3 भारतीय लोकतंत्र की कहानियाँ

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हम सभी इस विचार से परिचित हैं कि लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन है। लोकतंत्र की दो मुख्य श्रेणियाँ हैं-प्रत्यक्ष लोकतंत्र और प्रतिनिधिक (परोक्ष) लोकतंत्र। प्रत्यक्ष लोकतंत्र में सभी नागरिक, बिना किसी चयनित या मनोनीत पदाधिकारी की मध्यस्थता के, सार्वजनिक निर्णयों में स्वयं भाग लेते हैं। लेकिन यह पद्धति केवल वहीं व्यावहारिक है जहाँ लोगों की संख्या सीमित हो–उदाहरणार्थ, एक सामुुदायिक संगठन या आदिवासी परिषद् या फिर किसी श्रमिक संघ की स्थानीय इकाई, जहाँ सभी सदस्य एक कक्ष में एकत्र होकर विभिन्न मुद्दों पर परिचर्चा कर सकें और सर्वसम्मति या बहुमत से निर्णय ले सकें।

विशाल और जटिल आधुनिक समाज में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की संभावनाएँ बहुत कम हैं। आजकल हर जगह सामान्यतः प्रतिनिधिक लोकतंत्र ही पाया जाता है, चाहे वह 50,000 की जनसंख्या वाला एक कस्बा हो या फिर 10 करोड़ की जनसंख्या वाले राष्ट्र। इसमें सार्वजनिक हित की दृष्टि से राजनीतिक निर्णय लेने, कानून बनाने और कार्यक्रमों को लागू करने के लिए नागरिक स्वयं अधिकारियों को चुनते हैं। हमारे देश में प्रतिनिधिक लोकतंत्र है। प्रत्येक नागरिक को अपने प्रतिनिधि के पक्ष में मत देेने का अधिकार है। लोग पंचायत, नगर निगम बोर्ड, विधान सभाओं, संसद आदि सभी स्तरों पर अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। अब यह धारणा बलवती होती जा रही है कि लोकतंत्र में जनता की नियमित भागीदारी होनी चाहिए लेकिन इसका मतलब केवल हर पाँच साल में मतदान करना भर नहीं है। इस तरह सहभागी लोकतंत्र और विकेंद्रीकृत प्रशासन, दोनों ही धारणाएँ अत्यंत लोकप्रिय हैं। सहभागी लोकतंत्र एक एेसी व्यवस्था है जिसमें महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए किसी समूह या समुदाय के सभी सदस्य एक साथ भाग लेेते हैं। इस अध्याय में विकेंद्रीकृत और जमीनी लोकतंत्र के एक उदाहरण के रूप में पंचायतीराज व्यवस्था जो कि विकेंद्रीकरण की तरफ़ एक महत्वपूर्ण कदम है, की व्याख्या की जाएगी।

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भारत के उपनिवेश-विरोधी लंबे संघर्ष की परंपरा से एेसी प्रणालियाँ व मूल्य विकसित हुए, इन दोनों से भारतीय लोकतंत्र की नींव पड़ी। देश में इतनी विविधता और असमानता के होते हुए भी स्वतंत्रता के बाद के साठ वर्षों में भारतीय लोकतंत्र ने जो सफलता प्राप्त की है वह अत्यंत महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस अध्याय में भारत के समृद्ध व जटिल अतीत और वर्तमान का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करना संभव नहीं है।

अतः इस अध्याय में हम भारत में लोकतंत्र के विकास के विषय में संक्षिप्त दृष्टिकोण एवं सामग्री उपलब्ध कराने का प्रयास करेंगे। आइए, सबसे पहले हम भारतीय लोकतंत्र के मूल आधार भारतीय संविधान को देखें। हम इसके केंद्रीय मूल्यों व मान्यताओं पर दृष्टि केंद्रित करेंगे, संविधान निर्माण के विषय में संक्षिप्त चर्चा करेंगे और साथ ही संविधान निर्माण के समय होने वाले विवादों से संबंधित विभिन्न दृष्टिकोणों को देखेंगे। दूसरा हम लोकतंत्र की जमीनी प्रकार्यात्मकता के स्तर पर दृष्टिपात करेंगे, विशेष रूप से पंचायती राज व्यवस्था पर। इन दोनों ही विषयों के प्रतिपादन में आप पाएँगे कि लोगों के विभिन्न समूह हितों की प्रतिस्पर्धा में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, और एेसा प्रायः विभिन्न राजनीतिक दल भी कर रहे हैं। एक प्रकार्यात्मक लोकतंत्र का यह एक अनिवार्य अंग है। इस अध्याय के तीसरे भाग में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि हितों की प्रतिस्पर्धा में हित-समूह किस प्रकार कार्य करते हैं, हित-समूह और राजनीतिक दल से क्या आशय है और भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इनकी क्या भूमिका है।


3.1 भारतीय संविधान

भारतीय लोकतंत्र के केंद्रीय मूल्य

आधुनिक भारत की अन्य विभिन्न विशेषताओं की तरह ही हमें आधुनिक भारतीय लोकतंत्र की कहानी का प्रारंभ भी औपनिवेशिक काल से ही करना चाहिए। आपने अभी एेसे बहुत से संरचनात्मक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के विषय में पढ़ा है जिन्हें ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने जान-बूझकर उत्पन्न किया था। इनमें से कुछ अनैच्छिक रूप से हो गए। एेसे परिवर्तनों को लाने की अंग्रेज़ों की कोई इच्छा नहीं थी। उदाहरणार्थ, उन्होंने यहाँ पाश्चात्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार इसलिए किया ताकि वे पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त भारतीयों का एक मध्य वर्ग बना सकें और उनकी सहायता से यहाँ औपनिवेशिक उपनिवेशी शासन को निरंतर चलाते रहे। इससे यहाँ पाश्चात्य शिक्षा-प्राप्त भारतीयों का एक वर्ग बन गया। किंतु इस वर्ग ने ब्रिटिश शासन में सहयोग देने की अपेक्षा लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और राष्ट्रवाद जैसे पाश्चात्य उदार विचारों का प्रयोग औपनिवेशिक शासन को चुनौती देने के लिए किया।

किंतु इसका आशय यह कदापि नहीं है कि लोकतांत्रिक मूल्य और लोकतांत्रिक संस्थाएँ विशुद्ध रूप से पश्चिम की ही देन हैं। देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक फैले हुए हमारे प्राचीन महाकाव्य, कृतियाँ व विविध लोेककथाएँ संवादों, परिचर्चाओं और अंतर्विरोधी स्थितियों से भरी पड़ी हैं। किसी पहेली, लोकगीत, लोककथा या किसी महाकाव्य की कहानी के विषय में विचार कीजिए जो इन विभिन्न दृष्टिबिंदुआें को स्पष्ट करती हो? हम महाकाव्य ‘महाभारत’ से एक उदारहण लेतेे हैं।


बॉक्स 3.1
प्रश्न करने की परंपरा

‘महाभारत’ में जब भृगु ऋषि, महर्षि भारद्वाज को बताते हैं कि जाति विभाजन विभिन्न मनुष्यों के शारीरिक लक्षणों में पाई जाने वाली विभिन्नताओं से संबंधित है जो कि त्वचा के रंग में परिलक्षित होती है तब भारद्वाज ने न केवल सभी जातियों के मनुष्यों की त्वचा के रंग की ओर संकेत करते हुए (यदि विभिन्न रंग विभिन्न जातियों के सूचक हैं, तो सभी जातियाँ मिश्रित जातियाँ हैं), बल्कि और भी गंभीर प्रश्न करते हुए उन्हें प्रत्युत्तर दियाः "हम सभी इच्छा, क्रोध, भय, दुख, चिंता, भूख और श्रम से प्रभावित होते हैं, फिर हममें जाति एवं जातिगत विभिन्नताएँ कैसे हैं?"

(सेन 2005 : 10-11)


जैसाकि हमने अध्याय 1 और 2 में देखा कि आधुुनिक भारत में समाजिक परिवर्तन का कारण न तो केवल भारतीय विचार हैं और न ही केवल पाश्चात्य विचार, बल्कि यह भारतीय और पाश्चात्य विचारों का संयोग और उनकी पुनर्व्याख्या है। हमने समाज सुधारकों के संदर्भ में एेसा ही देखा है। हमने समानता के आधुुनिक विचार और न्याय के पारंपरिक विचार, दोनों का उपयोग देखा है। लोकतंत्र भी इसका अपवाद नहीं है। औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अलोकतांत्रिक व भेदभावपूर्ण प्रशासनिक व्यवहार तथा उनके द्वारा प्रचारित-प्रसारित और पाश्चात्य शिक्षा-प्राप्त भारतीयों द्वारा पढ़े गए पाश्चात्य लोकतांत्रिक सिद्धांतों में तीव्र अंतर्विरोध मिलता है। भारत में फैली निर्धनता और सामाजिक भेदभाव की प्रबलता लोकतंत्र के अर्थ पर गंभीर प्रश्नचिह्न है। क्या लोकतंत्र का अर्थ केवल राजनीतिक स्वतंत्रता है या फिर आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय भी? क्या जाति, संप्रदाय, नस्ल, लिंग आदि के बावजूद सबके लिए समान अधिकार के बारे में भी लोकतंत्र सार्थक है? और यदि एेसा है तो फिर एेसे असमान समाज में वास्तविक समानता का अनुभव कैसे किया जा सकता है?


बॉक्स 3.2

आज समाज नए रूप में स्थापित होने की ओर अग्रसर है, जैसाकि फ्रांसीसी क्रांति ने तीन शब्दों बंधुता, स्वतंत्रता और समानता जैसे शब्दों में अभिव्यक्त किया था। इसी नारे के कारण फ्रांसीसी क्रांति का स्वागत किया गया था, लेकिन यह समानता लाने में असफल रहा। हमने रूसी क्रांति का स्वागत किया क्योंकि इसका उद्देश्य भी समानता लाना ही था। किंतु इस बात पर बहुत बल देने की आवश्यकता नहीं है कि समानता उत्पन्न करने के लिए समाज और बंधुता अथवा स्वतंत्रता का बलिदान कर दें। बंधुता और स्वतंत्रता समानता के अभाव में मूल्यहीन हैै। इसका तात्पर्य यह है कि इन तीनों का सहअस्तित्व तभी संभव है जब बुद्ध के मार्ग का अनुसरण किया जाए।

(अंबेडकर 1992)


बॉक्स 3.2 के लिए अभ्यास

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़िए और परिचर्चा करिए कि परंपरागत लोकतंत्र के विरुद्ध प्रश्न उठाने और लोकतंत्र के नए आदर्शों का निर्माण करने में विभिन्न पाश्चात्य और भारतीय बौद्धिक विचारों का किस प्रकार प्रयोग किया जाता था। क्या आप अन्य सुधारकों और राष्ट्रवादियों के बारे में विचार कर सकते हैं जो इस प्रकार का प्रयास कर रहे थे।


भारत की स्वतंत्रता से बहुत पहले इनमें से अधिकांश मुद्दों पर विचार किया जा चुका था। जब भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था उस समय एक दृष्टिकोण उत्पन्न हो चुका था कि भारतीय लोकतंत्र कैसा होना चाहिए। बहुत पहले, 1928 में मोतीलाल नेहरू तथा आठ अन्य कांग्रेसी नेताओं ने भारत के लिए संविधान का मसौदा तैयार किया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1931 के कराची अधिवेशन के प्रस्ताव में विचार किया गया था कि स्वतंत्र भारत का संविधान कैसा होना चाहिए। कराची अधिवेशन का प्रस्ताव एक एेसे लोकतंत्र की परिकल्पना करता है जिसका अर्थ केवल चुनाव करवाने की औपचारिकता पूरा करना ही नहीं बल्कि एक यथार्थ व प्रामाणिक लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के लिए भारतीय सामाजिक संरचना पर पुनः यथेष्ट कार्य करना भी है।

कराची प्रस्ताव में लोकतंत्र की वह दृष्टि स्पष्टतः प्रकट होती है जो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में थी। यह प्रस्ताव उन मूल्यों का उल्लेख करता है जो आगे चलकर भारतीय संविधान में पूर्णतः अभिव्यक्त किए गए। आगे आप देखेंगे कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना केवल राजनीतिक न्याय नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय को भी सुनिश्चित करने का प्रयास करती है। इसी प्रकार आप देखेंगे कि समानता का आशय केवल राजनीतिक अधिकारों से संबंधित नहीं है, बल्कि इसका आशय समान परिस्थिति और अवसर से भी है।


बॉक्स 3.3

परिशिष्ट 6

स्वराज में क्या-क्या सम्मिलित होगा

कराची कांग्रेस संकल्प, 1931

कांग्रेस ने स्वराज की जैसी कल्पना की थी उसमें जनता की आर्थिक स्वतंत्रता भी सम्मिलित होनी चाहिए। कांग्रेस ने यह घोषणा की कि कोई भी संविधान तभी स्वीकार्य होगा यदि वह स्वराज सरकार को निम्नलिखित आपूर्तियाँ करने में सक्षम बनाता हैः

1. अभिव्यक्ति, संगठन और सभा की स्वतंत्रता।

2. धार्मिक स्वतंत्रता।

3. सभी संस्कृतियों व भाषाओं की सुरक्षा।

4. कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता।

5. धर्म, जाति या लिंग के आधार पर रोजगार, श्रम या व्यवसाय में भेदभाव न हो।

6. सार्वजनिक कुओं, स्कूलों आदि पर सभी का समान अधिकार व उसके प्रति समान कर्त्तव्य।

7. आत्मरक्षा के लिए नियमानुसार हथियार रखने का अधिकार।

8. कोई भी व्यक्ति संपत्ति व स्वतंत्रता से वंचित न हो।

9. धर्मनिरपेक्ष राज्य।

10. वयस्क मताधिकार।

11. निःशुल्क व अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा।

12. कोई उपाधि न दी जाए।

13. मृत्युदंड का निषेध।

14. प्रत्येक भारतीय नागरिक को आने जाने की स्वतंत्रता और देश में कहीं भी बसने व संपत्ति रखने का अधिकार तथा कानून द्वारा समान सुरक्षा की सुनिश्चितता।

15. कारखाना मज़दूरों के लिए अच्छे जीवन-स्तर की व्यवस्था, मालिकों व श्रमिकों के विवादों को हल करने के लिए उचित प्रणाली तथा वृद्धावस्था व बीमारी आदि से रक्षा।

16. सभी श्रमिकों की कृषि-दासता की दशाओं से मुक्ति।

17. महिला कर्मचारियों की विशेष सुरक्षा।

18. बच्चे खानों और कारखानों में काम न करें।

19. कृषकाें व श्रमिकाें को संगठन बनाने का अधिकार।

20. भूराजस्व, अवधि व कर प्रणाली में सुधार, अनुत्पादिक भूमि के राजस्व व कर में छूट तथा छोटे भूस्वामियों के कर में कमी।

21. उत्तराधिकार कर का क्रमबद्ध पैमाने पर होना।

22. सैन्य व्यय में न्यूनतम आधी कटौती।

23. राज्य कर्मचारियों को 500 रु. मासिक से अधिक वेतन न दिया जाए।

24. नमक कर समाप्त किया जाए।

25. विदेशी वस्त्रों के समक्ष स्वेदशी वस्त्रों को प्राथमिकता व सुरक्षा।

26. नशीले पेय पदार्थों पर प्रतिबंध।

27. मुद्रा व विनिमय राष्ट्रीय हित में हो।

28. मूल उद्योगों, सेवाओं रेल आदि का राष्ट्रीयकरण।

29. कृषि ऋणग्रस्तता से राहत व सूदखोरी पर नियंत्रण।

30. नागरिकों के लिए सैन्य प्रशिक्षण।

सदस्यता के आवेदन पत्रों पर मुद्रित करने के लिए कराची प्रस्ताव को इस रूप में संक्षिप्त किया गया था।


बॉक्स 3.4
भारतीय संविधान की प्रस्तावना

हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों कोः

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुल्क सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।


बॉक्स 3.3 और 3.4 के लिए अभ्यास

कराची संकल्प और संविधान की प्रस्तावना को ध्यान से पढ़ें। इसमें निहित मूल विचारों को पहचानें।


लोकतंत्र कई स्तरों पर कार्य करता है। इस अध्याय का प्रारंभ हम भारतीय संविधान के दृष्टिकोण से करेंगे जो भारतीय लोकतंत्र का मूलाधार है। संविधान सभा के मुक्त विचार-विमर्श और उसके मत से संविधान उत्पन्न हुआ। अतः इसका दृष्टिकोण और इसकी वैचारिक अंतर्वस्तु इसके निर्माण की प्रक्रिया पूर्णतः लोकतांत्रिक है। इस अध्याय का अगला भाग संविधान सभा के वाद-विवाद पर आधारित है।

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सर्वपल्ली राधाकृष्णन निर्वाचक विधान-सभा को संबोधित करते हुए।


संविधान-सभा का वाद-विवाद : एक इतिहास

1939 में ‘हरिजन’ नामक पत्र में गाँधी जी ने एक लेख लिखा-‘द ओनली वे’ (The only way) जिसमें उन्होंने कहा-"...संविधान सभा अकेले ही जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाले एक पूर्ण, सत्य तथा स्वदेशी संविधान का निर्माण कर सकती है जो महिलाओं तथा पुरुषों दोनों के लिए भेदभाव रहित वयस्क मताधिकार पर आधारित हो।" 1939 में एक ‘संविधान सभा’ की माँग हुई थी जिसे अनेक उतार-चढ़ावों के बाद साम्राज्यवादी ब्रिटेन ने 1945 में मान लिया। जुलाई 1946 में चुनाव हुए। अगस्त 1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की विशेषज्ञ सभा ने संविधान सभा में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसमें यह घोषणा की गई थी कि भारत एक गणतंत्र होगा जहाँ सभी के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित होगा।

सामाजिक न्याय के प्रश्न पर एक जोरदार बहस चली कि जो सरकारी प्रकार्य निर्धारित होंगे उन्हें राज्य अनिवार्य रूप से लागू करेगा। संविधान सभा में रोजगार का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, भूमिसुधार व संपत्ति का अधिकार और पंचायतों के आयोजन पर बहस हुई। बहस के कुछ अंश यहाँ दिए जा रहे हैं।


बॉक्स 3.5
बहस के कुछ अंश

→ के. टी. शाह ने कहा कि लाभदायक रोजगार को श्रेणीगत बाध्यता के द्वारा वास्तविक बनाया जाना चाहिए और राज्य की यह जिम्मेदारी हो कि वह सभी समर्थ व योग्य नागरिकों को लाभदायक रोजगार उपलब्ध कराए।

→ बी. दास ने सरकार के कार्यों को अधिकार क्षेत्र व अधिकार क्षेत्र से बाहर की श्रेणियों में वर्गीकृत करने का विरोध किया, "मैं समझता हूँ कि भुखमरी को समाप्त करना, सभी नागरिकों को सामाजिक न्याय देना और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार का प्राथमिक कर्त्तव्य है......लाखों लोगों की सभा वह मार्ग नहीं ढूँढ़ पाई कि संघ का संविधान उनकी भूख से मुक्ति सुनिश्चित करेगा, सामाजिक न्याय, न्यूनतम मानक जीवन-स्तर और न्यूनतम जन-स्वास्थ्य सुनिश्चित करेगा।"

→ अंबेडकर का उत्तर इस प्रकार था-"संविधान का जो प्रारूप बनाया गया है वह देश के शासन के लिए केवल एक प्रणाली उपलब्ध कराएगा। इसकी यह योजना बिल्कुल नहीं है कि कोई विशेष दल सत्ता में लाया जाए, जैसाकि कुछ देशों में हुआ है। अगर व्यवस्था लोकतंत्र को संतुष्ट करने की परीक्षा में खरी उतरती है, तो यह जनता द्वारा निश्चित किया जाएगा कि कौन सत्ता में होना चाहिए। लेकिन जिसके हाथ में सत्ता है वह मनमानी करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। उसे निदेशक सिद्धांत कहे जाने वाले अनुदेशों का सम्मान करना पड़ेगा। जिन्हें वह अनदेखा नहीं कर सकता। हाँ, इनके उल्लंघन के लिए वह न्यायालय में उत्तरदायी नहीं होगा। लेकिन चुनाव के समय निर्वाचकों के सामने उसे इन बातों का उत्तर देना होगा। निदेशक सिद्धांत जिन महान मूल्यों से संपन्न हैं उन्हेें तभी अनुभव किया जा सकता है जब सत्ता पाने के लिए सही योजना का क्रियान्वन किया जाए।"

→ भूमि-सुधार के विषय में नेहरू ने कहा कि सामाजिक शक्ति इस तरह की है कि कानून इस संदर्भ में कुछ नहीं कर सकता जो इन दोनों की गतिशीलता का एक रोचक प्रतिबिंब है। "अगर कानून और संसद स्वयं को बदलते परिदृश्य के अनुकूल नहीं करते तो ये स्थितियों पर नियंत्रण नहीं कर पाएँगे।"

→ संविधान-सभा की बहस के समय आदिवासी हितों की रक्षा के मामले में जयपाल सिंह जैसे नेता, नेहरू के निम्नलिखित शब्दों द्वारा आश्वस्त किए गए-"यथासंभव उनकी सहायता करना हमारी अभिलाषा और निश्चित इच्छा है; यथासंभव उन्हें कुशलतापूर्वक उनके लोभी पड़ोसियों से बचाया जाएगा और उन्हें उन्नत किया जाएगा।"

→ संविधान सभा ने एेसे अधिकारों को जिन्हें न्यायालय लागू नहीं करवा सकता, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के शीर्षक के रूप में स्वीकार किया तथा इनमें सर्व-स्वीकृति से कुछ अतिरिक्त सिद्धांत जोड़े गए। इनमें के. संथानम का वह खंड भी सम्मिलित है जिसके अनुसार राज्य को ग्राम पंचायतों की स्थापना करनी चाहिए तथा स्थानीय स्वशासन के लिए उन्हें अधिकार व शक्ति भी देनी चाहिए।

→ टी. ए. रामालिंगम चेट्टियार ने ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी कुटीर उद्योगों के विकास से संबंधित खंड जोड़ा। अनुभवी व वरिष्ठ सांसद ठाकुरदास भार्गव ने यह खंड जोड़ा कि राज्य को कृृषि व पशुपालन को आधुनिक प्रणाली से व्यवस्थित करना चाहिए।


बॉक्स 3.5 के लिए अभ्यास

संविधान-सभा की बहस के उपर्युक्त अंशों को ध्यानपूर्वक पढ़िए। चर्चा कीजिए कि किस प्रकार विभिन्न उद्देश्यों पर बहस हुई। आज ये मुद्दे कितने प्रासंगिक हैं?


हित प्रतिस्पर्धी संविधान और सामाजिक परिवर्तन

भारत बहुत से स्तरों पर विद्यमान है। अलग-अलग महत्वपूर्ण आदिवासी संस्कृतियों के साथ-साथ अनेक धर्मों व संस्कृतियों से निर्मित यहाँ की जनसंख्या भारत की बहुलता का एक आयाम है। बहुत से विभाजन भारतीयों को वर्गीकृत करते हैं। संस्कृति, धर्म तथा जाति के विविध प्रभाव ग्रामीण-नगरीय, धनी-निर्धन और साक्षर-निरक्षर विभाजन पर आधारित है। ग्रामीण निर्धनों के बीच कई एेसे समूह व उपसमूह हैं जो बड़ी गहराई से जाति व निर्धनता के आधार पर स्तरीकृत किए गए हैं। नगराें के कामगार वर्ग की कई विस्तृत श्रेणियाँ हैं। यही नहीं, सुव्यवस्थित घरेलू उद्यमी वर्ग, व्यावसायिक एवं वाणिज्यिक वर्ग भी है। नगरीय व्यावसायिक वर्ग बहुत मुखर भी है। भारतीय सामाजिक परिदृश्य और असंतोष व कोलाहल की स्थिति में हितों की प्रतिस्पर्धा राज्य के संसाधनों पर नियंत्रण के लिए है।

संविधान में कुछ मूल उद्देश्य सम्मिलित किए गए हैं जो भारतीय राजनीतिक संसार में सामान्यतः न्यायोचित मानकर स्वीकृत कर लिए गए हैं। निर्धनों और हाशिए के लोगों को सक्षम बनाने में, निर्धनता उन्मूलन में, जातिवाद समाप्त करने तथा सभी समूहों के प्रति समानता का व्यवहार करने के लिए ये कुछ सकारात्मक चरण हैं।

हितों की प्रतिस्पर्धा हमेशा किसी स्पष्ट वर्ग-विभाजन को ही प्रतिबिंबित नहीं करती। किसी कारखाने को बंद करवाने का कारण यह होता है कि उससे निकलने वाला विषैला कचरा आसपास के लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। यहाँ लोगों के जीवन का प्रश्न है, जिनकी सुरक्षा संविधान भी सुनिश्चित करता है। अगले पृष्ठ पर यह प्रदर्शित किया गया है कि बहुत सी चीज़ों की समाप्ति के कारण लोग बेरोज़गार हो जाएँगे। जीवनयापन का साधन भी एक एेसा मुद्दा है जिसकी सुरक्षा संविधान सुनिश्चित करता है। यह अत्यंत रोचक है कि संविधान निर्माण के समय हमारी संविधान सभा इस जटिलता और बहुलता से परिचित थी लेकिन सामाजिक न्याय की सुनिश्चितता की उसने गारंटी दी।

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संवैधानिक मानदंड और सामाजिक न्याय : सामाजिक न्याय सशक्तता की व्याख्या

यह जान लेना आवश्यक है कि कानून और न्याय में अंतर है। कानून का सार इसकी शक्ति है। कानून इसलिए कानून है क्योंकि इससे बल प्रयोग अथवा अनुपालन के संचरण के माध्यमों का प्रयोग होता है। इसके पीछे राज्य की शक्ति निहित होती है। न्याय का सार निष्पक्षता है। कानून की कोई भी प्रणाली अधिकारियों के संस्तरण के माध्यम से ही कार्यरत होती है। एेसे प्रमुख मानदंड जिनसे नियम और अधिकारी संचालित होते हैं संविधान कहलाता है। यह एक एेसा दस्तावेज है जिससे किसी राष्ट्र के सिद्धांतों का निर्माण होता है। भारतीय संविधान भारत का मूल मानदंड है। अन्य सभी कानून, संविधान द्वारा नियत कार्य प्रणाली के अंतर्गत बनते हैं। ये कानून संविधान द्वारा निश्चित अधिकारियों द्वारा बनाए व लागू किए जाते हैं। कोई विवाद होने पर संविधान द्वारा अधिकार प्राप्त न्यायालयों के संस्तरण द्वारा कानून की व्याख्या होती है। ‘उच्चतम न्यायालय’ सर्वोच्च है और वही संविधान का सबसे अंतिम व्याख्याकर्त्ता भी है।

उच्चतम न्यायालय ने कई महत्वपूर्ण रूपों में मौलिक अधिकारों को बढ़ाया है। नीचे दिए गए बॉक्स इनमें से कुछ उदाहरणों को दर्शाता है–


बॉक्स 3.6

→ मौलिक अधिकार वह सब अंतर्भूत करता हैै जो इसके लिए आकस्मिक है। अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का वर्णन करता है और जीवन के लिए अनिवार्य गुणवत्ता, जीवनयापन के साधन, स्वास्थ्य, आवास, शिक्षा और गरिमा की व्याख्या करता है। विभिन्न उद्घोषणाओं में जीवन की विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है और इसे एक पशुमात्र के अस्तित्व से बेहतर व महत्वपूर्ण रूप में व्याख्यायित किया गया है। ये व्याख्याएँ उन कैदियों को राहत पहुँचाने के लिए प्रयोग की जाती है जिन्हें प्रताड़ित करने और वंचित रखने का दंड मिला है। यह उन्हें मुक्त करने, बंधुआ मज़दूरों को पुनर्वासित करने और प्राथमिक स्वास्थ्य व शिक्षा उपलब्ध कराने की व्याख्या करता हैै।

1993 में उच्चतम न्यायालय ने सूचना के अधिकार को स्वीकार करते हुए कहा कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है और उसका आनुषांगिक अंग है जो अनुच्छेद 19(क) के अंतर्गत वर्णित है।

→ मौलिक अधिकारों के संदर्भ में नीति निर्देशक सिद्धांतों की प्रस्तुतिः

उच्चतम न्यायालय ने ‘समान कार्य के लिए समान वेतन’ निदेशक तत्त्व को अनुच्छेद 14 के ‘समानता के मौलिक अधिकार’ के अंतर्गत माना तथा बहुत से बागान एवं कृषि श्रमिकों तथा अन्य को राहत पहुँचाई


संविधान केवल इस बात का संदर्भ ग्रंथ नहीं है कि सामाजिक न्याय के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं बल्कि इसमें सामाजिक न्याय के अर्थ को प्रचारित-प्रसारित करने की संभावनाएँ भी निहित हैं। सामाजिक न्याय की समकालीन समझ को ध्यान में रखते हुए अधिकारों और कर्त्तव्यों की व्याख्या में सामाजिक आंदोलनों ने भी न्यायालयों और प्राधिकरणों की सहायता की है। कानून और न्यायालय एेसी संस्थाएँ हैं जहाँ प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोणों पर बहस होती है। संविधान वह माध्यम है जो राजनीतिक शक्ति को सामाजिक हित की ओर प्रवाहित करता है और उसे सुसंगत बनाता है।

आप देखेंगे कि संविधान में लोगों की सहायता करने की क्षमता निहित है क्योंकि यह सामाजिक न्याय के आधारभूत मानदंडों पर आधारित है। उदाहरण के लिए ग्राम पंचायतों से संबंधित निदेशक सिद्धांत एक संशोधन के रूप में के. संथानम द्वारा संविधान सभा में लाया गया था। 40 साल के बाद 1992 के 73वें संशोधन में यह एक संवैधानिक विधेयक बन गया। अगले भाग में आप इसके विषय में पढेंगे।


3.2 पंचायती राज और ग्रामीण सामाजिक रूपांतरण की चुनौतियाँ

पंचायती राज के आदर्श

पंचायती राज का शाब्दिक अनुवाद होता है ‘पाँच व्यक्तियों द्वारा शासन’। इसका अर्थ गाँव एवं अन्य जमीनी स्तर पर लचीले लोकतंत्र की क्रियाशीलता से है। मूल स्तर से लोकतंत्र का विचार हमारे देश में विदेश से आयातित नहीं है, लेकिन एेसा समाज जहाँ असमानताएँ अत्यंत तीव्र हैं, लोकतांत्रिक भागीदारी को लिंग, जाति और वर्ग के आधार पर बाधित किया जाता है। जैसाकि आप इस अध्याय में समाचारपत्रों की रिपोर्टों में आगे देखेंगे कि एेसे गाँवों में पारंपरिक रूप से जातीय पंचायतें रही हैं लेकिन ये हमेशा प्रभुत्वशाली समूहों का ही प्रतिनिधित्व करती रही हैं। इनका दृष्टिकोण प्रायः रूढ़िवादी रहा है और ये लगातार लोकतांत्रिक मानदंडों और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विपरीत निर्णय लेते रहे हैं।


बॉक्स 3.7
पंचायती राज संस्था की त्रिस्तरीय व्यवस्था

→ इसकी संरचना एक पिरामिड की भाँति है। संरचना के आधार पर लोकतंत्र की इकाई के रूप में ग्राम सभा स्थित होती है। इसमें पूरे गाँव के सभी नागरिक शामिल होते हैं। यही वह आम सभा है जो स्थानीय सरकार का चुनाव करती है और कुछ निश्चित उत्तरदायित्व उसे सौंपती है। ग्राम सभा परिचर्चा और ग्रामीण स्तर के विकासात्मक कार्यों के लिए एक मंच उपलब्ध कराती है और निर्णय लेेने की प्रक्रिया में निर्बलों की भागीदारी के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है।

→ संविधान के 73वें संशोधन ने बीस लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक राज्य में त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली लागू की।

→ यह अनिवार्य हो गया कि प्रत्येक पाँच वर्ष में इसके सदस्यों का चुनाव होगा।

→ इसने अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए निश्चित आरक्षित सीटें तथा महिलाओं के लिए 33% आरक्षित सीटें उपलब्ध कराईं।

→ इसने पूरे जिले के विकास को प्रारूप निर्मित करने के लिए जिला योजना समिति गठित की।


जब संविधान बनाया जा रहा था तो उसमें पंचायतों की कोई चर्चा नहीं की गई थी। उस समय कई सदस्यों ने इस मुद्दे पर अपने दुखः, क्रोध और निराशा को प्रकट किया था। ठीक उसी समय अपने ग्रामीण अनुभव का उल्लेख करते हुए डा. अंबेडकर ने तर्क दिया कि स्थानीय कुलीन और उच्चजातीय लोेग सुरक्षित परिधि से इस प्रकार घिरे हुए हैं कि स्थानीय स्वशासन का मतलब होगा भारतीय समाज के पददलित लोगों का निरंतर शोषण। निसंदेह उच्च जातियाँ जनसंख्या के इस भाग को चुप करा देंगी। स्थानीय सरकार की अवधारणा गाँधीजी को भी प्रिय थी। वे प्रत्येक ग्राम को स्वयं में आत्मनिर्भर और पर्याप्त इकाई मानते थे जो स्वयं अपने को निर्देशित करे। ग्राम स्वराज्य को वे आदर्श मानते थे और चाहते थे कि स्वतंत्रता के बाद भी गाँवों में यही शासन चलता रहे।

पहली बार 1992 में 73वें संविधान संशोधन के रूप में मौलिक व प्रारंभिक स्तर पर लोकतंत्र और विकेंद्रीकृत शासन का परिचय मिलता है। इस अधिनियम ने पंयाचती राज संस्थाओं को संवैधानिक प्रस्थिति प्रदान की। अब यह अनिवार्य हो गया है कि स्थानीय स्वशासन के सदस्य गाँवों तथा नगरों में हर पाँच साल में चुने जाएँ। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि स्थानीय संसाधनों पर अब चुने हुए निकायों का नियंत्रण होता हैै।

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73वें और 74वें संविधान संशोधन ने ग्रामीण व नगरीय दोनों ही क्षेत्रों के स्थायी निकायों के सभी चयनित पदों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिया। इनमें से 17% सीटें अनुसूचित जाति व अनुुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। यह संशोधन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके अंतर्गत पहली बार निर्वाचित निकायों में महिलाओं को शामिल किया जिससे उन्हें निर्णय लेने की शक्ति मिली। स्थानीय निकायोें, ग्राम पंचायतों, नगर निगमों, ज़िला परिषदों आदि में एक तिहाई पदों पर महिलाओं का आरक्षण है। 73वें संशोधन के तुरंत बाद 1993-94 के चुनाव में 8,00,000 महिलाएँ एक साथ राजनीतिक प्रक्रियाओं से जुड़ीं। वास्तव में महिलाओं को मताधिकार देने वाला यह एक बड़ा कदम था। स्थानीय स्वशासन के लिए त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली का प्रावधान करने वाला संवैधानिक संशोधन पूरे देश में 1992-93 से लागू है। (बॉक्स 3.7 पढें)।


पंचायतों की शक्तियाँ और उत्तरदायित्व

संविधान केे अनुसार पंचायत को स्वशासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने हेतु शक्तियाँ व अधिकार दिए जाने चाहिए। आज सभी राज्य सरकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे स्थानीय प्रतिनिधिक संस्थाओं को पुनर्जीवित करें।

पंचायतों को निम्नलिखित शक्तियाँ व उत्तरदायित्व प्राप्त हैं-

→ आर्थिक विकास के लिए योजनाएँ एवं कार्यक्रम बनाना।

→ सामाजिक न्याय को प्रोत्साहित करने वाले कार्यक्रमों को बढ़ावा देना।

→ शुल्क, यात्री कर, जुर्माना, अन्य कर आदि लगाना व एकत्र करना।

→ सरकारी उत्तरदायित्वों के हस्तांतरण में सहयोग करना, विशेष रूप से वित्त को स्थानीय अधिकारियों तक पहुँचाना।

पंचायतों द्वारा किए जाने वाले सामाजिक कल्याण के कार्यों में शामिल है कि श्मशानों एवं कब्रिस्तानों का रखरखाव, जन्म और मृत्यु के आँकड़े रखना, मातृत्व केंद्रों और बाल कल्याण केंद्रों की स्थापना, पशुओं के तालाब पर नियंत्रण, परिवार-नियोजन का प्रचार और कृषि-कार्यों का विकास। इसके अलावा सड़कों के निर्माण, सार्वजनिक भवनों के निर्माण, तालाबाें व स्कूलों के निर्माण जैसे विकासात्मक कार्य भी इसमें शामिल हैं। पंचायतें कुटीर उद्योगों के विकास में भी सहयोग करती हैं और छोटे सिंचाई कार्यों की भी देखभाल करती हैं। बहुत सी सरकारी योजनाएँ, जैसे कि एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम, एकीकृत बाल विकास योजना आदि पंचायत के सदस्यों द्वारा संचालित होती हैं।

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संपत्ति, व्यवसाय, पशु, वाहन आदि पर लगाए गए कर, चुंगी, भू-राजस्व आदि पंचायतों की आय के मुख्य स्रोत हैं। जिला पंचायत द्वारा प्राप्त अनुदान पंचायत के संसाधनों में वृद्धि करते हैं। पंचायतों के लिए यह अनिवार्य है कि वे अपने कार्यालय के बाहर बोर्ड लगाएँ जिसमें प्राप्त वित्तीय सहायता के उपयोग से संबंधित आँकड़े लिखे हों। यह व्यवहार यह सुनिश्चित करने के लिए अपनाया गया कि जमीनी स्तर के सामान्य जन के ‘सूचना के अधिकार’ को सुनिश्चित किया जा सके और पंचायतों के सारे कार्य जनता के समक्ष हाें। लोगों के पास पैसों के आवंटन की छानबीन का अधिकार है। साथ ही वे यह भी पूछ सकते हैं कि गाँव के कल्याण और विकास के हेतु लिए गए निर्णयों के कारण क्या हैं।

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कुछ राज्यों में न्याय पंचायतों की भी स्थापना की गई है। कुछ छोटे-मोटे दीवानी और आपराधिक मामलों की सुनवाई का अधिकार इनके पास होता है। ये जुर्माना लगा तो सकते हैं लेकिन कोई सजा नहीं दे सकते। ये ग्रामीण न्यायालय प्रायः कुछ पक्षों के आपसी विवादाें में समझौता कराने में सफल होते हैं। विशेष रूप से ये तब प्रभावशाली होते हैं जब किसी पुरुष द्वारा दहेज केे लिए स्त्री को प्रताड़ित किया जाए या उसके विरुद्ध हिंसात्मक कार्यवाही की जाए।


जनजाति क्षेत्रों में पंचायती राज

बहुत से आदिवासी क्षेत्रों की प्रारंभिक स्तर के लोकतांत्रिक कार्यों की अपनी समृद्ध परंपरा रही है। हम मेघालय से संबंधित एक उदाहरण दे रहे हैं। गारो, खासी और जयंतिया, तीनों ही आदिवासी जातियों की सैकड़ों साल पुरानी अपनी राजनीतिक संस्थाएँ रही हैं। ये राजनीतिक संस्थाएँ इतनी सुविकसित थीं कि ग्राम, वंश और राज्य के स्तर पर ये बड़ी कुशलता से कार्य करती थीं। उदाहरणार्थ, खासियों की पारंपरिक राजनीतिक प्रणाली में प्रत्येक वंश की अपनी परिषद होती थी जिसे ‘दरबार कुर’ कहा जाता था और जो उस वंश के मुखिया के निर्देशन में कार्य करता था। यद्यपि मेघालय में जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्थाओं की परंपरा रही है, लेकिन आदिवासी क्षेत्रों का एक बड़ा खंड संविधान के 73वें संशोधन के प्रावधान से बाहर है। शायद यह इसलिए क्योंकि उस समय की नीतियाँ बनाने वाले पारंपरिक राजनीतिक संस्थाओं में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे।


बॉक्स 3.8

दलित जाति की कलावती चुनाव लड़ने के संबंध में चिंतित थी। आज वह एक पंचायत सदस्य है और यह अनुभव कर रही है कि जब से वह पंचायत सदस्य बनी है तब से उसका विश्वास और आत्मसम्मान बढ़ गया है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि अब उसका अपना एक नाम है। पंचायत की सदस्य बनने से पहले वह ‘रामू की माँ’ या ‘हीरालाल की पत्नी’ के नाम से जानी जाती थी। यदि वह ग्राम-प्रधान पद का चुनाव हार गई तो उसे अनुभव होगा कि उसकी सखियों की नाक कट गई।

स्रोतः यह आलेख ‘महिला समाख्या’ नामक गैर सरकारी संगठन द्वारा दर्ज किया गया है, जो कि ग्रामीण महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए कार्य करता है


बॉक्स 3.9
वन पंचायत

उत्तराखंड में अधिकांश कार्य महिलाएँ करती हैं, क्योंकि पुरुष प्रायः रक्षा सेवाओं के लिए बाहर नियुक्त होते हैं। खाना बनाने के लिए अधिकांश ग्रामीण लकड़ियों का प्रयोग करते हैं। जैसाकि आप जानते होंगे कि वनों का कटाव पर्वतीय क्षेत्रों की एक बड़ी समस्या है। कभी-कभी पशुओं का चारा और लकड़ी इकट्ठा करने के लिए औरतों को मीलों पैदल चलना पड़ता है। इस समस्या के समाधान के लिए औरतों ने वन-पंचायताें की स्थापना की। वन पंचायत की औरतें पौधशालाएँ बनाकर छोटे पौधों का पालन-पोषण करती हैं, जिन्हें पहाड़ी ढालों पर रोपा जा सके। इसकी सदस्य आसपास के जंगलों की अवैध कटाई से सुरक्षा भी करती हैं। चिपको आंदोलन-जिसमें कि पेड़ों को कटने से बचाने के लिए औरतें उनसे चिपक जाती थीं, इस क्षेत्र में ही प्रारंभ किया गया था।


बॉक्स 3.10
निरक्षर महिलाओं के लिए पंचायती राज प्रशिक्षण

यह पंचायती राज प्रणाली की शक्तियों के प्रचार-प्रसार का एक नवाचारी उपाय है। सुखीपुर और दुखीपुर नामक दो गाँवों की कहानी कपड़े की फड़ (कहानी कहने का एक परंपरागत लोक माध्यम) के द्वारा प्रस्तुत की गई। दुखीपुर गाँव में एक भ्रष्ट प्रधान थी विमला। उसने गाँव में स्कूल बनवाने के लिए पंचायत से धन लिया था, लेकिन उसका उपयोग उसने अपने परिवार का घर बनवाने के लिए किया। गाँव का बाकी हिस्सा दुखी और गरीब था। दूसरी तरफ, सुखीपुर गाँव में एक साधारण वर्ग की औरत (नजमा) प्रधान थी; उसने ग्रामीण विकास के पैसे को गाँव के भौतिक संसाधनों को बढ़ाने के लिए खर्च किया। इस गाँव में प्राथमिक चिकित्सालय, सड़कें व पक्के मकान थे। बसें यहाँ आराम से पहुँच सकती थीं। लोक संगीत और चित्रमय फड़ दोनों एक साथ समर्थ सरकार और उसमें भागीदारी प्रचार-प्रसार के लिए उपयोगी हथियार थे। कहानी कहने का ये नया तरीका निरक्षर महिलाओं में जागरूकता फैलाने में बहुत प्रभावशाली था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस प्रचार ने यह संदेश दिया कि केवल मतदान करना, चुनाव में खड़े होना या जीतना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि यह जानना भी आवश्यक है कि किसी व्यक्ति को क्यों मत दिया जाए, उसमें एेसी क्या विशेषता होनी चाहिए और वह आगे क्या करना चाहता/चाहती है। गीत फड़ के माध्यम से कही गई कहानी सत्यनिष्ठा का पक्ष भी प्रबल करती है।

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यह प्रशिक्षण कार्यक्रम ‘महिला समाख्या’ नामक गैर सरकारी संगठन द्वारा समायोजित किया गया था जो ग्रामीण महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए कार्य करता है


जैसाकि समाजशास्त्री टिपलुट नोंगबरी ने कहा है कि आदिवासी संस्थाएँ अपनी संरचना और क्रियाकलाप में लोकतांत्रिक ही हो, यह आवश्यक नहीं है। भूरिया समिति की रिपोर्ट (जिसने इस मुद्दे का अध्ययन किया है) पर टिप्पणी करते हुए नोंगबरी ने कहा कि हालाँकि पारंपरिक आदिवासी संस्थाओं पर समिति की चिंता प्रशंसनीय है, लेकिन यह स्थिति की जटिलता का आकलन कर पाने में असमर्थ रही। आदिवासी समाजों में प्रबल समतावादी लोकाचार पाया जाता है, इसके बावजूद उनमें स्तरीकरण के तत्त्व कहीं न कहीं उपस्थित हैं। आदिवासी राजनीतिक संस्थाएँ केवल महिलाओं के प्रति असहिष्णुता के लिए ही नहीं जानी जाती, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ने इस व्यवस्था में विकृतियाँ भी उत्पन्न कर दी हैं जिससे यह पहचानना मुश्किल है कि क्या पारंपरिक है और क्या अपारंपरिक। (नोंगबरी, 2003ः220) यह आपको परंपरा की परिवर्तनशील प्रकृति की याद दिलाता है जिसकी चर्चा हम अध्याय 1 व 2 में कर चुके हैं।


लोकतंत्रीकरण और असमानता

अब आपके सामने स्पष्ट हो जाएगा कि जिस देश में जाति, समुदाय और लिंग आधारित असमानता का लंबा इतिहास हो, एेसे समाज में लोकतंत्रीकरण आसान नहीं है। पिछली पुस्तक में आप विभिन्न प्रकार की असमानताओं से परिचित हो चुके हैं। अध्याय 4 में ग्रामीण भारतीय संरचना की और अच्छी जानकारी प्राप्त करेंगे। एेसी असमान व अलोकतांत्रिक सामाजिक संरचना को देखने के बाद यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि बहुत से मामलों में गाँव के कुुुछ विशेष समूह, समुदाय, जाति से संबंधित लोग न तो गाँव की समितियों में शामिल किए जाते हैं और न ही उन्हें एेसे क्रियाकलापों की सूचना दी जाती है। ग्राम सभा के सदस्य प्रायः एक एेसे छोटे से गुट द्वारा नियंत्रित व संचालित किए जाते हैं जो अमीर किसानों या उच्च जाति के ज़मींदारों के होते हैं। बहुसंख्यक लोग देखते भर रह जाते हैं और ये लोग बहुमत को अनदेखा करके विकासात्मक कार्यों का और सहायता राशि बाँटने का फैसला कर लेते हैं।


बॉक्स 3.11
सम्मान का प्रश्न

जाति पंचायतें स्वयं को ग्रामीण नैतिकता का अभिभावक सिद्ध कर रही हैं.....अक्तूबर 2004 का एेसा पहला मामला जो सुर्खियों में रहा है, जब झज्जर-जिले के असांदा गाँव की पंचायत ‘राठी खाप’ ने सोनिया के सामने यह शर्त रखी कि अगर उसे गाँव में रहना है तो अपना गर्भपात करना होगा और अपनी शादी तोड़कर पति रामपाल को अपना भाई मानना पड़ेगा। उसकी शादी एक साल पहले हुई थी। उस दंपति का अपराध यह था कि उन्होंने एक ही गोत्र में विवाह किया था, हालाँकि हिंदू विवाह अधिनियम भी इसे मान्यता देता है। सोनिया और रामपाल केवल हरियाणा उच्च न्यायालय के निर्देश पर वहाँ की सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई सुरक्षा-व्यवस्था के बाद ही साथ रह सके।

इसी तरह मुजफ्फरनगर की अंसारी जाति की पंचायत ने पिछले साल यह निर्णय दिया कि अपने श्वसुर द्वारा बलात्कार होने के बाद इमराना अपने पति की माँ बन चुकी है। मेरठ की एक पंचायत ने फैसला दिया कि अपने दूसरे पति द्वारा गर्भवती होने के बावजूद भी गुड़िया को पहले पति के पास लौट जाना चाहिए, जो कि पाँच वर्ष बाद वापस आया था।

स्रोतः संडे टाइम्स अॉफ़ इंडिया, नयी दिल्ली, 29 अक्टूबर-2006


बॉक्स 3.12
धन और विशेषाधिकार की भूमिका? ग्रामीणों की भूमिका?

सूंपा सरपंच सीट महिलाओं के लिए आरक्षित कोटे में रखी गई। फिर भी पंचायत के निवासियों ने इसे प्रतिभागियों के पतियों के बीच की प्रतिस्पर्धा माना। एक तरफ सरपंच पद का उम्मीदवार था राम राय मेवाड़ा जो केकड़ी में एक शराब की दुकान का मालिक था, और दूसरी तरफ उसी गाँव का जमींदार चंद सिंह ठाकुर था। गाँव वालों ने मेवाड़ा की असलियत खोल दी कि 2002-03 के सूखा-राहत कार्य में उसने नकली नामावली बनाई थी।

हालाँकि उसके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई, लेकिन इस बार गाँव वाले उसे पंचायत से बाहर देखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने ठाकुर को कड़े संघर्ष के लिए उसके सामने रखा। सूंपा के निवासियों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि मेवाड़ा के विरुद्ध कड़े मुकाबले के लिए सबसे उपर्युक्त व्यक्ति ठाकुर ही है....।


बॉक्स 3.13
अधिकाधिक भागीदारी और सूचना के लिए सामाजिक आंदोलनों और संगठनों की भूमिका

24 जनवरी को धोरेला गाँव (कुशलपुरा पंचायत) में एक सभा हुई। घोषणाएँ करके, बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें नारे सिखाए गए और दरवाजे-दरवाजे जाकर लोगों को बताया गया। एक स्थानीय एन. जी. ओ. के अच्छी छवि वाले एक कार्यकर्त्ता ने चौपाल में सभा के लिए आने का लोगों से निवेदन किया.........। तारा (स्थानीय एन. जी. ओ. द्वारा समर्थित प्रत्याशी) का घोषणापत्र पढ़ा गया और उसने एक छोटा सा भाषण भी दिया। उसका घोषणापत्र........उसमें कहा गया था कि वे एक सरपंच के रूप में घूस नहीं लेंगी, प्रचार में 2000 रु. से अधिक खर्च नहीं करेंगी आदि।

लोगों के मत खरीदने के लिए और प्रचार-कार्य के खर्च में सहयोग के लिए शराब और गुड़ बाँटा जाता है और जीपों का खुलकर प्रयोग किया जाता है....। एकत्रित गाँव वालों के सामने भ्रष्टाचार की पूरी शृंखला स्पष्ट की गईः कम खर्च के चुनाव गरीबों की सहभागिता को स्वीकार ही नहीं करते बल्कि वे भ्रष्टाचार-मुक्त पंचायतों की संभावना भी प्रबल करते हैं।


बॉक्स 3.11, 3.12 और 3.13 के लिए अभ्यास

उपर्युक्त बॉक्सों का ध्यानपूर्वक पढ़ें और निम्नलिखित विषयों पर चर्चा करें -

→ धन की भूमिका

→ जनता की भूमिका

→ महिलाओं की भूमिका


नीचे के बॉक्सों में दी गई रिपोर्ट ज़मीनी या तृणमूल स्तर के विभिन्न अनुभवों को दिखाती है। एक रिपोर्ट दर्शाती है कि पारंपरिक पंचायतों का प्रयोग किस प्रकार किया जाता है। एक और रिपोर्ट दर्शाती है कि कुछ मामलों में पंचायती राज संस्थाएँ कैसे आमूल परिवर्तन लाती हैं। जबकि एक और रिपोर्ट यह दर्शाती है कि कैसे लोकतांत्रिक पैमाने काम नहीं कर पाते क्योंकि हित समूह परिवर्तनों का विरोध करते हैं; उनके लिए केवल पैसा महत्वपूर्ण है।


3.3 राजनीतिक दल, दबाव समूह और लोकतांत्रिक राजनीति

आप स्मरण करेंगे कि यह अध्याय लोकतंत्र की परिभाषा के उद्धरण के साथ प्रारंभ हुआ था, लोकतंत्र एक शासन के रूप में, जो जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए है। जैसे-जैसे यह अध्याय आगे बढ़ेगा, आप पाएँगे कि यह परिभाषा लोकतंत्र की आत्मा, उसके मूल अर्थ को तो पकड़ती है, लेकिन लोगों के एक समूह और दूसरे समूह के बीच के बहुत से विभाजनों को स्पष्ट नहीं करती है। आप देख चुके हैं कि किस प्रकार हित और चिंता अलग-अलग हैं। भारतीय संविधान विषयक अनुभाग दो में हमने देखा है कि कैसे विभिन्न समूहों ने संविधान सभा में अपने-अपने हितों और सरोकारों का प्रतिनिधित्व किया। भारतीय लोकतंत्र की कहानी में हमने विभिन्न समूहों के हितों को भी देखा। हर सुबह के अखबार पर एक दृष्टिमात्र से ही अनेक एेसे उदाहरण दिखेंगे कि विभिन्न समूह कैसे अपनी आवाज सुनाना चाहते हैं और सरकार का ध्यान अपनी परेशानियों की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं।

अब यह प्रश्न उठता है कि सभी हित समूह तुलनीय हैं। क्या एक अशिक्षित किसान या एक शिक्षित कर्मचारी अपनी बात को सरकार के सामने उतने ही साफ़ तौर पर और विश्वसनीय ढंग से रख सकता है, जैसे कि एक उद्योगपति? न तो उद्योगपति और न ही किसान या कर्मचारी अपनी बात को केवल व्यक्तिगत रूप में रखते हैं उद्योगपति ‘फेडरेशन अॉफ़ इंडियन कॉमर्स एंड चैंबर्स’; ‘एसोसिएशन अॉफ़ चैंबर्स अॉफ़ कॉमर्स’ जैसे संगठन बनाते हैं। कर्मचारी ‘इंडियन ट्रेड यूनियन कांग्रेस’, या ‘द सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियंस’ बनाते हैं। किसान कृषि संगठन बनाते हैं, जैसा कि शेतकरी संगठन कृषि मजदूरों का अपना अलग संघ होता हैं। अंतिम पाठ में आप अन्य प्रकार के संगठनों और सामाजिक आंदोलनों जैसे आदिवासी एवं पर्यावरण आंदोलन के बारे में पढ़ेंगे।


क्रियाकलाप 3.1

→ एक सप्ताह के समाचारपत्र-पत्रिकाओं को देखें। उनमें एेसे उदाहरणों को लिखें जहाँ हितों का संघर्ष हो।

→ विवादास्पद मुद्दों का पता लगाएँ।

→ उन तरीकों का पता लगाइए जिनसे संबंधित समूह अपने हितों का फ़ायदा उठाते हैं।

→ क्या यह किसी राजनीतिक दल का औपचारिक प्रतिनिधि मंडल है जो प्रधानमंत्री या किसी अन्य अधिकारी से मिलना चाहता है।

→ क्या यह विरोध सड़कों पर किया जा रहा है?

→ क्या यह विरोध लिखित रूप में अथवा समाचार पत्रों में सूचना के द्वारा किया जा रहा है?

→ क्या यह सार्वजनिक बैठकों के द्वारा किया जा रहा है? एेसे उदाहरणों का पता लगाइए।

→ यह पता लगाइए कि क्या किसी राजनीतिक दल, व्यावसायिक संघ, गैर सरकारी संगठन अथवा किसी भी अन्य निकाय ने इस मुद्दे को उठाया है?

→ भारतीय लोकतंत्र की कहानी के विभिन्न पात्रों के बारे में चर्चा करें।


सरकार के लोकतांत्रिक प्रारूप में राजनीतिक दल मुख्य भूमिका अदा करते हैं। एक राजनीतिक दल को निर्वाचन प्रक्रिया द्वारा सरकार पर न्यायपूर्ण नियंत्रण स्थापित करने की ओर उन्मुख संगठन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। राजनीतिक दल एक एेसा संगठन होता है जो सत्ता हथियाने और सत्ता का उपयोग कुछ विशिष्ट कार्यों को संपन्न करने के उद्देश्य से स्थापित करता है। राजनीतिक दल समाज की कुछ विशेष समझ और यह कैसे होना चाहिए पर आधारित होते हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में विभिन्न समूहों के हित राजनीतिक दलों द्वारा ही प्रतिनिधित्व प्राप्त करते हैं जो उनके मुद्दों को उठाते हैं। विभिन्न हित समूह राजनीतिक दलों को प्रभावित करनेे के लिए कार्य करेंगे। जब किसी समूह को लगता है कि उसके हित की बात नहीं की जा रही है तो वह एक अलग दल बना लेता है। या फिर ये दबाव समूह बना लेते हैं जो सरकार से अपनी बात मनवाने की कोशिश करते हैं। हित समूह राजनीतिक क्षेत्र में कुछ निश्चित हितों को पूरा करने के लिए बनाए जाते हैं। ये प्राथमिक रूप से वैधानिक अंगों के सदस्यों का समर्थन प्राप्त करने के लिए बनाए जाते हैं। कुछ स्थितियों में राजनीतिक संगठन शासन सत्ता पाना तो चाहते हैं लेकिन वे इंकार कर देते हैं क्योंकि उन्हें कुछ मानक माध्यमाें द्वारा एेसा अवसर नहीं मिलता है। एेसे संगठन तब तक आंदोलन में बने रहते हैं जब तक उन्हें मान्यता नहीं मिलती।


बॉक्स 3.14

हर साल फरवरी के अंत में भारत सरकार के वित्त मंत्री संसद के सामने बजट पेश करते हैं। इसके पहले हर रोज अखबार में यह खबर छपती है कि भारतीय उद्यमियों के संगठन, श्रमिक संघों, किसानों और महिलाओं के संगठनों ने वित्त मंत्रालय के साथ बैठक की।


बॉक्स 3.14 के लिए अभ्यास

क्या ये सभी दबाव समूह समझे जा सकते हैं?


पहले व दूसरे, दोनों ही क्रियाकलापों में बताया गया है कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए सभी समूहों में समान क्षमता नहीं है। अतः कुछ लोग यह तर्क देेते हैं कि दबाव समूह की अवधारणा प्रबल सामाजिक समूहों जैसे वर्ग अथवा जाति अथवा लैंगिक समूह आदि की शक्ति को हतोत्साहित करती है। वे यह अनुभव करते हैं कि यह कहना अधिक सही होगा कि प्रबल वर्ग ही राज्य को नियंत्रित करते हैं। यहाँ इस बात का यह अर्थ नहीं है कि सामाजिक आंदोलन और दबाव समूह लोकतंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाते। आठवाँ अध्याय यही दर्शाता है।


बॉक्स 3.15
दल के संबंध में मैक्स वेबर के विचार

वर्गों की वास्तविक स्थिति अर्थ प्रणाली के क्रम में है, जबकि प्रस्थिति समूहों का स्थान सामाजिक क्रम (आर्डर) में है..... लेकिन दल शक्ति संरचना के अंतर्गत होते हैं...।

दलों की क्रियाएँ हमेशा एक एेसे उद्देश्य के लिए होती हैं जिनकी प्राप्ति एक नियोजित दृष्टि के लिए की जाती है। उद्देश्य एक ‘कारण’ हो सकता है (दल का उद्देश्य किसी आदर्श या भौतिक आवश्यकता के लिए कार्यक्रम की वास्तविकता को जानना भी हो सकता है), या उद्देश्य निजी भी हो सकता है (आराम, शक्ति और इनके माध्यम से नेता और दल के अनुयायियों का सम्मान)।

(वेबर 1948:194)


बॉक्स 3.16 के लिए अभ्यास

→ अगले पृष्ठ पर दिए गए बॉक्स को ध्यानपूर्वक पढें। अन्य कस्बों और शहरों से आप एेसे ही और भी उदाहरण ले सकते हैं।

→ निर्धनों, सेवक वर्ग, मध्यमवर्ग और धनी वर्ग के हितों की पहचान करें।

→ विभिन्न समूहों द्वारा सड़क के प्रयोग को किस प्रकार देखा जाता है?

→ चर्चा करें कि सरकार की भूमिका के विषय में आप क्या सोचते हैं।

→ परामर्शदाता प्रतिष्ठानों जैसे मैकंजी की क्या भूमिका है? ये किनके हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं?

→ राजनीतिक दलों की क्या भूमिका है?

→ क्या आपको लगता है कि निर्धन लोग परामर्शदाता प्रतिष्ठानों की अपेक्षा राजनीतिक दलों को अधिक प्रभावित कर सकते हैं? क्या एेसा इसलिए है कि राजनीतिक दल जनता के प्रति उत्तरदाई हैं? क्या वे उन्हें नकार सकते हैं?


मुंबई महानगर में विकास कार्यों के ठोस उदाहरण द्वारा हम आपको समझाएँगे कि ये प्रतिस्पर्धी हित कैसे कार्य करते हैं।


बॉक्स 3.16

हाल के वर्षों में देखने को मिला कि भारतीय नगरों को भूमंडलीय नगर बनाने पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। नगरीय योजना बनाने वालाें और परिकल्पना करने वालों की दृष्टि से मुुंबई को तत्काल उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम से जोड़ने की आवश्यकता है। इस ओर उनका तर्क यह था कि मुंबई को एक वृत्त में घेरने के लिए एक "एक्सप्रेस रिंग वे" के निर्माण की आवश्यकता है। "ताकि वह मुक्त मार्ग शहर के भीतर के किसी बिंदु से 10 मिनट के अंदर पहुँच सके", "शीघ्र प्रवेश एवं निकास" तथा "दक्ष यातायात विसर्जन" (‘एफिशिएंट ट्रैफिक डिस्पर्सल’) शहर की प्रवाहमय क्रियाशीलता के लिए अति आवश्यक है।

कम विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए सड़क की भूमिका कुछ अलग भी है। वे संपर्क के मुक्त मार्ग से भी अधिक बहुत कुछ हैं। चाहे इसे अच्छा मानें या बुरा सड़कें प्रायः बाज़ार बन जाती हैं, मेले, तीर्थयात्रा, मनोरंजन (परिवहन) और आर्थिक विनिमय जैसे विभिन्न उद्देश्य के लिए साधन बन जाते हैं। सड़क पर रहते हुए लोगों को सार्वजनिक और निजी स्थानों के बीच कोई अंतर नहीं दिखाई देता क्योंकि वे वहीं पर खरीदना-बेचना, खाना-पीना, क्रिकेट खेलना यहाँ तक कि खड़े रहना और घूमना-फिरना भी चलता रहता है। नगर की योजना बनाने वालों ने संकेत किया है कि कैसे ये क्रियाकलाप यातायात को रोकते हैं और उनके सामने अवरोध पैदा करते हैं।

इन अवरोधों को कम करने के लिए गरीब लोगों को शहर के बाहरी भागों में बसा दिया गया है। मैकंजी के एक निजी परामर्शदाता द्वारा तैयार किए गए दस्तावेज ‘मुंबई विज़न’ में गरीबों का घर बनाने की योजना शहर के बाहर नमक की परत वाली जमीन पर है। उनके जीवनयापन के साधनों का क्या होगा? निम्नलिखित उद्धरण गरीबों की आवाज को पूरी तरह अभिव्यक्त करता है।

"हम वास्तव में ‘मानव बुलडोजर’ और ‘मानव ट्रैक्टर’ हैं। जमीन को सबसे पहले हमने समतल किया। हमने शहर को योगदान दिया है। हम तुम्हारी गंदगी शहर से बाहर लाते हैं। मैं भीख नहीं माँगता। मैं तुम्हारे कपड़े धोता हूँ। औरतें काम पर जा सकती हैं क्योंकि उनके बच्चों की देखभाल के लिए हम रहते हैं। मंत्रालय, कलेक्ट्रेट, बंबई म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के कर्मचारी, यहाँ तक कि पुलिस के लोग भी मलिन बस्तियों में रहते हैं। क्योंकि हम होते हैं, तो औरतें रात में सुरक्षित घूम सकती हैं.... बॉम्बे फर्स्ट जैसे समूह सबसे पहले मुंबई के वर्ल्ड-क्लास सिटी होने की बात करते हैं। यह कैसे वर्ल्ड-क्लास सिटी बन सकती है जबकि इस शहर के गरीबों को रहने की जगह नहीं" (आनंद 2006:3422)

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प्रश्नावली

1. हित समूह प्रकार्यशील लोकतंत्र के अभिन्न अंग हैं। चर्चा कीजिए।

2. संविधान सभा की बहस के अंशों का अध्ययन कीजिए। हित समूहों को पहचानिए। समकालीन भारत में किस प्रकार के हित समूह हैं? वे कैसे कार्य करते हैं?

3. विद्यालय में चुनाव लड़ने के समय अपने आदेशपत्र के साथ एक फड़ बनाइए। (यह पाँच लोगों के एक छोटे समूह में भी किया जा सकता है, जैसा पंचायत में होता है।)

3. क्या आपने बाल मजदूर और मजदूूर किसान संगठन के बारे में सुना है? यदि नहीं तो पता कीजिए और उनके बारे में 200 शब्दों में एक लेख लिखिए।

4. ग्रामीणों की आवाज को सामने लाने में 73वाँ संविधान-संशोधन अत्यंत महत्वपूर्ण है। चर्चा कीजिए।

5. एक निबंध लिखकर उदाहरण देते हुए उन तरीकों को बताइए जिनसे भारतीय संविधान ने साधारण जनता के दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण है और उनकी समस्याओं का अनुभव किया है।


संदर्भ ग्रंथ

आनंद, निखिल 2006, ‘डिस्कनेक्टिंग एक्सपीरियंस : मेकिंग वर्ल्ड क्लास रोड्स इन मुंबई’ इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली अगस्त 5 पृष्ठ 3422-3429।

अंबेडकर, बाबा साहेब 1992, ‘द बुद्ध एंड हिज़ धर्म’ वी. मून (संपा.) डा. बाबा साहेब अंबेडकरःराइटिंग एंड स्पीचेस, वॉल्यूम में 11, बॉम्बे एेजूकेशनल डिपार्टमेंट, गवर्नमेंट अॉफ़ महाराष्ट्र।

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