स्वाधीनता संग्राम के दिनों में अनेक कवियों ने स्वाधीनता को मुखर करने वाली ओजपूर्ण कविताएं लिखीं। माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की ऐसी कविताओं की चार-चार पंक्तियां इकट्ठा कीजिए जिनमें स्वाधीनता के भाव ओज से मुखर हुए हैं।

(1) वेदों से बलिदानों तक जो होड़ लगी

प्रथम प्रभात किरण से हिम में जोत जागी


उतर पड़ी गंगा खेतों खलिहानों तक


मानो आँसू आये बलि-महमानों तक


सुख कर जग के क्लेश


प्यारे भारत देश।।


— माखनलाल चतुर्वेदी


जय भारत-भूमि-भवानी!


अमरों ने भी तेरी महिमा बारंबार बखानी।


तेरा चन्द्र-वदन वर विकसित शान्ति-सुधा बरसाता है;


मलयानिल-निश्वास निराला नवजीवन सरसाता है।


हदय हरा कर देता है यह अंचल तेरा धानी;


जय जय भारत-भूमि-भवानी!


— मैथिलीशरण गुप्त


युवकजनों की है जान ;


ख़ून की होली जो खेली ।


पाया है लोगों में मान,


ख़ून की होली जो खेली ।


रँग गये जैसे पलाश;


कुसुम किंशुक के, सुहाए,


कोकनद के पाए प्राण,


ख़ून की होली जो खेली ।


—सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’


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