा कुछ विशेषाधिकार प्राप्त समूहों को ही प्राप्त थी। इस प्रकार महिलाओं की शिक्षा को न्यायोचित ठहराने के विचारों को आधुनिक व पारंपरिक दोनों ही विचारधाराओं का समर्थन मिला। सुधारकाें ने आधुनिकता और परंपरा पर विस्तृत वाद-विवाद भी किए। इस प्रसंग में ये जानना रोचक है कि जोतिबा फुले ने आर्यों के आगमन से पूर्व के काल को अच्छा माना जबकि बाल गंगाधर तिलक ने आर्यों के युग को गरिमामय माना। दूसरे शब्दों में 19वीं सदी में हो रहे सुधारों ने एक एेसा दौर उत्पन्न किया जिसमें बौद्धिक तथा सामाजिक उन्नति के प्रश्न और उनकी पुनर्व्याख्या सम्मिलित हैं।
विभिन्न प्रकार के समाज सुधारक आंदोलनों में कुछ विषयगत समानताएँ थी। परंतु साथ ही अनेक महत्वपूर्ण असहमतियाँ भी थी। कुछ में उन सामाजिक मुद्दों के प्रति चिंता थी जो उच्च जातियों के मध्यवर्गीय महिलाओं और पुरुषों से संबंधित थी। जबकि कुछ ने तो ये माना कि सारी समस्याओं का मूल कारण सच्चे हिंदुत्व के सच्चे विचारों का कमजोर होना था। कुछ के लिए तो धर्म में जाति एवं लैंगिक शोषण अंतर्निहित था। ये तो हिंदू धर्म से संबंधित समाज सुधारक वाद-विवाद था। इसी तरह मुुस्लिम समाज सुधारकों ने बहुविवाह और पर्दा प्रथा पर सक्रिय स्तर पर बहस की। उदाहरण के लिए जहाँआरा शाह नवास ने अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन में, बहुविवाह की कुप्रथा के विरुद्ध प्रस्ताव प्रस्तुत किया।
उनके अनुसार : ...जिस प्रकार का बहुविवाह मुस्लिम समुदाय के कुछ हिस्सों में होता है वह वस्तुतः कुरान की मूलभावनाओं के खिलाफ़ है... ये शिक्षित औरतों की जिम्मेदारी है कि वो अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने रिश्तेदारों को बहुविवाह करने से रोकेें।
क्रियाकलाप 2.1
निम्नलिखित समाज सुधारकों के बारे में सूचनाएँ इकट्ठी करें, जैसेकि किसने किस मुद्दे या समस्या पर काम किया, कैसे संघर्ष किया, किस प्रकार जागरूकता फैलाई, क्या उन्हें किसी प्रकार के विरोध का सामना करना पड़ा?
वीरेशलिंगम
पंडिता रमाबाई
विद्यासागर
दयानंद सरस्वती
जोतिबा फुले
श्री नारायण गुरु
सर सैयद अहमद खान
कोई अन्य
बहुविवाह के खिलाफ लाए गए प्रस्ताव से उर्दू भाषा के अखबारों, पत्रिकाओं आदि में एक बहस छिड़ गई। पंजाब से निकलने वाली महिलाओं की एक पत्रिका ‘तहसिब-ए-निसवान’ ने खुलकर बहुविवाह-विरोधी इस प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि अन्य पत्रिकाओं ने इसका विरोध किया (चौधरी 1993ः111)। समुदायों के भीतर इस तरह की बहस उन दिनों आम बात थी। उदाहरण के लिए ब्रह्म समाज ने सती प्रथा का विरोध किया। प्रतिवाद में, बंगाल में हिंदू समाज के रूढ़िवादियों ने धर्म सभा का गठन किया जिसकी तरफ़ से ब्रिटिश सरकार को एक याचिका भेजी गयी। इस याचिका में रूढ़िवादी हिंदुओं ने ये दावा किया कि सुधारकों को कोई अधिकार नहीं है कि वो धर्मग्रंथों की व्याख्या करें। एक और दृष्टिकोण भी था जिसके अंतर्गत दलितों ने हिंदू रैली को पूर्वतः अस्वीकृत किया। उदाहरण के लिए फुले के विद्यालय में एक 13 साल की एक छात्रा मुक्ताबाई ने आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से 1852 में लिखाः-
हर वो मजहब
जो कुछ लोगों को सहूलियत देकर
बाकी को वंचित कर दे,
हर उस मजहब को
ए इंसान
इस धरती से वंचित कर दे,
हर उस मजहब के लिए
एक जरा भी गुरूर को
ए इंसान
अपने जेहन में ना रहने दे
2.2 हम संस्कृतीकरण, आधुनिकीकरण, पंथनिरपेक्षीकरण और पश्चिमीकरण को किस प्रकार समझेंगे
इस अध्याय में इन चारों अवधारणाओं संस्कृतीकरण, आधुनिकीकरण, पंथनिरपेक्षीकरण एवं पश्चिमीकरण का विभिन्न वर्गों में अध्ययन किया गया है। जैसे-जैसे हम अपनी विवेचना में आगे बढ़ेंगे हम पाएँगे कि ये चारों अवधारणाएँ कहीं न कहीं एक दूसरे से संबंधित हैं और कई स्थितियों में एक साथ पाई जाती हैं। ये कई स्थितियों में अलग-अलग ढंग से सक्रिय होती हैं। यह आश्चर्यजनक नहीं कि एक ही व्यक्ति एक जगह पर आधुनिक होता है तो दूसरी भिन्न स्थिति में वो पारंपरिक भी होता है। इस प्रकार की स्थिति भारतवर्ष में तथा अन्य अनेक गैर-पाश्चात्य देशों में स्वाभाविक है।
क्रियाकलाप 2.2
समाजशास्त्र में इन का अर्थ पढ़ने के पूर्व यह रुचिकर होगा कि आप कक्षा में निम्नलिखित शब्दों का क्या अर्थ है, पर विचार करें।
→ आप किस तरह के व्यवहार को निम्नलिखित रूप में परिभाषित करेंगेः
पश्चिमी
आधुनिक
धर्मनिरपेक्ष
सांस्कृतिक
→ क्यों?
→ इस अध्याय को पढ़ने के बाद पुनः क्रियाकलाप 2.2 पर आएँ।
→ क्या आप इन शब्दों के सामान्य अर्थ एवं समाजशास्त्रीय अर्थ में कोई अंतर पाते हैं?
लेकिन आप जानते हैं कि समाजशास्त्र की विषय-वस्तु प्राकृतिक विश्लेषण पर आधारित नहीं है। (जैसाकि आपने पुस्तक 1, अध्याय-1 एन.सी.ई.आर.टी. 2006 में पढ़ा है।) पिछले अध्याय में आपने जाना था कि औपनिवेशिक आधुनिकता में आंतरिक विरोधाभास था। उदाहरण के लिए पश्चिमी शिक्षा को लें। उपनिवेशवाद के दौरान अंग्रेज़ी शिक्षा से एक नए मध्य वर्ग का जन्म हुआ। अंग्रेज़ी भाषा में कुशल नए मध्यवर्गीय भारतीयों ने पश्चिम के अनेक दार्शनिकों के विचारों को पढ़ा-जाना तथा उनके उदार-प्रजातंत्र की अवधारणा से अवगत हुए। इन भारतीयों ने भारत को उदारता और प्रगतिशीलता के एक नए रास्ते पर लाने का सपना देखा। लेकिन फिर भी, औपनिवेशिक शासन से भारतीय स्वाभिमान को चोट लगी तो इन मध्यवर्गीय भारतीयों ने पारंपरिक ज्ञान और मेेधा पर गर्व जताया। इस प्रवृत्ति को आप 19वीं सदी के सुधार आंदोलनों में भी देख चुके हैं।
इस अध्याय में आपको स्पष्ट होगा कि आधुनिकता के कारण न केवल नए विचारों को राह मिली बल्कि परंपरा पर भी पुनर्विचार हुआ और उसकी पुनर्विवेचना भी हुई। संस्कृति और परंपरा, दोनाें का ही अस्तित्व सजीव है। मानव उन दोनों को ही सीखता है और साथ ही इनमें बदलाव लाता है। हम दैनिक जीवन से उदाहरण लेते हैं। जैसे, आज के भारत में किस प्रकार से साड़ी या जैन सेम या सरोंग पहना जाता है। पारंपरिक रूप से साड़ी, जो एक प्रकार का ढीला–बगैर सिला हुआ कपड़ा होता है, को विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग ढंग से पहना जाता है। आधुनिक युग में मध्यवर्गीय महिलाओं में साड़ी पहनने के एक मानक तरीके का प्रचलन हुआ। जिसमें पारंपरिक साड़ी को पश्चिमी पेटीकोट और ब्लाउज के साथ पहना जाने लगा।
भारत की संरचनात्मक और सांस्कृतिक विविधता स्वतः प्रमाणित है। यह विविधता उन विभिन्न तरीकों को आकार देती है जिसमें आधुनिकीकरण या पश्चिमीकरण, संस्कृतीकरण या पंथनिरपेक्षीकरण, विभिन्न समूहों के लोगों को अलग प्रभावित करते हैं या प्रभावित नहीं करते। इस पाठ के अगले पृष्ठों में आप इन भिन्नताओं को देखेंगे। स्थानाभाव के कारण हम इसकी विस्तृत व्याख्या नहीं करेंगे। आपसे अपेक्षा की जाती है कि आधुनिकीकरण के उन जटिल पक्षों को रेखांकित करें एवं उनका विवेचन करें जिन्होंने देश के विभिन्न भागों में लोगों को प्रभावित किया अथवा एक ही क्षेत्र में विभिन्न जातियों एवं वर्गो को प्रभावित किया और एक ही वर्ग अथवा समुदाय से संबधित पुरुषों एवं महिलाओं को प्रभावित किया।
आधुनिकता एवं परंपरा का मिश्रण
क्रियाकलाप 2.3
→ कुछ इस प्रकार के अन्य उदाहरणों का उल्लेख करें जो आप दिन-प्रतिदिन की जिंदगी में और व्यापक स्तर पर पाते हैं-
My father’s clothes represented his inner life very well. He was a south Indian Brahmin gentleman. He wore neat white turbans, a Sri Vaisnava caste mark ..yet wore Tootal ties, Kromentz buttons and collar studs, and donned English serge jackets over his muslin dhotis which he wore draped in traditional Brahmin style.
Source: A.K. Ramanujan in Marriot ed. 1990: 42
हम संस्कृतीकरण की अवधारणा से शुरुआत करते हैं। इसकी शुरुआत करने की वजह यह है कि सामाजिक गतिशीलता की यह प्रक्रिया उपनिवेशवाद के प्रादुर्भाव के पहले से है और ये बाद में भी भिन्न रूपों में जारी रही। अन्य तीन परिवर्तनों की प्रक्रियाएँ जिनके बारे में हम संस्कृतीकरण के बाद चर्चा करेंगे, उपनिवेशवाद से उपजी परिस्थितियों से प्रचलन में आईं। आधुनिक पश्चिमी विचारों जैसे स्वतंत्रता और अधिकार के बारे में जानने के फलस्वरूप भारतीय इन तीन परिवर्तनकारी प्रक्रियाओं के प्रत्यक्ष प्रभाव में आए। जैसा कि पहले भी लिखा जा चुका है, आधुनिक ज्ञान की प्राप्ति के बाद शिक्षित भारतीयों को अक्सर उपनिवेशवाद में अन्याय और अपमान का एहसास हुआ जिसकी प्रतिक्रिया में पारंपरिक अतीत और धरोहरों की तरफ़ वापसी की इच्छा की प्रवृत्ति भी देखी गई। इस प्रकार एक जटिल परिस्थिति का जन्म हुआ जिसमें भारत का आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण और पंथनिरपेक्षीकरण से सामना हुआ।
2.3 सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न प्रकार
संस्कृतीकरण
संस्कृतीकरण शब्द की उत्पत्ति एम.एन. श्रीनिवास ने की। संस्कृतीकरण का अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसमें निम्न जाति या जनजाति या अन्य समूह उच्च जातियों विशेषकर, द्विज जाति की जीवन पद्धति, अनुष्ठान, मूल्य, आदर्श, विचारधाराओं का अनुकरण करते हैं।
संस्कृतीकरण के बहुआयामी प्रभाव हैं। इसके प्रभाव भाषा, साहित्य, विचारधारा, संगीत, नृत्य, नाटक, अनुष्ठान व जीवन पद्धति में देखे जा सकते हैं।
Kumudtai’s journey into Sanskrit began with great interest and eagerness with Gokhale Guruji, her teacher at school…At the University, the Head of the Department was a well-known scholar and he took great pleasure in taunting Kumudtai…Despite the adverse comments she successfully completed her Masters in Sanskrit….
Source: Kumud Pawade (1938)
मूलतः संस्कृतीकरण की प्रक्रिया हिंदू समाज के अंतर्गत विद्यमान है। यद्यपि श्रीनिवास को गैर हिंदू संप्रदायों और समूहों में भी यह प्रक्रिया दिखाई पड़ती है। विभिन्न क्षेत्रों के अध्ययन से यह पाया गया है कि यह प्रक्रिया देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग ढंग से होती है। जिन क्षेत्रों में उच्चस्तरीय सांस्कृतिक जातियाँ प्रभुत्वशाली थीं उस क्षेत्र की संपूर्ण संस्कृति में किसी न किसी स्तर का संस्कृतीकरण हुआ। जहाँ गैर संस्कृतीकरण जातियाँ प्रभुत्वशाली थी वहाँ की संस्कृति को इन जातियों ने प्रभावित किया इस प्रक्रिया को जिसे श्रीनिवास ने विसंस्कृतीकरण की संज्ञा दी। इसके अलावा अन्य क्षेत्रीय विभिन्नताएँ भी पाई जाती है। कई सदियों तक 19वीं शताब्दी के तीन चौथाई भाग तक पारसियों को प्रभुत्वशाली माना जाता था।
श्रीनिवास का तर्क है कि "किसी भी समूह का संस्कृतीकरण उसकी प्रस्थिति को स्थानीय जाति संस्तरण में उच्चता की तरफ़ ले जाता है। सामान्यतया यह माना जाता है कि संस्कृतीकरण संबंधित समूह की आर्थिक अथवा राजनीतिक स्थिति में सुधार है अथवा हिंदुत्व की महान-परंपराओं का किसी स्रोत के साथ उसका संपर्क होता है परिणामस्वरूप उस समूह में उच्च चेतना का भाव उभरता है। महान परंपराओं के यह स्रोत कोई तीर्थ स्थल हो सकता है, कोई मठ हो सकता है अथवा कोई मतांतर वाला संप्रदाय हो सकता है।" लेकिन तीव्र असमानता वाला समाज, जैसे भारतीय समाज में, उच्च जातियों की जीवनशैली, अनुष्ठान, ज्ञान आदि को निम्नजातियों द्वारा अपनाना मुश्किल है, क्योंकि इसके लिए अनेक सामाजिक रुकावटें हैं। वस्तुतः पारंपरिक तौर पर उच्च जाति के लोग उन निम्न जातीय लोगाें को दंडित करते थे जो इस प्रकार की चेष्टा करने का साहस जुटा पाते थे। नीचे दिए गए उद्धरण से आप उपरोक्त विचार को समझ सकते हैंः
कुमुद पावड़े ने अपनी आत्मकथा में स्मरण किया है कि कैसे एक दलित महिला संस्कृत की शिक्षक बनी। शायद यह एक एेसा माध्यम है जो उन्हें उन क्षेत्रों में जाने देता जिनमें अब तक लैंगिक प्रस्थिति एवं जाति के आधार पर प्रवेश संभव नहीं था। शायद वो संस्कृत के ज्ञान के लिए इसलिए भी प्रेरित हुई ताकि वो मूल संस्कृत साहित्य में स्त्री और दलितों के बारे में कही गई बातों को जान सके। जैसे-जैसे वो अपने अध्ययन में आगे बढ़ी उसे अनेक प्रकार की सामाजिक प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ा। जिनमें आश्चर्य से लेकर ईर्ष्या तक सम्मिलित थी साथ ही उसमें संरक्षित स्वीकृति से लेकर पूर्ण अस्वीकृति तक के पक्ष सम्मिलित थे। जैसा कि वह कहती हैं,
इसका परिणाम ये हुआ कि मैं अपनी जाति को भूलने की पूरी कोशिश करती हूँ लेकिन ये प्रायः असंभव है और इससे मुझे वो अनुभव याद आता है जो मैंने कहीं सुना थाः "जो जन्म से मिला हो, और जो मरने के बाद भी नष्ट न हो-वो जाति है।"
संस्कृतीकरण एक एेसी प्रक्रिया की ओर संकेत करता है जिसमें व्यक्ति सांस्कृतिक दृष्टि से प्रतिष्ठित समूहों के रीति रिवाज एवं नामों का अनुकरण कर अपनी प्रस्थिति को उच्च बनाते हैं। संदर्भ प्रारूप अधिकतर आर्थिक रूप में बेहतर होता है। दोनों ही स्थितियों में यह संकेत विद्यमान हैं कि जब व्यक्ति धनवान होने लगते हैं तो उनकी आकांक्षाओं और इच्छाओं को प्रतिष्ठित समूह भी स्वीकारने लगते हैं।
संस्कृतीकरण की अवधारणा की अनेक स्तरों पर आलोचना की गई है। सर्वप्रथम, इस अवधारणा की आलोचना में यह कहा जाता है कि इसमें सामाजिक गतिशीलता निम्न जाति का सामाजिक स्तरीकरण में उर्ध्वगामी परिवर्तन करती है को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है। इस प्रक्रिया से कोई संरचनात्मक परिवर्तन न होकर केवल कुछ व्यक्तियों का स्थिति परिवर्तन होता है। दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह है कि कुछ व्यक्ति, असमानता पर आधारित सामाजिक संरचना में, अपनी स्थिति में तो सुधार कर लेते हैं लेकिन इससे समाज में व्याप्त असमानता व भेदभाव समाप्त नहीं हो जाते। दूसरा, आलोचनात्मक पक्ष यह है कि इस अवधारणा की विचारधारा में उच्चजाति की जीवनशैली उच्च एवं निम्न जाति के लोगों की जीवनशैली निम्न है। अतः उच्च जाति के लोगों की जीवनशैली का अनुकरण करने की इच्छा को वांछनीय और प्राकृतिक मान लिया गया है।
तीसरी आलोचना यह है कि संस्कृतीकरण की अवधारणा एक एेसे प्रारूप को सही ठहराती है जो दरअसल असमानता और अपवर्जन पर आधारित है इससे संकेत मिलता है कि पवित्रता और अपवित्रता के जातिगत पक्षों को उपयुक्त माना जाए और इसलिए ये लगता है कि उच्च जाति द्वारा निम्न जाति के प्रति भेदभाव एक प्रकार का विशेषाधिकार है। इस प्रकार के दृष्टिकोण वाले समाज में, समानता की कल्पना कठिन है। निम्नांकित उद्धरण से पता चलता है कि समाज पवित्रता-अपवित्रता को कितना महत्त्व देता है।
यद्यपि सुनार मुझसे ऊँचे दर्जे की जाति है, फिर भी हमारी जाति में सुनारों से भोजन या पानी ग्रहण करना वर्जित है। हम ये मानते हैं कि सुनार इतने लोभी होते हैं कि वो मल-मूत्र से भी सोना ढूँढ़ निकालते हैं। वैसे तो जाति में ऊँचे हैं लेकिन वो हमसे ज़्यादा अपवित्र हैं। हम अन्य उच्च जातियों से भोजन नहीं लेते जो अपवित्र काम करते हैंः धोबी, जो गंदे कपड़ों को धोता है, तेली जो बीज को पीसकर तेल निकालता है।
इससे पता चलता है कि कैसे भेदभाव उत्पन्न करने वाले विचार जीवन का अहम हिस्सा बन गए। समानता वाले समाज की आकांक्षा की बजाय वर्जित समाज एवं भेदभाव को अपने अपने तरीके से अर्थ देकर वर्जनीय (बहिष्कृत) पदों को स्थापित किया गया। दूसरे शब्दों में यह कि जिन्हें समानता का दर्जा नहीं मिला हुआ है वो भी अपने से नीचे वाले को भेदभाव के नजरिए से देखना चाहते हैं। इससे समाज में गहराई तक विद्यमान लोकतंत्र विरोधी सोच का पता चलता है।
क्रियाकलाप 2.4
संस्कृतीकरण के भाग को गौर से पढ़ेें ‘क्या आपको इस प्रक्रिया में जेंडर पर आधारित सामाजिक भेदभाव के सबूत दिखते हैं। जैसे कि यह प्रक्रिया महिलाओं को पुरुषों से अलग दर्शाती है। क्या आपको लगता है कि यह प्रक्रिया पुरुषों की स्थिति में कोई परिवर्तन लाती है, जबकि महिलाओं के लिए सत्य इससे विपरीत है।’
चौथी आलोचना में यह कहा जाता है कि उच्च जाति के अनुष्ठानों, रिवाजों और व्यवहार को संस्कृतीकरण के कारण स्वीकृति मिलने से लड़कियों और महिलाओं को असमानता की सीढ़ी में सबसे नीचे धकेल दिया जाता है। इससे कन्यामूल्य के स्थान पर दहेज प्रथा और अन्य समूहों के साथ जातिगत भेदभाव इत्यादि बढ़ गए हैं।
पाँचवीं दलित संस्कृति एवं-दलित समाज के मूलभूत पक्षों को भी पिछड़ापन मान लिया जाता है उदाहरण के लिए, निम्न जाति के लोगों द्वारा किए गए श्रम को भी निम्न एवं शर्मदायक माना जाता है। उन कार्यों को सभ्य नहीं माना जाता है जिन्हें निम्न जाति के लोग करते हैं। उनसे जुड़े सभी कार्यों जैसे शिल्प तकनीकी योग्यता, विभिन्न औषधियों की जानकारी, पर्यावरण का ज्ञान, कृषि ज्ञान, पशुपालन संबंधी जानकारी इत्यादि को औद्योगिक युग में गैर उपयोगी मान लिया गया है।
ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन एवं क्षेत्रीय स्वचेतना के विकास ने 20वीं शताब्दी में एेसे प्रयासों को जन्म दिया जिसके अंतर्गत अनेक भारतीय भाषाओं से संस्कृत के शब्दों एवं मुहावरों को हटा दिया गया। पिछड़े वर्गों के आंदोलनों का एक निर्णायक परिणाम यह हुआ कि जातीय समूह एवं व्यक्तियों की उर्ध्वगामी गतिशीलता में पंथनिरपेक्ष कारकों की भूमिका पर बल दिया जाने लगा। प्रभुत्व जाति की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि अब वैश्य, क्षत्रिय एवं-ब्राह्मण वर्ण से संबंधित लोगों को जाति पहचान बताने की कोई इच्छा नहीं थी। बल्कि दूसरी ओर प्रभुत्व जातीय सदस्यता प्रतिष्ठा का सूचक बन गई है। विगत वर्षों में एेसी ही भावना दलितों में भी आई है। जो अपने को दलित बताने में प्रतिष्ठा अनुभव करते है। हालाँकि दलित जातीय समूहों में सबसे ज्यादा गरीब एवं सीमांत लोग अपनी जातिगत पहचान के आधार पर अन्य क्षेत्रों में उनके दबे-कुचले होने की क्षतिपूर्ति भी करते हैं। अर्थात् दूसरे शब्दों में उन्होंने कुछ प्रतिष्ठा एवं आत्मविश्वास अर्जित किया है अन्यथा वे भेदभाव एवं अपवर्जन का शिकार हैं।"
पश्चिमीकरण
बॉक्स 2.2
सोचने का तरीका
..........जॉन स्टुअर्ट मिल का लेख ‘अॉन लिबर्टी’ प्रकाशन के तुरंत बाद ही, भारतीय महाविद्यालयों में इसे एक स्वीकृत साहित्य मान लिया गया। इस लेख से भारतीयों ने मैग्ना कार्टा के बारे में जाना और स्वतंत्रता और समानता के लिए यूरोप और अमेरिका में हुए संघर्ष आदि की जानकारी भी हुई।
बॉक्स 2.3
जीवन का तरीका
देवकी याद करती है कि जब वो छोटी थी उसके घर में उबले हुए अंडों को अंडों के खोल में ही खाया जाता था और उसकी माँ दलिया पकाती थी और सबके कटोरे में डालकर मेज पर रख देती थी, जिसमें दूध और चीनी मिलाया जाता था। ये बात और घरों से अलग थी। और घरों में अंडे को उस तरह नहीं खाया जाता था जैसे देवकी के यहाँ; न ही दलिये को दूध और चीनी के साथ मिलाया जाता था। देवकी, को याद है कि जब भी उसने अपनी माँ से इसके बारे में पूछा उसकी माँ ने बताया कि खाने का यह तरीका वस्तुतः उन दिनों से चला आ रहा है जब रियासत हुआ करती थी। (अब्राहम 2006:146)
(यह उदाहरण केरल के थिय्या समुदाय पर किए गए नृवंशीय अध्ययन से लिया गया है।)
आप पहले अध्याय में हमारे पश्चिमी-औपनिवेशिक अतीत के बारे में जान चुके हैं। ये भी जाना कि इसके प्रभाव से अनोखे व विरोधाभासी परिवर्तन आए। एम. एन. श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण की परिभाषा देते हुए कहा कि यह भारतीय समाज और संस्कृति में, लगभग 150 सालों के ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप आए परिवर्तन हैं, जिसमें विभिन्न पहलू आते हैं...जैसे प्रौद्योगिकी, संस्था, विचारधारा, और मूल्य।
पश्चिमीकरण के विभिन्न प्रकार रहे हैं। एक प्रकार के पश्चिमीकरण का मतलब उस पश्चिमी उप सांस्कृतिक प्रतिमान से है जिसे भारतीयों के उस छोटे समूह ने अपनाया जो पहली बार पश्चिमी संस्कृति के संपर्क में आए हैं। इसमें भारतीय बुद्धिजीवियों की उपसंस्कृति भी शामिल थी इन्होंने न केवल पश्चिमी प्रतिमान चिंतन के प्रकारों, स्वरूपों एवं जीवनशैली को स्वीकारा बल्कि इनका समर्थन एवं विस्तार भी किया। 19वीं सदी के अनेक समाज सुधारक इसी प्रकार के थे। दिए गए बॉक्सों से आपको विभिन्न प्रकार के पश्चिमीकरण के बारे में ज्ञान होगा।
क्रियाकलाप 2.5
→ क्या आप एेसे भारतीयों के विषय में सोच सकते हैं जो अपनी पोशाक एवं अभिव्यक्ति से पूर्णरूपेण पश्चिमी हों परंतु उनमें प्रजातांत्रिक व समानता के मूल्यों की कोई छाप न हो जोकि आधुनिक दृष्टिकोण के भाग हैं। हम आपको दो उदाहरण दे रहे हैं। क्या आप एेसे अन्य उदाहरण वास्तविक जीवन एवं फिल्मों में पाते हैं।
हम एेसे अनेक लोगों को देखते हैं जो पश्चिमी शिक्षा प्राप्त हैं लेकिन कुछ विशिष्ट सजातीय अथवा धार्मिक समुदायों के विषय में उनके विचार पूर्वाग्रही हैं। एक परिवार जिसने पश्चिमी संस्कृति के बाह्य स्वरूप को स्वीकार कर लिया है, जिसे उनके आवास की आंतरिक साज-सज्जा में देखा जा सकता है परंतु समाज में महिलाओं की भूमिकाओं के विषय में उनके विचार अत्यंत संकीर्ण हैं। बालिका भ्रूण हत्या, महिलाओं के प्रति भेदभाव पूर्ण दृष्टिकोण एवं अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग।
→ आपको ये भी चर्चा करनी है कि इस तरह का दोहरापन और विरोधाभास केवल भारतीयों में ही देखने को मिलता है या गैर पश्चिमी समाज में रह रहे लोगों में भी व्याप्त है? क्या यह उतना ही सच नहीं है कि पश्चिमी समाजों में भी प्रजातीय एवं भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण विद्यमान है।
अतः हम पाते हैं कि एेसे लोग कम ही थे जो पश्चिमी जीवन शैली को अपना चुके थे या जिन्होंने पश्चिमी दृष्टिकोण से सोचना शुरू कर दिया था। इसके अलावा अन्य पश्चिमी सांस्कृतिक तत्वों जैसे नए उपकरणों का प्रयोग, पोशाक, खाद्य-पदार्थ तथा आम लोगों की आदतों और तौर-तरीकों में परिवर्तन आदि थे। हम पाते हैं कि पूरे देश में मध्य वर्ग के एक बड़े हिस्से के परिवारों में टेलीविजन, फ्रिज, सोफा सेट, खाने की मेज और उठने-बैठने के कमरे में कुर्सी आदि आम बात है।
पश्चिमीकरण में किसी संस्कृति-विशेष के बाह्य तत्त्वों के अनुकरण की प्रवृत्ति भी होती है। परंतु आवश्यक नहीं कि वे प्रजातंत्र और सामाजिक समानता जैसे आधुनिक मूल्यों में भी विश्वास रखते हों।
जीवनशैली एवं चिंतन के अलावा भारतीय कला और साहित्य पर भी पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव पड़ा। अनेक कलाकार जैसे रवि वर्मा, अबनिंद्रनाथ टैगोर, चंदू मेनन, और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय सभी औपनिवेशिक स्थितियों के साथ अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएँ कर रहे थे। अगले पृष्ठ पर दिए गए बॉक्स में आपको पता चलेगा कि रवि वर्मा जैसे कलाकार की शैली, प्रविधि और कलात्मक विषय को पश्चिमी संस्कृति तथा देशज परंपराओं ने निर्मित किया। इस बॉक्स में उस चित्र की चर्चा हुई है जिसमें रवि वर्मा ने केरल के देशीय समुदाय के एक परिवार का चित्रण किया है; तथा वो चित्र जिसमें एक एेसा परिवार है जो कि आधुनिक पश्चिमी विशिष्ट पितृवंशीय एकाकी परिवार लगता है, जिसमें पिता, माता और बच्चे सम्मिलित हैं।
उपरोक्त विवेचना और उदाहरणों से यह पता चलता है कि सांस्कृतिक परिवर्तन विभिन्न स्तरों पर हुआ और इसके मूल में हमारा, औपनिवेशिक काल में पश्चिम से परिचय था। आज के युग मेें पीढ़ियों के बीच संघर्ष और मतभेद को एक प्रकार के सांस्कृतिक संघर्ष और मतभेद के रूप में भी देखा जाता है जो कि पश्चिमीकरण का परिणाम है। निम्नलिखित कथन को पढ़ते हुए आप इस अंतराल को समझेंगे क्या आपने इसे देखा है या एेसा अनुभव किया है? आप अपने आप से ये प्रश्न पूछें कि क्या केवल पश्चिमीकरण ही पीढ़ियों के बीच होने वाले संघर्ष का कारण है? क्या ये संघर्ष आवश्यक बुराई है?
बॉक्स 2.4
1870 में रवि वर्मा को किजाक्के पलाट कृष्णा मेनन के परिवार का चित्रांकन करने के लिए अनुबंधित किया गया। ... यह एक परिवर्ती कार्य था जो परिवर्तन के स्तर से गुजरते समय का सूचक था। इसमें सपाट द्विआयामी शैली का मिश्रण होता है। साथ ही पुराने जमाने का जल-मिश्रण, रंग तथा नयी तकनीक, दृष्टिकोणों एवं छायात्मकता की नवीन प्रविधियों की उपस्थिति मिलती है जो कि तैलीय चित्र के रूप में व्यक्त होती है..... इसकी अन्य विशेषता है स्थानों के वितरण करने की प्रविधि जैसे उम्र और स्तरीकरण के अनुसार बैठे हुए व्यक्तियों की व्यवस्था, उससे 19वीं सदी के उन यूरोपीय चित्राें की याद आती है जिसमें बुर्जुवा परिवार दिखाए गए हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि ये पेेंटिंग मातृवंशीय केरल के नायरों की हैं जो कि कृष्णा मेनन की जाति थी, उस वक्त बनायी गई थीं जब वे पितृस्थानीय एकल परिवार से ज़्यादा परिचित भी नहीं थे......"
(स्रोत ः जी. अरुणिमा "फेस वेल्यूः रवि वर्मास् पोर्टेचर एंड द प्रोजेक्ट अॉफ़ कॉलोनियल मॉडर्निटी" दी इंडियन इकोनॉमिक्स एंड सोशल हिस्ट्री रिव्यू, 40, 1 (2003) (पृष्ठ 57-80)।
राजा रवि वर्मा
श्रीनिवास के अनुसार, निम्न जाति के लोग संस्कृतीकरण की प्रक्रिया को अपनाते हैं। जबकि उच्च जाति के लोग पश्चिमीकरण को भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, इस तरह का सामान्यीकरण अनुपयुक्त है। जैसे कि केरल के थिय्या; (जो किसी भी प्रकार उच्च जाति के नहीं हैं), के अध्ययन से पता लगता है कि थिय्या भी पश्चिमीकरण की इच्छा रखते हैं और भरसक प्रयास भी करते हैं। अभिजात थिय्याओं ने तो ब्रिटिश संस्कृति को स्वीकार किया और एक एेसी विश्वजनीन जीवन-शैली की महत्त्वाकांक्षा की जो जाति व्यवस्था की आलोचना करती है। ठीक इसी तरह पश्चिमी शिक्षा से लगता है कि उत्तर पूर्वी क्षेत्रोें में विभिन्न समूहों के लोगों के लिए नवीन अवसर उत्पन्न होंगे। निम्नलिखित उद्धरण से ये बात स्पष्ट होती है।
बॉक्स 2.5
प्रायः मध्य वर्ग में पश्चिमीकरण से आया पीढ़ियों का मतभेद अधिक जटिल होता है-
.......हालाँकि वे मेरे अपनी ही मांस मज्जा से हैं, लेकिन कभी-कभी वे मुझे पूरी तरह से अपरिचित से लगते हैं। हमारे बीच में कुछ भी समान नहीं है.....न तो उनके जैसा सोचने का तरीका, न ही उनके जैसा पहनना-ओढ़ना, न ही बोलना-चालना। वेे नयी पीढ़ी के हैं। मेरे सोचने का तरीका उनसे इतना अलग है कि हमारे बीच किसी भी प्रकार की पारस्परिकता असंभव है। फिर भी मैं उनको अपने हृदय से प्यार करती हूँ। मैं उन्हें हर वो चीज़ देना चाहूँगी जो वो चाहें क्योंकि उनकी खुशी ही मेरी इच्छा है। रबिंद्रनाथ के वो शब्द मेरे हृदय में एक मार्मिक अनुभव देते हैंः "तुम्हारा समय है; अब मेरे अंत की शुरुआत है।" मैं और मेरे बच्चे पल्लव, कल्लोल और किंगकिनी में कुछ भी समान नहीं है। पल्लव एक अलग देश में, एकदम से अलग संस्कृति में रहता है। उदाहरणस्वरूप, हम बारह साल की उम्र से मेखला चादर पहनते रहे थे। लेकिन मेरी बेटी किंगकिनी जो गुवाहाटी विश्वविद्यालय में बिजनेस मैनेजमेंट की विद्यार्थी है, पैंट और बैगी कमीज पहनती है। और कल्लोल को अपने चेहरे पर उलझे हुए बाल रखना अच्छा लगता है। जब मैं मीरा के भजन सुनना चाहती हूँ, कल्लोल और किंगकिनी व्हिटनी हस्टन के पॉप गीत सुनना पसंद करते हैं। कभी-कभार जब मैं बरगीत की कुछ लाइनें गाने की कोशिश करती हूँ, किंगकिनी अपने गिटार पर पश्चिमी धुन बजाना चाहती है।
स्रोत : अनिमा दत्ता से उद्धृत, 1999 "एज़ डेज रोल अॉन" इन वूमनः ए कलेक्शन अॉफ़ असामिज शॉर्ट स्टोरीज, डायमंड जुबली वॉल्यूम, गुवाहाटी स्पेक्टर्म पब्लिकेशंस।
बॉक्स 2.6
मेरे दादा जो अन्य नागाओं की तरह ही यूरोपियनों के संपर्क में आए थे वे यह मानते थे कि शिक्षा से ही जीवन में आगे बढ़ा जा सकता है। उन्होंने अपने बच्चों के लिए वैसा ही जीवन चाहा जैसा उन्होंने ब्रिटिश प्रशासकों और मिशनरियों को जीते देखा। उन्होंने मेरी माँ को पहले असम के पास वाले स्कूल में फिर दूर शिमला भेजा, ताकि वे शिक्षित हो जाएँ। मेरी माँ को गाँव के एक शिक्षित आदमी ने बताया कि मेरी माँ पढ़-लिखकर वैसी ही औरत बन सकती है जिसने सारी दुनिया के सामने अपना भाषण दिया था-यह औरत थी विजयलक्ष्मी पंडित, पंडित नेहरू की बहन, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। मेरे पिता ने स्वयं को स्कूल व कॉलेज की शिक्षा दिलाने के लिए कठिन परिश्रम किया था। अपनी मेधावी बुद्धि के कारण ही वह शिलांग में कॉलेज की पढ़ाई कर पाए। मेरे माता-पिता की पीढ़ी के सब लोगों ने, जो सक्षम थे, अंग्रेज़ी शिक्षा को लक्ष्य बनाया। उनके लिए यह एक प्रकार से ऊर्ध्वगामी विकास का रास्ता था। अंग्रेज़ी की शिक्षा ने इस क्षेत्र में, जहाँ रहने वाली जनजाति में प्रत्येक 20 किलोमीटर पर एक भिन्न भाषा बोली जाती है, भिन्न भाषाभाषी लोगों को आपस में तथा दुनिया के साथ जोड़ा। अब वो एक भाषा के माध्यम से बातें कर सकते थे और विचारों का आदान-प्रदान कर सकते थे। ये शिक्षित लोग अपने लोगों की आवाज बन गए तथा उन्होंने अंग्रेज़ी को राजकीय प्रशासकीय भाषा बनाया (आओः2005:111)।
क्रियाकलाप 2.6
→ उन सभी छोटे-बड़े तरीकों का अवलोकन करें जहाँ पश्चिमीकरण से हमारा जीवन प्रभावित होता है।
→ आप देख चुके हैं कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने हमारा जीवन कैसे प्रभावित किया। क्या पश्चिमीकरण का मतलब ब्रिटिश की नकल मात्र है, कैसे? क्या हम आजकल पश्चिमीकरण का मतलब अमेरिकीकरण नहीं पाते हैं? नीचे दिए गए "संपादक को लिखे एक पत्र" में इसका ब्यौरा दिया गया है। इसे पढ़ें और चर्चा करें।
एक नया राज
अपने आपको महाद्वीप, ब्रिटेन एवं आयरलैंड से अलग करने के लिए अमेरिका ने तारीख, महीने एवं वर्ष के प्रारूप में आंशिक रूप से उलटफेर कर एक नया प्रारूप बनाया जिसमें महीना-तारीख-वर्ष आता है। हालाँकि अमेरिका को बनाने वाले ब्रिटिश और आयरलैंड से आए थे। 11 सितंबर जिस दिन न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आक्रमण हुआ, वह स्वतः 9/11 बन गया। यह अमेरिका के द्वारा प्रयुक्त किया गया संक्षिप्त रूप है। विश्व का शेष भाग भी इसे प्रयुक्त करता था लेकिन अनेक देशों ने यह नहीं सोचा कि किसी वर्ष का महीने का क्रम तब आता है जबकि पहले उस महीने के दिन को बता दिया जाए। हम कैसे इस तथ्य का विश्लेषण करेंगे कि मुंबई में ट्रेन धमाकों को "7/11" कहा जाए? हम तो ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा थे इसलिए हम अधिकांशतः तारीख-महीना-वर्ष प्रारूप को इस्तेमाल करते हैं।
(द हिंदू अगस्त 21, 2006)।
एक समय पर अनेक भारतीयों ने अंग्रेज़ी भाषा को वैसे ही बोला था जैसे ब्रिटिश बोलते थे। क्या इसमें अब कोई परिवर्तन आया है? क्या आपको लगता है कि अब अमेरिकी उच्चारण व वाक्शैली का ज्यादा प्रभाव है?
हम प्रायः पश्चिमीकरण की विवेचना करते हुए उपनिवेशवाद के प्रभाव का हवाला अवश्य देते हैं। लेकिन इसके अलावा हम यह भी पाते हैं कि हमारे समसामयिक जीवन में पश्चिमीकरण के अनेक स्वरूप उपस्थित होते हैं। क्रियाकलाप 2.6 में इस तरफ़ ध्यान आकर्षित किया गया है।
आधुनिकीकरण और पंथनिरपेक्षीकरण
आधुनिकीकरण शब्द का एक लंबा इतिहास है। 19वीं सदी से, और विशेषकर 20वीं सदी के दौरान, इस शब्द को सकारात्मक और वांछनीय मूल्यों से जोड़कर समझा जाने लगा। प्रत्येक समाज और उसके लोग आधुनिक बनना चाहते थे। प्रारंभिक वर्षों में आधुनिकीकरण का आशय प्रौद्योगिकी और उत्पादन प्रक्रियाओं में होने वाले सुधार से था। बाद में इस शब्द के वृहद मतलब सामने आने लगे। इसका मतलब विकास का वो तरीका हो गया जिसे पश्चिमी यूरोप या उत्तरी अमेरिका ने अपनाया। तदुपरांत ये सलाह दी जाने लगी कि अन्य समाजों में भी, आवश्यक रूप से विकास का यही तरीका और रास्ता अपनाया जाना चाहिए।
What kind of modernity?
They (upper caste founders of various oganisations and conferences, pretend to be modernists as long as they are in the service of the British government. The moment they retire and claim their pensions, they get into their brahmanical ‘touch-me-not attire’…
Jotiba Phule’s letter to the Conference of Marathi Authors
जैसाकि हमने अध्याय 1 में जाना, भारत में पूँजीवाद का प्रारंभ औपनिवेशिक शासन के संदर्भ में हुआ। भारत में आधुनिकीकरण और पंथनिरपेक्षीकरण का प्रारंभ भी औपनिवेशिक काल से संबद्ध है परंतु यह पश्चिम में हुई वृद्धि से अलग है। भारतीय अनुभव, इन मामलों में, पश्चिमी अनुभव से गुणात्मक रूप से भिन्न लगता है। इसके साक्ष्य के तौर पर आप 19वीं सदी में हुए समाज सुधारक आंदोलनों का स्मरण कर सकते हैं, जिसके बारे में इस पाठ के पूर्व में बताया गया था। हम पश्चिमीकरण और समाज सुधार आंदोलनों में एक स्पष्ट संबंध पाते हैं। अब आगे हम भारतीय संदर्भ में आधुनिकीकरण और पंथनिरपेक्षीकरण की चर्चा एक साथ करेंगे क्योंकि ये दोनों प्रक्रियाएँ परस्पर संबंधित हैं। ये दोनों ही आधुनिक विचारों का हिस्सा हैं। समाजशास्त्रियों ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की परिभाषा करते हुए इसके तत्त्वों को सामने लाने का प्रयास किया है।
क्रियाकलाप 2.7
आप किसी अखबार या वेबसाइट (जैसे शादी.कॉम) में विवाह संबंधी विज्ञापन के कॉलम को और उसका स्वरूप देखें और जानें कि उसमें कितनी बार जाति व समुदाय का संदर्भ आता है? अगर ये संदर्भ बार-बार आता है तो इसका अर्थ यह है कि आज भी जाति उस प्रकार की भूमिका निभा रही है जो वह परंपरागत रूप में निभाती थी। अथवा क्या जाति की भूमिका परिवर्तित हुई है? विचार करें।
‘आधुनिकता’ का मतलब ये समझ में आता है कि इसके समक्ष सीमित-संकीर्ण-स्थानीय दृष्टिकोण कमजोर पड़ जाते हैं और सार्वभौमिक प्रतिबद्धता और विश्वजनीन दृष्टिकोण (यानी कि समूचे विश्व का नागरिक होना) ज्यादा प्रभावशाली होता है; इसमें उपयोगिता, गणना और विज्ञान की सत्यता को भावुकता, धार्मिक पवित्रता और अवैज्ञानिक तत्त्वों के स्थान पर महत्त्व दिया जाता है; इसके प्रभाव में सामाजिक तथा राजनीतिक स्तर पर व्यक्ति को प्राथमिकता दी जाती है न कि समूह को; इसके मूल्यों के मुताबिक मनुष्य एेसे समूह/संगठन में रहते और काम करते हैं जिसका चयन जन्म के आधार पर नहीं बल्कि इच्छा के आधार पर होता है इसमें भाग्यवादी प्रवृत्ति केे ऊपर ज्ञान तथा नियंत्रण क्षमता को प्राथमिकता दी जाती है और यही मनुष्य को उसके भौतिक तथा मानवीय पर्यावरण से जोड़ता है; अपनी पहचान को चुनकर अर्जित किया जाता है न कि जन्म के आधार पर; इसका मतलब यह भी है कि कार्य को परिवार, गृह और समुदाय से अलग कर नौकरशाही संगठन में शामिल किया जाता है.........(रूडॉल्फ और रूडॉल्फ, 1967)।
दूसरे शब्दों में लोग स्थानीय, सीमाबद्ध विचारों से प्रभावित न होकर सार्वभौमिक जगत व उसके मूल्यों को मानते हैं। आपका व्यवहार और विचार, आपके परिवार या जनजाति या जाति या समुदाय द्वारा तय नहीं होंगे। आपको अपना व्यवसाय अपनी पसंद से चुनने की स्वतंत्रता होती है न कि यह विवशता कि जो व्यवसाय आपके माता-पिता ने किया वही आप भी करें। कार्य का चुनाव आपकी इच्छा पर आधारित है न कि जन्म पर। आप कौन हैं से आपकी पहचान आपकी अर्जित उपलब्धियों से बनती हैं, वैज्ञानिक प्रवृत्तियों को मान्यता प्राप्त होती है। तर्क को महत्ता मिलती है। क्या यह पूर्णतः सत्य है?
भारत में प्रायः रोजगार का चयन ‘पसंद’ के आधार पर नहीं हो पाता। एक सफ़ाई कर्मी को अपने काम को चुनने का अधिकार नहीं है। (देखें अध्याय 5, पुस्तक 1 एन.सी.ई.आर.टी. 2007)। हम सामान्यतः विवाह जाति और समुदाय के अंदर करते हैं। हमारे धार्मिक विश्वास हमारी जिंदगी में महत्वपूर्ण होते हैं। इस सबके साथ-साथ हमारी एक वैज्ञानिक परंपरा भी है। हमारी एक सक्रिय तथा प्रभावशाली पंथनिरपेक्ष व राजनीतिक व्यवस्था भी है। लेकिन इसके साथ ही हमारी जाति एवं समुदाय में गतिशीलता भी पाई जाती है। हम इन प्रक्रियाओं को कैसे समझते हैं? इस अध्याय में इन्हीं मिश्रित प्रक्रियाओं और उसके कारणों को समझने की चेष्टा की गई है।
बॉक्स 2.7
जैसे-जैसे आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई और विकास की गति बढ़ी, धर्म तथा विभिन्न प्रकार के उत्सवों, त्योहारों को मनाना, विभिन्न धार्मिक कृत्यों, विभिन्न समारोहों के आयोजनों, इन समारोहों से जुड़े निषेध विभिन्न प्रकार के दान एवं उनके मूल्य इत्यादि में निरंतर परिवर्तन आया विशेष रूप से यह परिवर्तन निरंतर बढ़ते और परिवर्तित होते हुए नगरीय क्षेत्र में हुआ।
इस परिवर्तनात्मक दबाव में जनजातीय पहचान की अवधारणा में एक प्रतिक्रिया हुई। एक जनजाति के होने के नाते पारंपरिक व्यवहारों और उनमेें निहित मूल्यों के संरक्षण को जरूरी समझा जाने लगा। आधुनिकीकरण के तहत जो नारे बुलंद किए गए थे-जैसे, ‘संस्कृति समाप्त, पहचान समाप्त’-उसे एक प्रकार का जबाव मिला जिसे समाज में हो रहे पारंपरिक चेतना के नवजागरण के रूप में देखा जाता है। त्योहारों का सामूहिक तौर पर मनाया जाना तथा रीति-रिवाजों के प्रति रुझान को इसी सामाजिक प्रतिक्रिया के रूप में समझा जा सकता है। आज के जनजातीय समाज में यह बहुत स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
पहले पारंपरिक तरीके से सामाजिक समूह त्योहारों को मनाते थे। उस समूह को सामाजिक मान्यता भी होती थी और उसमें एक प्रकार की अनौपचारिकता भी थी। अब उनकी जगह पर त्योहार मनाने के लिए समितियाँ बनने लगी हैं जिसकी संरचना में एक प्रकार की आधुनिकता होती है। परंपरागत रूप से, त्योहारों के दिन मौसम-चक्र के आधार पर तय किये जाते थे। अब उत्सव के दिन औपचारिक तरीके से सरकारी केलैंडर के द्वारा तय कर दिए जाते हैं।
इन त्योहारों को मनाने में झंडे की कोई विशेष डिज़ाइन नहीं होती, न ही कोई मुख्य अतिथि के भाषण होते हैं न ही मिस उत्सव प्रतियोगिता होती थी लेकिन अब ये सब नई आवश्यकताएँ बन गई हैं। जैसे-जैसे तार्किक अवधारणाएँ एवं विश्व दृष्टि जनजातियों के दिमाग में जगह बनाती जा रही है वैसे-वैसे पुराने व्यवहार और समारोह पर प्रश्न उठते जा रहे हैं।
हम आजकल के सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार को प्रायः परंपरा तथा आधुनिकता का एक जटिल मिश्रण कह कर एक सरलीकृत उत्तर देने की कोशिश करते हैं। जबकि इनके अपने निर्धारित सत्व हैं। इस प्रकार से जटिलता को सरल बनाने की प्रवृत्ति बहुत सही नहीं है। यथार्थ में इससे ये भी भ्रांति उत्पन्न होती है कि भारत में एक ही तरह की परंपराओं का समुच्चय है अथवा था। हमने पहले ही देखा है कि भारत में इन परंपराओं की पहचान दो मुख्य गुणों से होती है बाहुलता एवं तर्क-वितर्क की परंपरा। भारतीय परंपराओं में लगातार परिवर्तन होते रहे हैं और उन्हें पुनर्परिभाषित करने की सामाजिक-बौद्धिक चेष्टा कभी नहीं रुकी है। हमने इसका साक्ष्य 19वीं सदी के समाज सुधारकों और उनके आंदोलनों में देखा। ये प्रक्रियाएँ आज भी जीवंत हैं। नीचे दिए गए बॉक्स में एेसी ही एक प्रक्रिया का वर्णन किया गया है जो अरुणाचल प्रदेश में देखने को मिलती है।
आधुनिक पश्चिम में पंथनिरपेक्षीकरण का मतलब एेसी प्रक्रिया है जिसमें धर्म के प्रभाव में कमी आती है। आधुनिकीकरण के सिद्धांत के सभी प्रतिपादक विचारकों की मान्यता रही है कि आधुनिक समाज ज़्यादा से ज़्यादा पंथनिरपेक्ष होता है। पंथनिरपेक्षीकरण के सभी सूचक मानव के धार्मिक व्यवहार, उनका धार्मिक संस्थानों से संबंध (जैसे चर्च में उनकी उपस्थिति), धार्मिक संस्थानों का सामाजिक तथा भौतिक प्रभाव और लोगों के धर्म में विश्वास करने की सीमा, को विचार में लेते हैं। यह माना जाता है कि पंथनिरपेक्षीकरण के सभी सूचक आधुनिक समाज में धार्मिक संस्थानों और लोगों के बीच बढ़ती दूरी के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। लेकिन हाल ही में धार्मिक चेतना में अभूतपूर्व वृद्धि और धार्मिक संघर्ष के उदाहरण सामने आए हैं।
Connecting to God
By Raja Simhan T.E.
Are you distressed because your planned trip to the Meenakshi Amman temple in Madurai on your wedding anniversary will not materialise! Stop worrying. You are just a mouse click away from ordering an online puja on the Web and getting the blessings of the deity…. .com offers puja service in over 600 temples spread all over the country. People all over the world can order for a puja to be performed at a temple of their choice, in Kanyakumari or in Uttar Pradesh, to their favourite deity… The puja is performed as per the browser’s requirement through a network of franchisees (mostly temple priests) spread across the country, and the ‘prasaadham’ is delivered to anywhere in the world, within 5-7 days….For residents of India who cannot pay through credit cards.com performs the puja and collects the payment through cheque or demand draft…..The online puja service costs anywhere from $9.75 for a basic puja performed at any temple that you wish to a $75 for combination pujas.
Source: The Business Line, Financial Daily from The Hindu group of publications (Wednesday, September 20, 2000)
हालाँकि अतीत की भाँति एक विचार यह भी है कि आधुनिक युग धार्मिक जीवन को आवश्यक रूप से विलुप्त करेगा। यह विचार पूरी तरह से सच नहीं है। आपको यह याद होगा कि किस प्रकार संचार के आधुनिक प्रकारों, संगठन और विचार के स्तर पर नए प्रकार के धार्मिक सुधार संगठनों का उद्भव हुआ। इसके अलावा भारत में किए जाने वाले कुुुछ अनुष्ठानों में प्रत्यक्ष रूप से पंथनिरपेक्षीकृत प्रभाव भी रहा है।
क्रियाकलाप 2.8
पारंपरिक त्योहारों, जैसे दीवाली, दुर्गा पूजा, गणेश पूजा, दशहरा, करवा चौथ, ईद, क्रिसमस के अवसर पर प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों को देखें। एेसे कुछ विज्ञापनों को अखबारों और पत्रिकाओं से निकालें। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया जैसे टेलीविजन पर होने वाले विज्ञापन पर भी ध्यान दें। पता लगाएँ कि इन विज्ञापनों में क्या संदेश दिए जा रहे हैं।
वस्तुतः अनुष्ठानों के पंथनिरपेक्ष आयाम पंथनिरपेक्षता के लक्ष्यों से पृथक् होते हैं। इनसे पुरुषों और महिलाओं को अवसर मिलता है कि वो अपनी मित्रों से और अपनी उम्र से बड़े लोगों से भी घुलें-मिलें और अपनी संपत्ति का भी कपड़े और जेवर पहनकर उनका प्रदर्शन करें। पिछले कुछ दशकों से अनुष्ठानों के आर्थिक, राजनीतिक और प्रस्थिति आयामी पक्ष ज्यादा उभर कर सामने आए हैैं। दिखावे की प्रवृत्ति को इस बात से समझा जा सकता है कि शादी-ब्याह के अवसर पर घर के बाहर लगी मोटर कार की कतार और अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति (वी. आई. पी.) के मेहमान बनकर आने, को उस परिवार की समृद्धि व विशेषता समझा जाता है। स्थानीय समुदाय में एेसे परिवारों को ऊँची नजर से देखा जाता है।
बॉक्स 2.8
सभी जानते हैं कि भारत में पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था जाति-संरचना और जातीय पहचान के इर्द-गिर्द संगठित है। लेकिन आधुनिक परिदृश्य में, जाति और राजनीति के संबंध की व्याख्या करते हुए आधुनिकता के सिद्धांतों से बना नजरिया एक प्रकार के भय से ग्रसित होता है। वह इस प्रश्न से शुरू होता है कि क्या जाति समाप्त हो रही है?
निश्चित रूप से कोई भी सामाजिक व्यवस्था इस तरह समाप्त नहीं हो जाती। एक ज़्यादा उपयोगी दृष्टि अलबत्ता, यह होगी कि आधुनिक राजनीति के प्रभाव में जाति कौन-सा रूप लेकर सामने आ रही है, और जाति अभिमुखित समाज में राजनीति की क्या रूपरेखा है?
जो लोग भारतीय राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, दरअसल वो एेसी राजनीति की खोज में हैं जिसका समाज में कोई आधार ही नहीं.......राजनीति एक प्रतियोगात्मक प्रयास है जिसका उद्देश्य होता है शक्ति पर कब्ज़ा कर कुछ निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति करना। एक महत्वपूर्ण बात संगठन का होना तथा सहायता का निरूपण है। जहाँ राजनीति जन आधारित हो वहाँ एेसे संगठन द्वारा जिससे जनसाधारण का जुड़ाव हो, सहायता का निरूपण किया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जहाँ जातीय संरचना एक एेसा संगठनात्मक समूह प्रदान करती है जिसमें जनसंख्या का एक बड़ा भाग निवास करता है, राजनीति को एेसी ही संरचना के माध्यम से व्यवस्थित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
राजनीतिज्ञ जाति-समूहों को इकट्ठा करके अपनी शक्ति को संगठित करते हैं। वहाँ जहाँ अलग प्रकार के समूह और संस्थाओं के अलग आधार होते हैं, राजनीतिज्ञ उन तक भी पहुँचते हैं। और जैसे कि वे कहीं पर भी एेसी संस्थाओं के स्वरूपों को परिवर्तित करते हैं वैसे ही जाति के स्वरूपों को भी परिवर्तित करते हैं।
(कोठारी 1977: 57-70)
बॉक्स 2.8 के लिए अभ्यास
बॉक्स 2.8 में दिए गए तथ्यों को ध्यानपूर्वक पढ़ें इसमें दिए गए वाक्यों को देखें। मुख्य मुद्दों को संक्षेप में बताएँ। अपना उदाहरण दें।
जाति के पंथनिरपेक्षीकरण का अर्थ किस तरह लिया जाए इस पर भी जबरदस्त वाद-विवाद होता रहा है। इसका क्या मतलब है? पारंपरिक भारतीय समाज में जाति व्यवस्था धार्मिक चौखटे के अंदर क्रियाशील थी। पवित्र-अपवित्र से संबंधित विश्वास व्यवस्था इस क्रियाशीलता का केेंद्र थी। आज के समय में जाति एक राजनीतिक दबाव समूह के रूप में ज्यादा कार्य कर रही है। समसामयिक भारत में जाति संगठनों और जातिगत राजनीतिक दलों का उद्भव हुआ है। ये जातिगत संगठन अपनी माँग मनवाने के लिए दबाव डालते हैं। जाति की इस बदली हुई भूमिका को जाति का पंथनिरपेक्षीकरण कहा गया है। नीचे दिया गया बॉक्स इसे दर्शाता है।
निष्कर्ष
इस अध्याय में भारत में सामाजिक परिवर्तन लाने वाले विभिन्न तरीकों को दर्शाया गया है। औपनिवेशिक अनुभवों के परिणाम दीर्घकालिक थे। इनमें से बहुत से अनैच्छिक और विरोधाभासी थे? आधुनिकता के पश्चिमी विचारों ने भारतीय राष्ट्रवादियों की काल्पनिकता को निर्मित किया। कुछ पारंपरिक शास्त्रों और ग्रंथों को एक नए दृष्टिकोण देने के लिए तत्पर हुए, जबकि एक अन्य समूूह ने इन पारंपरिक ग्रंथों को अमान्य करार दिया। पश्चिमी सांस्कृतिक स्वरूपों की हमारे समाज में पैठ हुई। इसके अनुरूप ही एक नए प्रकार के सामाजिक व्यवहार के मानदंड सामने आए कि पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का आचरण किस प्रकार का हो; कलात्मक अभिव्यक्तियों में भी इसकी छाप नजर आई। हमारे समाज सुधार आंदोलनों और राष्ट्रीय आंदोलनों पर पाश्चात्य समानता और प्रजातंत्र के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। इन सबसे एक ओर जहाँ पश्चिमी विचारों को भारतीय समाज में स्वीकृति मिली वहीं दूसरी तरफ़ भारतीय परंपरा पर प्रश्न किए गए तथा उसकी पुनर्व्याख्या की गईं? अगला अध्याय भारत के प्रजातांत्रिक अनुभवों के बारे में है जिसमें पुनः यह दर्शाया गया है कि कैसे एक अत्यधिक असमानता वाले समाज में समानता एवं सामाजिक न्याय के मूलभूत विचारों पर आधारित संविधान को लागू किया गया। इस अध्याय में पुनः दर्शाया गया है कि कैसे कुछ जटिल तरीकों से हमारे समाज में परपंरा और आधुनिकता को लगातार पुनर्परिभाषित किया।
प्रश्नावली
1. संस्कृतीकरण पर एक आलोचनात्मक लेख लिखें।
2. पश्चिमीकरण का साधारणतः मतलब होता है पश्चिमी पोशाकों व जीवन शैली का अनुकरण। क्या पश्चिमीकरण के दूसरे पक्ष भी हैं? क्या पश्चिमीकरण का मतलब आधुनिकीकरण है? चर्चा करें।
4. लघु निबंध लिखेंः-
→ संस्कार और पंथनिरपेक्षीकरण
→ जाति और पंथनिरपेक्षीकरण
→ जेंडर और संस्कृतीकरण
संदर्भ ग्रंथ
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