Our Past -3

काव्य खंड

हर देश में तू, हर भेष में तू, तेरे नाम अनेक तू एकही है।

तेरी रंगभूमि यह विश्व भरा, सब खेल में, मेल में तू ही तो है।।

सागर से उठा बादल बनके, बादल से फटा जल हो करके।

फिर नहर बना नदियाँ गहरी, तेरे भिन्न प्रकार, तू एकही है।।

चींटी से भी अणु-परमाणु बना, सब जीव-जगत् का रूप लिया।

कहीं पर्वत-वृक्ष विशाल बना, सौंदर्य तेरा, तू एकही है।।

यह दिव्य दिखाया है जिसने, वह है गुरुदेव की पूर्ण दया।

तुकड़या कहे कोई न और दिखा, बस मैं अरु तू सब एकही है।।

- संत तुकड़ोजी

कविता का पठन-पाठन


किसी भी भाषा के साहित्य में विचारों और भावों के संप्रेषण की मुख्य रूप से दो शैलियाँ होती हैं–गद्य और कविता। कविता या तो छंद, तुक, लय, सुर एवं ताल में बँधी होती है या अतुकांत भी होती है। दोनों ही तरह की कविताओं में अलग-अलग भावानुभूतियों का आनंद लिया जा सकता है। एक ओर कविता पाठक की भावनाओं को उदात्त बनाती है तो दूसरी ओर उसके सौंदर्यबोध को माँजती-सँवारती है। वह मनुष्य को इंसानियत से, प्रकृति से, देश से, और वृहत्तर दुनिया से जोड़ती है। विद्यार्थियों के किशोर मन को तो कविता विशेष रूप से प्रभावित करती है, क्योंकि किशोर मन सरल, जिज्ञासु और रागात्मक होता है। कविता किशोर भावनाओं के परिष्कार, संवेदनशीलता के विकास एवं सुरुचि-निर्माण में तो योगदान करती ही है, साथ ही यह छात्रों में सुपाठ की क्षमता भी उत्पन्न करती है।

उल्लेखनीय है कि हिंदीतर विद्यार्थी अपनी मातृभाषा की कविताओं और उनके नाद, भाव तथा विचार-सौंदर्य से सुपरिचित होते ही हैं। इस संकलन की कविताओं का तादात्म्य मातृभाषा की कविताओं से बिठाकर काव्य-शिक्षण को और अधिक रुचिकर तथा उपयोगी बनाया जा सकता है।

काव्य-पाठ

कविता के आनंद का अनुभव करने के लिए पहली आवश्यकता है उचित लय और प्रवाह के साथ कविता का वाचन। कविता गद्य नहीं है, अतः गद्य की भाँति नहीं पढ़ी जाती। लय और प्रवाह ही उसे गद्य से भिन्न बनाते हैं। वाचन मौन हो या मुखर, लय और प्रवाह के साथ ही होना चाहिए। लय का निर्धारण काव्य-पंक्तियों में विद्यमान गति, विराम-चिह्न, मात्रा तथा तुक से होता है। मात्राओं के घटने-बढ़ने से उसके प्रवाह में रुकावट आती है। अतः वाचन में शब्दों के उच्चारण का निर्दोष होना आवश्यक है। संयुक्ताक्षरों का शुद्ध उच्चारण न होने पर भी कविता की लय टूट जाएगी और वह कर्णकटु बन जाएगी।

उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ

हृदय-चिताएँ धधकाकर,

महा महामारी प्रचंड हो

फैल रही थी इधर-उधर,

क्षीण-कंठ मृतवत्साओं का

करुण-रुदन दुर्दांत नितांत,

भरे हुए था निज कृश रव में

हाहाकार अपार अशांत।


यहाँ उद्वेलित, अश्रु-राशियाँ, क्षीण, मृतवत्साओं, हाहाकार आदि का उच्चारण सही न होने पर कविता का पाठ ठीक से न हो सकेगा और वह प्रभावहीन हो जाएगी।

शब्दार्थ-बोधन

द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी पढ़नेवाले विद्यार्थियों को कहीं-कहीं कुछ शब्द कठिन लग सकते हैं। उनका अर्थ जाने बिना उन्हें समग्र भाव-बोध में कठिनाई हो सकती है। अतः उन्हें शब्दार्थ बताए जाने चाहिए किंतु शब्दार्थ-बोधन इतना बोझिल न हो कि कविता के आनंद में ही बाधा पड़े। अच्छा हो, एक-दो बार सस्वर वाचन के द्वारा कविता की मूल संवेदना स्पष्ट हो जाने के बाद ही शब्दार्थ बताए जाएँ।

रैदास, रहीम आदि प्राचीन कवियों की भाषा आज की हिंदी से भिन्न है, पर गेयता, भाव-प्रवणता के कारण उनकी रचनाएँ सर्वत्र लोकप्रिय हैं और बहुत संभव है कि पाठ्यपुस्तक में उद्धृत उनकी कुछ रचनाओं से विद्यार्थी पहले से परिचित हों और एेसे भाव-बोध की कुछ कविताएँ अपनी मातृभाषा के माध्यम से भी पढ़ चुके हों। एेसी कविताओं के सस्वर पाठ द्वारा कविता का भाव-ग्रहण सहज हो सकता है।

भाव-ग्रहण और रसास्वाद

कविता को सुनने-पढ़ने से जो अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त होता है, उसे ही आचार्यों ने ‘रस’ कहा है। शब्द-प्रयोग, अलंकार, कहने की विशिष्ट शैली, छंद, लय, प्रवाह आदि कविता के बाहरी तत्त्व हैं और उसकी आत्मा संपूर्ण कविता में व्याप्त भाव विशेष ही है।

कविता को बार-बार पढ़ने से उसकी मूल संवेदना तथा उसका रचना-कौशल दोनों ही स्पष्ट होते हैं परंतु जहाँ तक उसके भाव का प्रश्न है, वह किसी पद, पंक्ति या छंद में न होकर पूरी कविता में व्याप्त रहता है।

कविताएँ एेसी भी हो सकती हैं जिनमें कवि का मंतव्य सर्वथा स्पष्ट न होता हो। कवि मात्र कुछ संकेत कर देता है और शेष अस्पष्ट ही रह जाता है, जो पाठक को सोचने-विचारने के लिए बाधित कर उसे पंक्तियों में छिपी गहराई को नापने के लिए उकसाता है। ‘खुशबू रचते हैं हाथ’ की निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए–


कई गलियों के बीच

कई नालों के पार

कूड़े-करकट

के ढेरों के बाद

बदबू से फटते जाते इस

टोले के अंदर

खुशबू रचते हैं हाथ

खुशबू रचते हैं हाथ।


शिल्प-सौंदर्य का उद्घाटन

कविता का आनंद पाठक की रुचि, संवेदनशीलता और संस्कारों पर निर्भर करता है। ये बातें किसी में अधिक और किसी में कम भी हो सकती हैं, पर बार-बार काव्य-पाठ सुनने और कविता की चर्चा करने से रुचियों में संस्कार संभव है और संवेदनशीलता भी बढ़ती है। वस्तुतः कविता का अर्थ जान लेना या उसका भावार्थ लिख लेना ही पर्याप्त नहीं है।

छात्रों में धीरे-धीरे एेसी क्षमता का विकास होना चाहिए कि वे कविता की मूल संवेदना या विषय को सहज रूप से ग्रहण कर अपने शब्दों में व्यक्त कर सकें। इस बात पर बल दिया जाना चाहिए कि वे पठित कविताओं को कंठस्थ कर सकें और उचित अवसरों पर उन्हें लय एवं आरोह-अवरोह के साथ सुना सकें।


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रैदास

(1388 - 1518)

रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म सन् 1388 और देहावसान सन् 1518 में बनारस में ही हुआ, एेसा माना जाता है। इनकी ख्याति से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा था। मध्ययुगीन साधकों में रैदास का विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह रैदास भी संत कोटि के कवियों में गिने जाते हैं। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में रैदास का ज़रा भी विश्वास न था। वह व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे।

रैदास ने अपनी काव्य-रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रैदास को उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं। सीधे-सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी सफ़ाई से प्रकट किए हैं। इनका आत्मनिवेदन, दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठक के हृदय को उद्वेलित करते हैं। रैदास के चालीस पद सिखों के पवित्र धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में भी सम्मिलित हैं।

यहाँ रैदास के दो पद लिए गए हैं। पहले पद ‘प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी’ में कवि अपने आराध्य को याद करते हुए उनसे अपनी तुलना करता है। उसका प्रभु बाहर कहीं किसी मंदिर या मस्ज़िद में नहीं विराजता वरन् उसके अपने अंतस में सदा विद्यमान रहता है। यही नहीं, वह हर हाल में, हर काल में उससे श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न है। इसीलिए तो कवि को उन जैसा बनने की प्रेरणा मिलती है।

दूसरे पद में भगवान की अपार उदारता, कृपा और उनके समदर्शी स्वभाव का वर्णन है। रैदास कहते हैं कि भगवान ने तथाकथित निम्न कुल के भक्तों को भी सहज-भाव से अपनाया है और उन्हें लोक में सम्माननीय स्थान दिया है।

पद

( 1 )

अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।

प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।

प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।

प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।

प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।

प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, एेसी भक्ति करै रैदासा।।

( 2 )

एेसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।

गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै ।।

जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।

नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै।।

नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै।

कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै।।

प्रश्न-अभ्यास

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए–

(क) पहले पद में भगवान और भक्त की जिन-जिन चीज़ों से तुलना की गई है, उनका उल्लेख कीजिए।

(ख) पहले पद की प्रत्येक पंक्ति के अंत में तुकांत शब्दों के प्रयोग से नाद-सौंदर्य आ गया है, जैसे– पानी, समानी आदि। इस पद में से अन्य तुकांत शब्द छाँटकर लिखिए।

(ग) पहले पद में कुछ शब्द अर्थ की दृष्टि से परस्पर संबद्ध हैं। एेसे शब्दों को छाँटकर  लिखिए–

उदाहरण :
दीपक
बाती

........... ...........

........... ...........

........... ...........

........... ...........


(घ) दूसरे पद में कवि ने ‘गरीब निवाजु’ किसे कहा है? स्पष्ट कीजिए।

(ङ) दूसरे पद की ‘जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै’ इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

(च) ‘रैदास’ ने अपने स्वामी को किन-किन नामों से पुकारा है?

(छ) निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रूप लिखिए–

मोरा, चंद, बाती, जोति, बरै, राती, छत्रु, धरै, छोति, तुहीं, गुसईआ

2. नीचे लिखी पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए–

(क) जाकी अँग-अँग बास समानी

(ख) जैसे चितवत चंद चकोरा

(ग) जाकी जोति बरै दिन राती

(घ) एेसी लाल तुझ बिनु कउनु करै

(ङ) नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै

3. रैदास के इन पदों का केंद्रीय भाव अपने शब्दों में लिखिए।

योग्यता-विस्तार

1. भक्त कवि कबीर, गुरु नानक, नामदेव और मीराबाई की रचनाओं का संकलन 

कीजिए।

2. पाठ में आए दोनों पदों को याद कीजिए और कक्षा में गाकर सुनाइए।

शब्दार्थ और टिप्पणियाँ

बास गंध, वास

समानी - समाना (सुगंध का बस जाना), बसा हुआ (समाहित)

घन बादल

मोरा मोर, मयूर

चितवत देखना, निरखना

चकोर तीतर की जाति का एक पक्षी जो चंद्रमा का परम प्रेमी माना जाता है

बाती बत्ती; रुई, पुराने कपड़े आदि को एेंठकर या बटकर बनाई  हुई पतली पूनी, जिसे तेल में डालकर दिया जलाते हैं

जोति ज्योति, देवता के प्रीत्यर्थ जलाया जानेवाला दीपक

बरै बढ़ाना, जलना

राती रात्रि

सुहागा सोने को शुद्ध करने के लिए प्रयोग में आनेवाला क्षारद्रव्य

दासा  दास, सेवक

लाल  - स्वामी

कउनु - कौन

गरीब निवाजु - दीन-दुखियों पर दया करनेवाला

गुसईआ - स्वामी, गुसाईं

माथै छत्रु धरै - मस्तक पर स्वामी होने का मुकुट धारण करता है

छोति   - छुआछूत, अस्पृश्यता

जगत कउ लागै  - संसार के लोगों को लगती है

ता पर तुहीं ढरै  - उन पर द्रवित होता है

नीचहु ऊच करै  - नीच को भी ऊँची पदवी प्रदान करता है

नामदेव - महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत, इन्होंने मराठी और हिंदी दोनों भाषाओं में रचना की है

तिलोचनु (त्रिलोचन) - एक प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य, जो ज्ञानदेव और नामदेव के  गुरु थे

सधना - एक उच्च कोटि के संत जो नामदेव के समकालीन माने  जाते हैं

सैनु - ये भी एक प्रसिद्ध संत हैं, आदि ‘गुरुग्रंथ साहब’ में  संगृहीत पद के आधार पर इन्हें रामानंद का समकालीन माना जाता है

हरिजीउ - हरि जी से

सभै सरै - सब कुछ संभव हो जाता है

 

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